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बदलते मौसम

kavita
kavita
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वो जो इक उम्र तराश के
किसी आले में रख छोड़ी थी हमने
सूखने जम जाने के लिए
हलकी हलकी सी उसमें नमी आ गयी है
जाने कब इक बीज उम्मीदों का
पड़ गया था कभी
कुछ पनपते हुए कंछे दिखाई देते हैं

बहती हवाओं में भी कुछ
तिरते सेरंग दिखाई देते हैं
स्याह पन्नों से अलफ़ाज़ छलक के बहते हैं
इक वीरान मन के आँगन में
कहीं गीता कहीं कुरआन सुनाई देते हैं

कहीं डूबी सी नब्ज़ थी कोई
कोई सोया हुआ सा सपना था
ज़बर और ज़ब्त से छलके हुए पैमाने थे
अपनी आवाज़ों के सन्नाटे थे
कैद दीवारो में मन की एक नगमा था

आज नज़्मों को इक आवाज़ मिल गयी है
सूखती बेलों को बारिशों की फुहार मिल गयीहै
ख्वाहिशों को मिल गया है गीत कोई
बंद पिंजरों को आसमानों की परवाज़ मिल गयी है

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