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औरत और समाज………….

सहज प्रवाह
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औरत
नारी सृष्टि की बडी विलक्षणता लिए हुए है। इसमें समाज का निर्माण, समाज का विस्तार -सब छिपा है। समाज की सुदृढ़ ईकाई भी यही है। विश्व इसका ही रचा है। ब्रह्मा और कहाँ?…….ये नारी ही तो है। ये ही सृष्टि का केन्द्र बिन्दु हैै। हमारा समाज पुरुष प्रधान बनता हो, कहलाता हो परंतु पुरुष का अस्तित्व भी नारी में कैद है, इसी से पनपता है, इसी से पुरुष पुरुषत्व प्राप्त करता है और फिर उसमें अपना क्या है? ……सब नारी का दिया- उसका शरीर , उसकी आत्मा तक! वो फिर क्यूं इस समाज का ठेकेदार बना बैठा है।
अरे! नारी ने ही इस पुरुषत्व को गढ़कर उस मंच तक पहुँचाया है-पुरुषसत्ता, ये मातृसत्ता के समक्ष क्या है?- शून्य!
हाँ, विचार कर रहा हूँ – ये औरत जन्मती है आदमी को और फिर भी आदमी के द्वारा कुचाली जाती रही है। वो ही इसके स्वाभिमान को आहत करता आया हैै। क्यों?……बस! प्रश्नचिन्ह में उत्तर तो सर पटक-पटककर दम तोडते हैं। कुछ चीर भीं डालते हैं- इस पुरुष समाज को लेकिन पुरुष वर्चस्व की आंधी में सब……….समझाा जा सकता है।
बालक/बालिका यानि समाज का शैशवरुप- बेफ्रिक रहता है क्योंकि उस पर माँ की ममता का साया है, जब स्वयं रचयिता हमारे साथ हो तो हम निर्भीक हो जाते है फिर हमें भय नहीं, नारी समाज को बनाने में स्वयं को कितना पीसती है, कितना जलाती है, तपाती है…….सब जानते है।
पर समाज में एक वो भी नारियाँ है जो अपना बदन बेचने पर मजबूर है। अधिकतर तो मजबूर ही होंगी। रईसजादों या ऐयाशों की जमातें, लंफगों की महफिलें और कुछ बदो-बदनामों की कतारें -ये उनकी रोजी बनकर उन्हेें नोंचने चले आतें हैं-तब वो इनमें न एक पत्नी का रुप देखते हैं, न उसे अपनी माता का स्वरुप ही ध्यान आता है, ना बहन का। बस! हवस सिर पर सवार और रौंद डालते है नारी के देह को। साथ ही समाज के ऐसे लोग यहीं तक शांत नहीं रहते, वे लूटते फिरतें है नारी की अस्मिता …….करता फिरता है-बलात्कार।एकऔर सत्य भी सामने आता है, देह-व्यापार को चलाने मेें नाबालिगोे, मजूबरों, अपहृत लडकियों को शिकार के लिए प्रस्तुत करने में महिलाओं की ही अहम् भूमिका पायी जाती है। ये धन्धा चलाने वाली औरते बुनती जाल उन तमाम के लिए जिन्हे झांसा देकर इस गहरे खौफनाक गड्ढें में धकेल दिया जाता है- स्वयं के अस्तित्व का ख्याल भी नहीं करती , न ही इन्हें ये ध्यान कि जिस नारी देह को बेचने पर मजबूर कर रही है वह भी उसी का प्रतिरुप है। फिर मात्र अर्थ के लालच में न जाने कितनी बेसहारा जानों को इस आपराधिक कृत्य में शामिल करा देती है। नारी ही नारी को कुचलती नजर आती है। नारी नारी की सबसे बडी दुश्मन बन बैठी है। ऐसी पापी महिलाएँ जो अर्थ के लालच में निरपराधा को भेट चढाती हैं- वास्तव में नारी स्वरुप का कलंक है। विडम्बना ऐसी निरपराधा जो मजबूरन इस कृत्य में शामिल होती है, करायी जाती है……उनका सारा जीवन-बर्बाद,…………नरक बन जाता है और पुरुषों के रुप में ऐयाश ढूँढते हैं-यहीं स्वर्ग का आनंद……
सरकारें आती हैं, जाती हैं और कानून बदलते है पर ये कृत्य न बंद होते हैं न ही कम। दिनों दिन इनमें वृद्धि होती दिखती है ……..भोगवादी समाज का ये विद्रूप रुप और अधिक खौफनाक होता जाता है।……………कुटिल पौरुषिक गिद्ध नोचतें है नारी देह को।
वेश्यावृत्ति की बात करें तो हजारों वर्षो से हमारे भारत में ये क्रीडा होती आयी है। पुरणों में वेश्याओं का वर्णन आता है , उनमें से एक पिंगला बाद में जिसका मन प्रभु भक्ति में रम गया था और प्रभु कृपा प्राप्त की थी। अजामिल की कथा में भी पूर्व में अजामिल वेश्या संग रमण करता है। बलात्कारी इन्द्र से कौन परिचित न होगा। इन्द्र ने ही गौतम ़़ऋषि की धर्मपत्नी अहिल्या के साथ जबरन , छल से संभोग किया था , क्या ये बलात्कार न था। रीतीकालीन शासक भी किसी न किसी रुप में वेश्यावृत्ती को बढावा देते आये। मुगलों के बडे़-बडे हरम में रानियों या उन औरतों की लम्बी कतारें जो बादशाह/शासको द्वारा जीत कर लायी गयी थी अथवा जबरन उठाकर….। एक-एक बादशाह के सैंकडों रानियाँ होने के प्रमाण भी इतिहास में मिल जाते हैं। आधुनिक भारत में भी वेश्यावृत्ति को किसी न किसी रुप में बढावा ही मिला है। कश्मीर में तो कम दामों में लाइसेंस भी दिया जाता है। ………………
फिर इस कुकृत्य का श्रेय मात्र पश्चिम को नहीं दे सकते नहीं कह सकते कि मात्र पाश्चात्ययता के कारण ही ये सब बढा है। हाँ, इतना जरुर है कि पाश्चात्यता ने नग्नता में इजीफा किया है। ये कोई नहीं टाल सकता।
आज तो समाज में विद्रूपता इस कदर बढती जा रही है कि बाप अपनी दुहिता को ही हवस का शिकार बना रहा है।
औरत कहीं खुद फंसी, कहीं फसायी गई। अपनी इच्छा- अनिच्छा से वो पुरुष द्वारा रौंदी ही जाती रही। उसी नारी के लिए विश्वभर में पाबंदियों की बडी लम्बी नियमावली बनी है। अब इन गुण-अवगुणों का जिक्र करने से भी क्या होता है?…………….हमें ध्यान देना चाहिए की नारी का सम्मान ही देश का सम्मान है फिर वो ही रिश्तो, परिवार, समाज, विश्व में हमें बांधती है। वो नहीं तो कैसे हम अपना अस्तित्व भी स्वीकार सकते हैं। हमें नजरियाँ बदलना होगा…….‘जहाँ नारी को पूजा जाता है वहाँ देवता निवास करते है’ की सनातन भावना से स्वयं को जोडना होगा। अपने भीतर टटोले, अपने आप से पूछे, जानने का प्रयास करें………कडवा सच उगला जाता है, उसे कहने की क्षमता विरलों में ही होती है जो इसे उगल भी दें और निगल भी लें………….

जय मातृशक्ति!
जय भारत! जय जगत!

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