Menu
blogid : 12741 postid : 4

Bhumi Sudhar Yojna

kawalhasan
kawalhasan
  • 3 Posts
  • 0 Comment

Bhumi Sudhar Yojna

उद्देश्य
हमारी योजना का उद्देश्य है की गाँवों को पूरी तरह जैविक बनाए, इसलिए इस योजना का नाम ही “Bhumi Sudhar Yojna ” रखा गया है. इस योजना के तहत प्रत्येक ग्राम पंचायत में एक लडके का चयन किया जाना है जो इस योजना को अपनी ग्राम पंचायत में संचालित करेगा जिसक कार्यकर्ता 1500 को / – रु. प्रति माह मानदेय भी दिया जायेगा. जिसके द्वारा किसानों को प्रशिक्षण के साथ उचित मार्गदर्शन दिया जायेगा तथा खाद एवं कीट नाशक का वितरण भी करेगा. अपनी ग्राम पंचायत में 80% कम करने वाले कार्यकर्ता को ग्रामदुत पुरस्कार दिया जायेगा जो 25000 / – से +५०,००० / – रु. तक हो सकता है तथा उस ग्राम पंचायत के सरपंच – सचिव को भी 5000 / – से +१०००० / – रु. तक की राशी अछे कार्य के लिए दी जाएगी. एवं ग्राम पंचायत में जैविक खेती करने वाले किसानों के बच्चो के लिए नि: शुल्क कंप्यूटर प्रशिक्षण की व्यवस्था की जायेगी. 10 प्रत्येक ग्राम पंचायत में एक स्वावलंबन की केंद्र स्थापना होगी इसके संचालन के लिए भी एक कार्यकर्ता को चयनित किया जायेगा 8000 जिसको / – रु. प्रति माह मानदेय होगा जिसके द्वारा ग्रामीणों को खाद एवं कीट नाशक की पूर्ति की जायेगी यह एक तरह से विक्रय भी केंद्र होगा. यहाँ से ग्राम पंचायतों का रिकार्ड भी रखा जायेगा और ग्राम प्रोफाइल भी बनाई जाएगी. इस से केंद्र ग्रामीण स्तर पर कार्य कर रहे कार्यकर्ता को मार्गदर्शन एवं प्रशिक्षण भी दिया जायेगा. ग्रामीण क्षेत्र में कार्य करने तथा केंद्र स्थापित करने के लिए आवेदन कर सकते है.
धन्यवाद!

1. कृषि को बिकाउ नही टिकाऊ तथा कम खर्चीली व स्वावलंबी बनाना.
2. पशु व कृषि एक दूसरे पर अन्यान्योश्रित है. पशु उधोग से ही कृषि ज़िएगी – इस सिद्धांत को व्यवहार में मान्यता देना.
3. रासायनिक खेती को (विशेष छोटे व मझले किसान) जल्दी ही बिदाई दें तथा पशु आधारित खेती अपनाएँ.
4. वर्षा जल संरक्षण को जान आंदोलन का रूप देना.
5. कृषि और उधोग के समन्वित विकास की योजना गाँव में चलाना.
6. गौ को ग्रामीण अर्थ व्यवस्था व विकास की धुरी के रूप में विकसित करना.
7. पशु व सौर उर्जा को वैकल्पिक उर्जा श्रोत के रूप में विकसित करना.
8. बेरोज़गारों ग्रामीण ग़रीबों तथा छोटे कृषकों को व्यवसाय आधारित स्वयं सहायता समूहों के रूप में करना विकसित,

