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वाराणसी: अखिल भारतीयता के लक्षण

सांस्कृतिक आयाम
सांस्कृतिक आयाम
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जैसा कि आप सब जानते हैं कि वाराणसी पर लिखने से पूर्व मैंने वादा किया था कि सिर्फ़ एक लेख के स्थान पर मैं एक पूरी श्रृंखला ही लिखना चाहता हूँ और इसी क्रम में मैंने पूर्व प्रकाशित आलेख में शुरुआत ही एक श्लोक से की थे (काश्या: सर्वा…..मुक्तपुर्यो भवन्ति|) जिसके अंत में कहा गया है कि सभी तीर्थ जो काशी में अवस्थित हैं उनकी स्वयं की ऋतुयात्राएँ भी हैं| तात्पर्य यह कि सभी तीर्थों के दर्शन के लिए वर्ष का एक अपना-अपना समय नियत होता है| चार धाम, सप्तपुरियों व द्वादश ज्योतिर्लिंगों के विषय में हम पहले ही जान चुके हैं| आज हम यह जानेंगे कि यह तीर्थ वाराणसी में किन-किन स्थानों पर अवस्थित हैं तथा पौराणिक मान्यताओं के आधार पर वर्ष के किस काल खंड अथवा मास में इनका दर्शन फलदायक होता है| साथ ही लेख के अंत में हम काशी के अनेक अद्भुत पहलुओं में से कुछ एक को जानेंगे|
शुभारंभ करते हैं चार धामों से| बद्रीनाथ धाम, जो वस्तुतः उत्तराखंड की हिमालयी श्रृंखला में स्थित है, काशी में नर-नारायण तीर्थ के नाम से जाना जाता है जो ‘गायघाट’ और ‘त्रिलोचन घाट’ के मध्य स्थित है| केदार मंदिर के प्रांगण में भी भगवान बद्रीनाथ का एक चित्र है| रामेश्वरम, जो वास्तव में तमिलनाडु के सुदूर दक्षिण में स्थित है, का वास पंचक्रोशी मार्ग पर स्थित रामेश्वर मंदिर पर माना जाता है व साथ ही साथ ‘मान-मंदिर घाट’ पर स्थित रामेश्वर मंदिर भी समान रूप से मान्य है| पुरी जो उड़ीसा में है तथा अपने विशाल रथयात्रा महोत्सव के लिए मशहूर है, ‘अस्सी घाट’ के समीप स्थित जगन्नाथ मंदिर एवं उसके परिसर में माना जाता है| द्वारिका धाम, जो सौराष्ट्र, गुजरात में स्थित है, उसका वास शंकुधारा नामक स्थान पर है जहाँ एक कुण्ड स्थित है जो श्रीकृष्ण को समर्पित एक मंदिर से सटा हुआ है|
अब बात करते हैं, सप्तपुरियों की| अयोध्या जिसे हम राम की नगरी के रूप में जानते हैं, उसे रामापुरा क्षेत्र में स्थित राम मंदिर और उससे लगे रामकुण्ड में स्थित माना जाता है| यहाँ दर्शन करने के लिए ज्येष्ठ-आषाढ़ मास को उत्तम माना गया है| अनोखी मथुरा नगरी को बकरिया नामक कुण्ड के आसपास स्थित माना गया है| वसंत ऋतु एवं चैत्र मास में इस तीर्थ का दर्शन करना श्रेष्ठ माना गया है| हरिद्वार को अस्सी घाट पर स्थित माना गया है यद्यपि किसी मंदिर अथवा धार्मिक प्रतीक, जो हरिद्वार को इंगित करता हो, का यहाँ अभाव है| शीत ऋतु के माघ मास में यहाँ दर्शन करने का ग्रंथों में उल्लेख है| ‘पञ्चगंगा घाट’ (जहाँ से देव-दीपावली शुरू हुई) पर स्थित बिन्दुमाधव के मंदिर के बगल में कांची तीर्थ अवस्थित माना गया है| यहाँ दर्शन पूजन हेतु कार्तिक मास का उल्लेख है| उज्जैन नगरी का वास कालेश्वर मंदिर और कृतिवास मंदिर के मध्य माना गया है| चूँकि कृतिवास मंदिर अब एक मस्जिद है तो श्रद्धालुओं की भावना मृत्युंजय महादेव मंदिर के प्रांगण स्थित कालेश्वर, वृद्ध कालेश्वर एवं महा कालेश्वर मंदिरों पर केंद्रित रहती हैं| यहाँ तीर्थ करने के लिए पौष-माघ मासों को उत्तम माना गया है| द्वारिका के विषय में हम पहले ही जान चुके हैं|
