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एक हादसा, कई सबक – ३
कोई आया, कोई गया। कोई नाम कर गया, कोई बदनाम हो गया। किसी ने उपकार कर दिया, कोई सब कुछ लूट कर ले गया। किसी ने घाव दिया और किसी ने उस पर मरहम लगा दिया। चलता है, चलता ही रहता है……। आप कहां रुक गए…? जहां रुके, वही तो हादसा है। आप कितनी तेज गति से जा रहे थे। सारी कायनात पीछे छूटती जा रही थी। इसे छोड़ते जाने वाले थे आप। पर यह क्या? आप तो टिक गए, रुक गए, थम गए, गिर गए, घायल हो गए, लाचार, बेबस, असहाय। और कायनात आगे बढ़ती चली जा रही है, चलती जा रही है, चलती ही जा रही है….।
बात डराने की नहीं, मार्के की कह रहा हूं। याद कीजिए, आपके दादाजी जब रहे होंगे। वह घर, वह दरवाजा, वह आंगन, वह पलंग, वह चौकी, वह खेत, वह खलिहान… किसका था? दादाजी मूंछें ऐंठकर कहते चलते होंगे, ये मेरा है, मेरा है। इसे मैंने अर्जित किया, इसका मैंने निर्माण किया। हम… हमारा….। और दादाजी के सामने ही आ गए होंगे पिताजी। दादाजी की समझ में भी बात नहीं आई होगी कि यह छोटा सा बच्चा उनके हम और हमारे को चैलेंज करने वाला आ गया। मैं पूछता हूं आया कि नहीं?? अब पिताजी की स्टोरी चली। कभी कालर उठी, कभी कालर गिरी, पर चली तो उन्हीं की। और उनके सामने ही आ गए थे आप। आपके सामने भी आ गया होगा कोई बच्चा। जो सपने खुद के लिए देखे जाते थे, अब उनका मुकाम बदल गया होगा, उसका अंजाम बदल गया होगा।
किसी भ्रम में न पड़ें, प्रवचन नहीं कर रहा। कहना सिर्फ यह चाहता हूं कि ये हादसे ही हैं जो बताते हैं कि जिंदगियां जुड़ी दिखती हैं, मगर मामला सदैव व्यक्तिगत, एकल, पर्सनल रहता है। अद्वैत का सिद्धांत भी हमारी ही परंपरा में है। जो दो नहीं है, उसे ही कहते हैं अद्वैत। दादाजी के गुजरते उनके किस्से खत्म हो जाते हैं, पिताजी के गुजरते जरूरतें बदल जाती हैं। पति मर जाता है और दो-चार घंटे की हाय तौबा के बाद ही पत्नियां जिंदगी के रास्ते पर सफर शुरू कर देती हैं।
आलेख का शीर्षक पुरानी फिल्म के एक गाने का बोल है जो भले किसी गहरे अध्यात्म का इशारा कर रहा है, पर इसकी जो हकीकत है, उसे भी स्मरण में लाता है हादसा। और इस वक्त इस सबक को आप बिना किसी हादसे के शिकार हुए ग्रहण कर रहे हैं। तो दोस्तों, हादसा जो सबसे बड़ा सबक देता है, वह यह कि तू है तो दुनिया है और जो तू नहीं तो कुछ भी नहीं है, कुछ भी नहीं है। हादसा ही तो हैं, जो व्यक्ति को खुद को बचाने का सबक देता है। हादसे न हों तो कोई कहां करेगा खुद को बचाने की फिक्र? करेगा क्या? इसे आप महसूस कर सकें तो भगवान बुद्ध की उस चरम-परम अवस्था तक पहुंच सकते हैं, जहां बुद्धत्व प्राप्त होते ही उन्होंने खुद को, शरीर को बचाने के लिए कटोरे में खीर को ग्रहण किया था। जारी….
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