रासायनिक उर्वरक के नकारात्मक प्रभाव
1:-अत्यधिक हवा और पानी जनित नाइट्रोजन उर्वरक से सांस की बीमारियों, हृदय रोग, और कई तरह के कैंसर,मलेरिया और हैजा रोग
2:- फसलों के विकास को बाधित कर सकते हैं,
3:- पौधों में विषाक्त रसायन उर्वरकों में पाया जा सकता है
4:- सब्जियों और अनाज के माध्यम से खाद्य श्रृंखला में प्रवेश
5:- फेफडों की बीमारियां, त्वचा रोग, और रसायनों के उपयोग से लम्बे समय तक धूप में रहने के कारण कैंसर हो सकता है.
6:- रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों से जमीन की गुणवत्ता और उर्वरता घट रही है.
7:-इनके दुष्प्रभावों से मनुष्य, पशु – पक्षी, पानी और पर्यावरणीय जीवन असुरक्षित हो रहा है.
8:-इन कीटनाशकों से खेती के लिए फायदेमंद जीव – जंतुओं के नष्ट हो जाने और मानव स्वास्थ्य को नुकसान की घटनाएं आम हो गयी हैं.
9:- रासायनिक खाद, कीटनाशक, नींदानाशक और जुताई से मिट्ठी की उर्वरक शक्ति कम हो गई है.

जैविक खाद से लाभ
1. पौधे को अधिक सर्दी और अधिक गर्मी से लड़ने की शक्ति प्रदान करता है.
2. फूलों और फलों में वृद्धि करता है.
3. प्रत्येक प्रकार की फसलों के लिए लाभदायक है.
4. इसमें कोई भी नुकसान देने वाला तत्व या जीवाणु नही है.
5. फल, सब्जी, अनाज देखने में सुंदर और खाने में स्वादिष्ट होते है.
6. पैदावार में वृद्धि होती है और बिमारियों के प्रति लड़ने की शक्ति (क्षमता) बढ़ती है.
7. मिट्टी में से तत्वों को लेने और उपयोग करने की क्षमत बढ़ती है.
8. बीज की अंकुरन क्षमता में वृद्धि होती है.
9. फसलों और फलों में एकसारता आती है.
10. तैयार फसल, सब्जियाँ और फल हानिकारक रसायनों से रहित और देखने में भी बढ़िया होती है.
11. भूमि पर कोई बुरा प्रभाव नही पड़ता
12. . भूमि में लाभदायक बड़े जीव जैसे केचुआ इत्यादि और लाभदायक छोटे जीव जैसे एलगी, फफूंद, और बैक्टीरिया इत्यादि में वृद्धि होती है
13. भूमि की प्राकृतिक ताक़त में वृद्धि होती है
14. भूमि के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों
में सुधार होता है.

कीटनाशकों के जहर का कसता शिकंजा?
कीटनाशक से उजड़ती कृषिकीटनाशक से उजड़ती कृषिभारत सरकार के कृषि विभाग द्वारा अभी हाल में जारी रिपोर्ट के अनुसार देश भर के विभिन्न हिस्सों में फल, सब्जियों, अण्डों और दूध में कीटनाशकों की उपस्थिति पर किए गए अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि इन सभी में इनकी न्यूनतम स्वीकृत मात्रा से काफी अधिक मात्रा पाई गई है इस. रिपोर्ट के 2009 2008 अनुसार सत्र और के बीच देश के विभिन्न हिस्सों से एकत्र किए गए खाद्यान्न के नमूनों का अध्ययन देश 20 के प्रतिष्ठित प्रयोगशालाओं में किया गया तथा अधिकांश नमूनों में डी.डी. टी . लिण्डेन और मानोक्रोटोफास जैसे खतरनाक और प्रतिबंधित कीटनाशकों के अंश इनकी न्यूनतम स्वीकृत मात्रा से अधिक मात्रा में पाए गए हैं. इलाहाबाद से लिए गए टमाटर के नमूने में डी.डी.टी. की मात्रा न्यूनतम् 108 से गुनी अधिक पाई गई है, यहीं से लिए गए भटे के नमूने में प्रतिबंधित कीटनाशक हेप्टाक्लोर की मात्रा न्यूनतम स्वीकृत मात्रा 10 से गुनी अधिक पाई गई है उल्लेखनीय, है कि हेप्टाक्लोर लीवर और को तंत्रिकातंत्र नष्ट करता है. गोरखपुर से लिए सेब के नमूने में क्लोरडेन नामक कीटनाशक पाया गया जो कि लीवर, फेफड़ा, किडनी, आँख और केन्द्रीय तंत्रिका को तंत्र नुकसान पहुँचाता है. अहमदाबाद से दूध एकत्र के प्रसिद्ध ब्रांड अमूल में क्लोरपायरीफास नामक कीटनाशक के अंश पाए गए है यह कीटनाशक कैंसरजन्य और संवेदीतंत्र को नुकसान पहुँचाता हैं.