अब हमारा रुख होगा देश की विभिन्न दिशाओं में फैले ज्योतिर्लिंगों की वाराणसी में अवस्थिति की तरफ़| इन ज्योतिर्लिंगों को ‘स्वयं-भू’ माना गया है| सर्वप्रथम हम इन लिंगों के नाम और भारत वर्ष में इनकी वास्तविक स्थिति के बारे में जानेंगे तत्पश्चात हम काशी में इनके वास स्थान पर चर्चा करेंगे| ज्योतिर्लिंगों के नाम इस प्रकार हैं – सोमनाथ (गुजरात), महाकालेश्वर (उज्जैन), वैद्यनाथ (बिहार), भीमशंकर (असोम तथा महाराष्ट्र), केदारनाथ (उत्तराखण्ड), ओंकारनाथ (म०प्र०), विश्वेश्वर/विश्वनाथ (वाराणसी) आदि| सोमनाथ को ‘दशाश्वमेध घाट’ के उत्तर में ‘मान-मंदिर घाट’ पर स्थित माना गया है| महाकाल को वृद्धकालेश्वर मंदिर में स्थित माना गया है| वैद्यनाथ का वास कमच्छा क्षेत्र में स्थित माना गया है| भीमशंकर, प्रसिद्ध कचौड़ी गली स्थित काशी-करवट मंदिर में अवस्थित हैं| केदारनाथ का वास ‘केदारघाट’ स्थित केदारेश्वर मंदिर में है| ओंकारेश्वर को मच्छोदरी क्षेत्र में स्थित माना जाता है तथा विश्वेश्वर या विश्वनाथ, दशाश्वमेध के उत्तर में विश्वनाथ गली में अपने मूल स्थान पर शोभायमान हैं|
उपर्युक्त धामों, पुरियों और ज्योतिर्लिंगों के अलावा भारत भूमि पर अनेक पावन तीर्थ उपस्थित हैं जिनका अत्यधिक महत्त्व है| प्रयाग इनमें से सबसे बड़े नामों में से एक है| प्रयाग, जो इलाहाबाद के नाम से भी जाना जाता है, का काशी में एक नहीं दो-दो स्थानों पर वास माना जाता है| पहला है दशाश्वमेध घाट के निकट ‘प्रयाग घाट’ पर| दूसरा स्थान है ‘पञ्चगंगा घाट’ स्थित बिंदु-माधव मंदिर| कुरुक्षेत्र का भी हमारे पुराणों एवं ग्रंथों में बड़ा महात्म्य है| इसे ‘कुरुक्षेत्र’ नामक एक विशाल कुण्ड के समीप स्थित माना गया है जो नगर के दक्षिणी भाग में है| असोम स्थित प्रसिद्ध शक्ति पीठ कामाख्या धाम, कमच्छा क्षेत्र में स्थित है जो कामाख्या का ही अपभ्रंश है| पशुपतिनाथ (काठमांडू) का वास ‘ललिता घाट’ स्थित नेपाली मंदिर में माना जाता है| तिब्बत स्थित कैलाश-मानसरोवर तीर्थ का हिंदु एवं बौद्ध दर्शन में अत्यंत श्रद्धेय स्थान है| यह ‘नारद घाट’ के ठीक बगल में ‘मानसरोवर घाट’ पर स्थित है| पवित्र नर्मदा नदी जिनके मार्ग का प्रमुख शहर रीवां है का वास ‘रेवड़ी तालाब’ नामक क्षेत्र में स्थित है जो रीवां का ही अपभ्रंशित रूप है| गोदावरी नदी की अवस्थिति पर ही शहर की हृदयस्थली गोदौलिया (गोदावरी का अपभ्रंश) का नाम पड़ा है|
अभी तक हमने वाराणसी की अखिल भारतीयता के लक्षणों को केवल धार्मिक दृष्टिकोण से परखा है पर इसके कई पक्ष हैं| इनमें से एक है इसका सांस्कृतिक पक्ष जो पाश्चात्य सभ्यता के लोगों में विशेष रूप से लोकप्रिय है| ‘जन-गण-मन’ की राष्ट्रीय अवधारणा को साकार करती काशी पर चर्चा हम इस श्रृंखला के प्रथम आलेख में कर ही चुके है| काशी को लघु भारत की संज्ञा केवल इसलिए नहीं दी जाति कि देश भर के लोग यहाँ रहते हैं बल्कि यहाँ के दैनिक जीवन में उनकी संस्कृतियों का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है| हम यहाँ ऐसे लोगों से भी मिल सकते हैं जिन्होंने अपने जीवन काल में अपने गाँव या शहर के बाहर कुछ नहीं देखा पर वे काशी आये हैं| हम गंगा आरती में पर्दानशीं महिलाओं की उपस्थिति भी देख सकते हैं| यह आश्चर्यजनक अंतर्विरोधाभास ही लोगों को बरबस ही काशी की ओर बारम्बार खींच कर लाता है| कुछ ऐसा भी है काशी के बारे में जिसे शब्दों में व्यक्त करना किसी के भे सामर्थ्य के बाहर है| उसका केवल आभास किया जा सकता है जो वाराणसी से एक अभिन्न बंधन का निर्माण करता है| वाराणसी एक सरताज के रूप में प्रतिष्ठित रहा है न सिर्फ़ भारतीयों के लिए अपितु विदेशियों के लिए भी| पूरे विश्व से विद्वान, लेखक, विचारक आदि सदैव से यहाँ आते रहे हैं| हर कोई बनारस के प्रति अपना व्यक्तिगत दृष्टिकोण रखता है| हम वाराणसी के बारे में चाहे जितना भी लिख-पढ़ लें, यह विषद विषय अपनी विस्तृतता के चलते अधूरा ही रह जाता है| शेष अगले भाग में …..

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