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तुम थे अपने कभी ऐसा गुमान हो जाए,
क़दमों तले की ज़मीं भी आसमान हो जाए;
मेरी आँखों के आगे मेरे मुर्शीद हो मगर,
ज़िंदगी फिर भी कोई इम्तिहान हो जाए;
कुछ न बोला तुझसे रूबरू अब तलक,
वो बात ही क्या जो लफ़्ज़ों में बयान हो जाए;
गुज़रे लम्हात थे इस क़दर हसीं यारों,
याद आयें तो ग़म में भी ख़ुशी का जहान हो जाए;
गुल इबादत का जो शिवाले में चढ़ाया है,
वो किसी की तिजारत का सामान हो जाए;
जो छुपा था मेरे दिल में राज़ बनके कब से,
वो उनके दिल की ख़ामोश ज़ुबान हो जाए;
तू अता कर वो अदा ऐ परवर दिगार मुझे के,
बन्दे के कारनामों से तू ख़ुद हैरान हो जाए;
जिसने आग लगाईं थी किसी सब्ज़ बाज़ीचे में,
क्या हो गर वो गुलिस्तां का बाग़बान हो जाए;
मुख़्तलिफ़ लोग मिले पर न कहीं दिल ये मिला,
काश कोई अपना भी हमज़ुबान हो जाए;
जिसने पाला मुझे बाख़ुशी ग़मों से दूर बहुत,
काँपता-थरथराता हाथ वो फिर जवान हो जाए;
काश सुन लेता ख़ुदा आज मेरे दिल की दुआ,
काश पूरा मेरा बस एक यही अरमान हो जाए;
गलियों में खेलते तौफ़ीक़ बच्चों सा ‘वाहिद’
मुल्क का मेरे हर एक इंसान हो जाए;
आएगा कोई ऐसा दौर भी क्या कभी यहाँ,
गर्दे ज़मीं भी फ़लक की हुक्मरान हो जाए;
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मुर्शीद = गुरु/उस्ताद, तिजारत = कारोबार/धंधा, सब्ज़ बाज़ीचा = हराभरा बाग़,
तौफ़ीक़ = मासूम/निश्छल, हुक्मरान = नेता/राजा
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