मुम्बई से लिए गए पोल्ट्री उत्पाद के नमूने में घातक इण्डोसल्फान के अंश न्यूनतम स्वीकृत मात्रा 23 से गुनी अधिक मात्रा में मिले हैं. वही अमृतसर लिए गए फूल गोभी के नमूने में क्लोरपायरीफास की उपस्थिति सिद्ध हुई है. असम के चाय बागान से लिए गए चाय के नमूने में जहरीले फेनप्रोपथ्रिन के अंश पाए गए जबकि यह चाय के लिए प्रतिबंधित कीटनाधक है. गेहू और चावल के नमूनों में ऐल्ड्रिन और क्लोरफेनविनफास नामक कीटनाशकों के अंश पाए गए हैं ये दोनों कैंसर कारक है. इस तरह स्पष्ट है कि कीटनाशकों के जहरीले अणु हमारे वातावरण के कण – कण में व्याप्त हो गए हैं. अन्न, जल, फल, दूध और भूमिगत जल सबमें कीटनाशकों के जहरीले अणु मिल चुके हैं और वो धीरे – धीरे हमारी मानवता को मौत की ओर ले जा रहें हैं. ये कीटनाशक हमारे अस्तित्व को खतरा बन गए हैं. कण – कण में इन कीटनाशकों की व्याप्ति का कारण है आधुनिक कृषि और जीवन शैली. कृषि और बागवानी में इनके अनियोजित और अंधाधुंध प्रयोग ने कैंसर, किडनी रोग, अवसाद और एलर्जी जैसे रोगों को बढ़ाया है. साथ ही ये कीटनाशक जैव विविधता को खतरा साबित हो रहे हैं. आधुनिक खेती की राह में हमने फसलों की कीटों से रक्षा के लिए डी.डी. टी, एल्ड्रिन, मेलाथियान एवं लिण्डेन जैसे खतरनाक कीटनाशकों का उपयोग किया इनसे फसलों के कीट तो मरे साथ ही पक्षी, तितलियाँ फसल और मिट्टी के रक्षक कई अन्य जीव भी नष्ट हो गए तथा इनके अंश अन्न, जल, पशु और हम मनुष्यों में हम सो गए.

हम देखें कि कीटनाशक इस तरह हमारी खाद्य श्रृंखला में पैठ बनाते हैं – सामान्यत: कीटनाशक जैसे कि डी.डी.टी. पानी में कम घुलनशील है जबकि वसा और कार्बनिक तेलों में आसानी से विलेय है. प्राय: ये देखा जाता है कि जब इन्हें फसलों पर छिड़का जाता है तो इनके आसपास के जलस्रोतों में रहने वाले जलीय जीवों की मौत हो जाती हैं तथा जीवित बचे प्राणियों और वनस्पति में भी इनके अंश संचित हो जाते हैं जब ये जीव एवं वनस्पति किसी अन्य प्राणी द्वारा खाए जाते हैं तो ये उसके शरीर की वसा में संचित हो जाते हैं. खाद्य श्रृखंला के प्रत्येक पद में डी.डी.टी. की सांद्रता और विषैलापन बढ़ता जाता हैं. तरकारियों और फलों पर जब इनका छिड़काव या लेपन किया जाता है तो ये रसायन इनकी पतली सतह पर चिपक जाते हैं और परत में उपस्थित छोटे – छोटे छिद्रों के जरिए अंदर पहुँच जाते है और फिर पशुओं और मनुष्यों में. भूसे और पशु आहार के जरिए दूध में पहुँचते हैं. इन रसायनों के अणु लम्बे समय तक विघटित नहीं होते है एक बार उपयोग में आने के बाद लम्बे समय तक मिट्टी और वातावरण में मौजूद रहते हैं जैसे डी.डी.टी. पांच वर्ष तक, लिण्डेन सात वर्ष तक और आर्सेनिक के अणु अनिश्चित समय तक प्रकृति में मौजूद रहते हैं. इस तरह कीटनाशक हमारी प्रकृति को नष्ट करने के लिए हर समय क्रियाशील रहते हैं.

