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भगवान तूने जुल्म का सैलाब बनाया

सहज प्रवाह
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भगवान तूने जुल्म का सैलाब बनाया
इंसान बनाया, मगर क्यूं ये बनाया?
न था कभी जमीं पे जब जुल्म का निशां
इंसान ने ही फैलाया इसको दिशा-दिशा
अपनों को ही लूटा, गैरों से दोस्ती की
धरती के कलेजे पे छुरी ही चला दी
हर आह का फरमान भी इसने ही सुनाया
मैं पूछता हूँ तुझसे, फिर क्यूं इसको बनाया?
भगवान तूने जुल्म का सैलाब बनाया
अंधेरा हो रहा है, बेदर्द निगाहों से
है बढ रहा है जुल्म मानव की चाहों से
क्यूं कर रहा है बे-घर अपनों को घरों से
क्यूं छीनता है चैन, अपनों के दिलों से
कटते है जब पंख उड सकें न परिंदा
चारों तरफ जुल्म का डाले हुए फंदा
हालात को इसने बनाया है मुसीबत
यू क्यूं बरसता है, पैसा नहीं जिन पर
इंसानों का ये जामा क्यूं इसे पहनाया
तू आज ये बता दे क्यूं इंसान बनाया
भगवान तूने जुल्म का सैलाब बनाया
ये टूटते से दिल है, इक भी नहीं आंसू
ये कैसी मुसीबत है, रोते नहीं ये आंसू
कुछ भी हो, ऐसे हैवान को ये नाम क्यूं दिया
तूने इसको रचकर अहसान क्या किया
तेरी बनाई दुनियां को तोडता रहा
तू फिर भी खुश हो इसे जोडता रहा
हर गम को पैदा कर रहा इंसा ही तेरा
क्यूं आज तडपता है, मासूम ये चेहरा
मूरत बनी विशाल, क्यूं ये टूटती नहीं
है कौन सी ताकत जो कभी टूटती नहीं
क्या तेरी ही मूरत है अब मुझको बता दें
अपने से पत्थरों को तू अब तो हटा दें
ये जुल्म के हैं तूफां, सहमा है जमाना
भगवान तू बता दें, चाहता है क्या करना
खुश तो नहीं कोई रुह, तेरे इस जग में
फैला है दरिंदगी का सैलाब घर-घर में
क्यूं आज तेरे इंसा बने है दरिंदे
तेरे ही दरबार से आये ये बाशिंदे
तू आज ये बता दें, क्यूं दामन नहीं है आज
जो पाप कर रहा है, क्यूं आती नहीं है आंच
जलाते है जो इसमें, क्यूं खत्म होते राज
क्या आज ये दरिंदगी का शुभारम्भ है
क्या तूने ही किया इसका प्रारम्भ है
क्यूं जल रही आत्मा, दुरात्मा कर रही है राज
क्यूं खत्म नहीं होता हैवानियत का नाच
इंसान बनाया क्यूं, क्या इससे मिला है
भगवान तूने क्यूंकर इसको रचा है
अब तो कर दे खत्म, कर दें सृष्टि का अंत
न और देखा जाता, बढता हुआ क्रन्दन
धरती के कलेजे को क्यूँ और जलाता
जुल्म के समन्दर में क्यूं इसको डूबाता
क्यूं तूने बनाया इसे, क्यूं देता नहीं सजा
अपनी इस सृष्टि को आज ही जला
आज ही जला ! आज ही जला !!

– सत्येंद्र कात्यायन, एम0ए0(हिन्दी, शिक्षाशास्त्र), बी0एड0, नेट(हिन्दी)

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