अंतर्नाद
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विरह-हंसिनी
विरह-हंसिनी हवा के झोंके
श्वेत पंख लहराए रे !
आज हंसिनी निठुर, सयानी
निधड़क उड़ती जाए रे !
अब तो हंसिनी, नाम बिकेगा
नाम जो सँग बल खाए रे !
होके बावरी चली अकेली
लाज-शरम ना आए रे !
धौराहर चढ़ राज-हंसनी,
किससे नेह लगाए रे !
कोटर आग जले धू-धूकर
क्यों न उसे बुझाए रे !
ओरे ! हंसिनी, रंगमहल से
कहाँ तू नयन उठाए रे !
जिस हंसा के फाँस-फँसी
कोई उसका सच ना पाए रे !
सच तो एक ही, सुन रे, बतंगड़ !
तू ही भरम फैलाए रे !
क्षिति, जल, अनल, गगन, पवन
वही एक करत बिखराए रे !
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— संतलाल करुण
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