कीटनाशकों का विनाशक प्रभाव हमारे किसानों की इनके उपयोग की प्रविधि प्रति अज्ञानता की वजह से भी बढ़ रहा हैं, देश के अनेक हिस्सों में इस संदर्भ में किए गए अध्ययन एक बात और स्पष्ट हुई है कि हमारे किसान कीटनाशकों के उचित उपयोग के मामले में अधिकतर किसान अनिभिज्ञ हैं और वो इनका मनमाना उपयोग कर रहें हैं जैसे मोनोक्रोटोफास नामक कीटनाशक केवल कपास में उपयोग के लिए अनुशंसित है जबकि इसका अधिकतर उपयोग बागवानी फसलों के लिए किया जा रहा हैं. देश में हर साल सैकड़ों किसानों की मौत इन्हें फसलों में छिड़काव के दौरान ही हो जाती है. कीटनाशक विक्रेताओं और कृषि विभाग की जिम्मेदारी बनती है कि वो किसानों को कीटनाशकों के उचित उपयोग के विषय में शिक्षित करें परन्तु प्रशासनिक लापरवाही के चलते न तो कीटनाशक विक्रेता यह कार्य कर रहे हैं और न ही किसान कल्याण विभाग के कर्ताधर्ता. हमारी जीवनशैली में मच्छरमार, काकरोच मार कीटनाशकों का उपयोग भी बढ़ता जा रहा है इनके स्प्रे और धुँआ का प्रभाव भी अंतत: हमें ही नुकसान पहुँचा रहा हैं. हमारे चारों कीटनाशकों के जहर का आवरण बन चुका है इससे प्रतीत होता है कि आज कीटनाशक बिल्कुल निर्वाध हमारी प्रकृति को मौत की नींद में ले जाने की तैयारी में लीन है. अगर हम मानवता के प्रति तनिक भी जिम्मकदार हैं तो इनसे बचने के उपायों पर मनन करें.

कैंसर परोसते खेती में जहरीले रसायन

सूखे की मार से तबाह बिहार के कृषि में क्षेत्र फिर एक बड़ा हादसा हो गया है. मक्का यहां की प्रमुख फसल है. इस बार भी बड़े पैमाने पर मक्के की फसल लगाई गई थी. जिन किसानों ने पूसा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित बीज या अपने परम्परागत बीजों से खेती की थी उनके पौधों में दाने भरपूर हैं. लेकिन लगभग दो लाख एकड़ भूमि में टर्मिनेटर सीड (निर्वंश बीजों) का प्रयोग किया गया. इसके पौधे लहलहाये जरूर लेकिन उनमें दाने नहीं निकले. किसानों को कम्पनियों के एजेंटो ने बताया था कि वे उनके बीज लगायें तो पैदावार तिगुनी होगी. गरीबी की मार झेल रहे किसान उनके झांसे में आ गये. जिन किसानों ने चैलेंजर -7 पायोनियर -92 पायोनियर, लक्ष्मी डी -198 काल्ब तथा पिनकोल जैसे बीजों का प्रयोग किया उनके पौधों में दाने नहीं आये. किसानों ने इन बीजों 180 को रुपए 285 से रुपए प्रति किलोग्राम की दर पर खरीदा था. खाद, बीज सिंचाई, मेहनताना सब मिलाकर प्रति एकड़ लगभग दस हजार रुपये की लागत आयी थी. यानी 25 हजार रुपये प्रति हेक्टेयर की लागत. अस्सी प्रतिशत किसानों ने महाजनों से पांच रुपये प्रति सैकड़ा / महीना की दर पर कर्ज लेकर खेती की थी. अब मुसीबत के मारे किसान कहां जायें? सरकार ने प्रति हेक्टेयर दस हजार रुपये (यानी प्रति एकड़ सिर्फ चार हजार रुपये) मुआवजा देने की घोषणा की है. यह रकम खेत में लगी लागत के आधे से भी कम है. मुआवजा तो लागत के अतिरिक्त फसल की संभावित उपज के आधार पर दिया जाना चाहिए था. जो किसान दूसरों से बटाई पर जमीन लेकर खेती कर रहे थे उनको तो एक पैसा भी नहीं मिलेगा.

