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बहुत हुआ

अंतर्नाद
अंतर्नाद
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बहुत हुआ


मुद्दों की बात मत करो

बहुत हुआ |

अब मत उछालो हवा में

मुद्दों के संखिया भरे हरे-हरे गोलगप्पे

हम इन्हें आँख उठा-उठाकर देखते रहे

मुँह बाते रहे, दौड़ते रहे, खाते रहे, मरते रहे

पर अब बहुत हुआ |

तुम्हारी सियासत की दुकान पर बेइंतहा

मजमे का लगे रहना

तुम्हारे वोटों की मुरादाबादी तिजोरी का भरते रहना

तुम्हारे मुद्दों के शो-रूम का रह-रहकर दमकते रहना

बहुत हुआ, बहुत हुआ, बहुत हुआ |


एक अरसा हुआ मुद्दों का चलन

घावों पर मरहम-पट्टी का दिखावा

बहुत हुआ |

तुम पीटते हो ढिंढोरा देश की अखण्डता का

और घोंपते हो देश के अंग-अंग में ज़हर-बुझे भाले

तुम करते हो मुनादी स्थायी सरकार की

और लंगड़ी मार-मारकर गिराते हो सरकारें

तुम डुगडुगी बजाते हो राममंदिर की

और ठहाका मारते हो सोने की लंका में

तुम दुहाई देते हो धर्म-निरपेक्षता की

और तोड़ते-तुड़वाते हो अम्बेडकर की मूर्ति

गांधी की समाधि

निर्वस्त्र कर गाँव भर में घुमाते हो बुधुआ की औरत

ऊपर से पंडिताऊ हवाला देते हो वेद-पुराण का

तुलसी-चाणक्य का

बरकरार रखना चाहते हो बाबरी मिजाज़ कदम-कदम पर

धरम की आड़ में अहं का कृपाण चमकाना चाहते हो

लोकसभा के बीचोबीच

तुम चिल्लाते हो डंके की चोट पर देश बचाओ

ग़रीबी हटाओ /राष्ट्रभाषा /समाजवाद

साक्षरता /रोज़गार /आरक्षण

मगर करते हो मूँछाबोर देश-भक्षण

अब मत गर्माओ मुद्दों का बाज़ार

ओ मुद्देबाजो ! ओ आदमखोरो  !

बहुत हुआ, बहुत हुआ, बहुत हुआ |


लोकतन्त्र के झण्डाबरदार बिजूको,

अब बहुत हुआ |

तुम कब तक भेड़-खाल में छिपकर पैदा होते रहोगे

क्या तुम्हारी ठग-विद्या हमेशा कामयाब रहेगी

अब हम मुहर मारकर निठल्ले बैठनेवाले नहीं

अब सरे बाज़ार तुम्हारी दोग़ली खाल उतारी जाएगी

अब तुम्हारी दिग्विजय का काला घोड़ा गाहे-बेगाहे

हर चौराहे पर रोका जाएगा

अब केवल तुम्हारी पगड़ी का

अब केवल तुम्हारी टोपी का

अब केवल तुम्हारी दाढ़ी का

अब केवल तुम्हारे क्लीन फ़ेस का

जादू चलनेवाला नहीं

बहुत हुआ, बहुत हुआ, बहुत हुआ |


— संतलाल करुण

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