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एक हादसा कई सबक – अंतिम
भीष्म बाणों की शय्या पर पड़े थे, उनके रोम-रोम से रक्त बाहर निकल रहा था, प्राण कैसे छूटे- यह उनके संकल्पों पर आधारित था। उनके सम्मुख भगवान श्रीकृष्ण खड़े थे और उन्होंने ही पूछा – गंगापुत्र भीष्म, चला-चली की बेला है, दुनिया को कोई संदेश देना चाहते हैं? भीष्म ने जो कहा, एक बार फिर सुनिए। उन्होंने कहा – आदमी को कभी किसी संकल्प से नहीं बंधना चाहिए।
अपना सब्जेक्ट है हादसा। भीष्म के संकल्पों के सापेक्ष यदि अन्वेषण करें तो पता चलता है, संकल्पों के साथ ही शुरू होता है हादसा…। संकल्प कुछ करने का, कुछ बनने का, कुछ पाने का, कुछ खोने का, कुछ रचने का, कुछ मिटा देने का…। और इस रास्ते में जितनी भी घटनाएं-दुर्घटनाएं होंगी, वही तो है हादसा। है कि नहीं? हादसा यानी जिसके बारे में आप तय नहीं कर पाते, जिसके बारे में आप आकलन नहीं कर पाते, जिसे आप होने से नहीं रोक पाते..।
जिंदगी का यथार्थ कहता है कि आदमी के जीवन में वैसे ज्यादातर काम नहीं हो पाते, जिनके बारे में वह तय करता है और ज्यादातर काम जो होते हैं, उनके बारे में वह तय नहीं कर पाता। यह चमत्कार है जीवन का..। यहीं से शुरू होता है उस परम सत्ता का साक्षात्कार। जिसने महसूस किया, उसे फर्क नहीं पड़ता कि कब क्या हो रहा है, कब क्या नहीं। वह तो बस इतना ही जानता है कि जो हो रहा है, उसकी मर्जी, जो नहीं हो रहा है, वह भी उसी की मर्जी। आप कहेंगे, हादसों की बात करते-करते यह कहां ले जा रहा हूं। कुछ नजारे आपकी नजर करता हूं, विचार करें, शायद सूत्र पकड़ में आ जाए।
आदमी मानता नहीं। बच्चे को कुएं में लटकाओ, जान बचाने के लिए चिल्लाता है। युवक को लटकाओ, वह भी जान बचाने को चिल्लाता है। किसी अब-तब में दम तोड़ने वाले बूढ़े को लटकाओ, वह भी जान बचाने को चिल्लाता है। चिल्लाता है कि नहीं? और एक आदमी को देखो तो पता चलता है कि वह पूरा जीवन जान बचाने को चिल्ला रहा है, चिल्लाए जा रहा है, चिल्लाए जा रहा है….।
और जान है कि जब निकलनी है तभी निकलती है। तभी निकलती है कि नहीं? तो फिर बचपन से लेकर बुढ़ापे तक जान बचाने की चिल्लाहट क्यों? क्यों?? कोई मानता है सबहीं नचावत राम गोसाईं…? और हैरत है कि क्यों नहीं मानता। पहाड़ से गिरा आदमी बच जाता है, पेड़ से गिरा मर जाता है,,, क्यों? दर्जनों गोली खाने वाले की भी सांसें चलती रहती हैं, एक ठोकर खाने वाले की गर्दन झूल जाती है, क्यों?
तो आखिरी बात। हादसे तभी तक हैं, जब तक जीवन है। जीवन है तो हादसे हैं। एक हादसे से निपटेंगे, दूसरा सामने होगा। होगा ही होगा। इससे घबराना कैसा, इससे डरना कैसा? हादसों का स्वागत कीजिए। हादसों को अंगीकार कीजिए… जिंदगी का कलाम है हादसा, यह जीवन का हिस्सा है। इसे गुनगुनाइए, इसका सबब समझिए, हादसों में हादसे का निहितार्थ तलाशिए…। हादसे होने बंद हो जाएं तो समझ लीजिए जीवन भी अंतिम पायदान पर पहुंच चुका है। मुर्दे के साथ कैसा हादसा…?
फिलहाल बशीर बद्र जी की एक रचना के साथ मिजाज को खुशनुमा बनाइए। पेशे खिदमत है –
है अजीब शहर की जिंदगी, ना सफर रहा ना कयाम है,
कहीं कारोबार सी दोपहर, कही बदमिजाज सी शाम है।
कहां अब दुआओं की बरकतें, वो नसीहतें वो हिदायतें,
ये जरूरतों का खुलूस है, ये मतलबों का सलाम है।
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