2003 में भी बिहार में ऐसा ही हादसा हुआ था. तब मोसांटो कंपनी के -900 कारगिल नामक टर्मिनेटर (निर्वंश) बीजों के प्रयोग के कारण फसल में दाने नहीं आये थे. 3 साल पूर्व कुछ इलाकों में गेहूं की फसल के साथ भी ऐसा ही हुआ था. गेहूं के दाने काले हो गये थे.

पायोनियर, डुपोंट नामक अमेरिकी कंपनी की सब्सिडियरी है. डी काल्ब, मोन्सेंटो आदि कम्पनियों के टर्मिनेटर बीजों के सहारे बीजों से उत्पादित मक्का, गेहूं, टमाटर या कपास को खेत में दुबारा उगाया नहीं जा सकता. इन कम्पनियों ने अपने बीज रिसर्च इंस्टीच्यूट स्थापित किये हैं. हाल ही में पायोनियर डुपोंट ने बंगलौर में मक्का अनुसंधान खोला केंद्र है.

आखिर इन कम्पनियों को किसने यह अधिकार दिया कि इस प्रकार किसानों को अंधेरे में रखकर बड़े पैमाने पर अपने बीजों का ट्रायल करें? इन कम्पनियों को इस अपराध के लिए कानूनी घेरे में लिया जाना चाहिए और उनसे किसानों के हर्जाने की भरपायी करानी चाहिए. उन पर भारी जुर्माना लगाया जाना चाहिए.

सन् 2002 में मध्यप्रदेश में किसानों को प्रलोभन देकर दस हजार एकड़ में बी.टी. कपास टर्मिनेटर बीज बनाने वाली बड़ी – बड़ी कंपनियां मूलत: रसायन बनाने वाली कम्पनियां हैं. डुपोंट सीएफसी (क्लोरोफ्लोरो कार्बन) बनाने वाली कंपनी रही है. यह रसायन ओजोन परस को नष्ट करने के लिए जिम्मेदार रहा है. बाद में इस रसायन का विकल्प ढूंढा गया. वियतनाम युद्ध के समय जंगलों और फसलों को जला डालने के लिए जिन रसायनों का उपयोग अमेरिकी वायुसेना ने किया था उसे मोन्सेंटो ने ही बनाया था. इन बड़ी कम्पनियों की वैश्विक आय का आधा खरपतवार नाशकों तथा अन्य रसायनों से आता है. आज दुनिया भर के जैव संवर्धित (जी.एम.) बीजों के व्यापार का अधिकांश इन्हीं कंपनियों के हाथों में है. ये कम्पनियां राजनेताओं, नौकरशाहों और कृषि वैज्ञानिकों बड़े पैमाने पर आर्थिक लाभ पहुंचाकर अपने पक्ष में फैसले करवाने के लिए कुख्यात हैं. अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, ब्राजील, यूरोप सभी जगहों पर निर्वंश बीजों का विरोध हो रहा है. यूरोप के कई देशों में इन पर प्रतिबंध भी लगाया गया है. मानव स्वास्थ्य पर जी.एम. बीजों से उत्पादित खाद्य सामग्री के बुरे प्रभावों की आशंकाओं के कारण अमेरिका में जी.एम. मक्का का उत्पादन काफी घट गया है. इस प्रकार के अनाजों का उपयोग मुख्यत: एथनॉल या स्पिरिट बनाने में किया जाने लगा है.

अमेरिकी राष्ट्रपति के निवास (व्हाइट हाउस) के बगीचे में जैविक खेती होती है. अमेरिका तथा यूरोप में जैविक 20 कृषि प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रही है. हमारा देश अमेरिका या यूरोप के देशों को जो चाय, अंगूर, आम या लीची निर्यात करता है वह जैविक तरीके से उत्पादित होती है. जहरीले रसायनों के प्रयोग से उत्पादित खाद्य पदार्थों को वे वापस लौटा देते हैं. फिर हम रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों तथा निर्वंश बीजों को छूट देकर अपनी खेती और मानव स्वास्थ्य को खतरे में क्यों डाल रहे हैं? खेती में जहरीले रसायनों के प्रयोग से पंजाब में कैंसर तथा अन्य घातक बीमारियों को तेजी से प्रसार हुआ है. वहां की खेती ऊसर होती जा रही है. अनाज का कटोरा कहे जाने वाले इस प्रदेश में किसानों की हालत बिगड़ती जा रही है और वे आत्महत्या के लिए विवश हो रहे हैं.

आज दुनिया भर में जैव विविधता और टिकाऊ खेती की बात चल रही है. अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया आदि के ठंडे प्रदेश जैव विविधता के मामले में गरीब हैं. जबकि एशिया, अफ्रीका के गर्म के देशों में हजारों प्रकार की वनस्पति, अनाज और जीव – जन्तुओं की भरमार है. बड़ी – बड़ी बीज कंपनियों की लोलुप नजरें इन पर लगी हैं. एक ओर ये जी.एम. बीज बनाकर, उनका पेटेंट करा रहे हैं और दूसरी ओर बीजों को एकाधिकार कायम करने के लिए निर्वंश बीजों के द्वारा हमारे पारम्परिक बीजों के भंडार तथा हमारी जैव विविधता को नष्ट कर रहे हैं. जिन खेतों में निर्वंश बीजों का प्रयोग होता है उसके आसपास की दूसरी फसलों पर भी इनके पराग फैल जाते हैं और उन फसलों के बीजों की प्रकृति को नष्ट करते हैं.

खाद और उर्वरक
खाद और उर्वरक अति प्राचीन काल से ही यह ज्ञात रहा है कि खेतों की उपज बढ़ाने के लिए खाद की आवश्यकता होती है और तब से खाद के रूप में हड्डियाँ, काठ की राख, मछलियाँ और चूना पत्थर प्रयुक्त होते हम सो रहे हैं. पर ऐसा क्यों होता है, इसका कारण उन दिनों मालूम नहीं था.

पौधों की वृद्धि के लिए जो विभिन्न पोषक तत्व उपयुक्त होते हैं, उनके प्रभाव के उचित मूल्यांकन के लिए यह जानना आवश्यक है कि मिट्टी से पौधों को (1) आवश्यक पोषण तत्व, (2) जल के भंडार, (3) जड़ के श्वसन के लिए ऑक्सीजन और (4) सीधा खड़े रहने के लिये सहारा कैसे प्राप्त होते हैं.
पौधों के सूखे ऊतकों के भार का 95 लगभग प्रतिशत केवल कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का बना होता है. ये तीनों तत्व पौधों को वायु और जल से प्राप्त होते हैं. ये तत्व प्रकाश संश्लेषण के जटिल प्रक्रमों द्वारा पौधों के ऊतक बनाते हैं (द्र. प्रकाश संश्लेषण). पौधों की वृद्धि के लिए कुछ अन्य आवश्यक वस्तुओ, जैसे विटामन, हारमोन तथा अन्य संकीर्ण कार्बनिक पदार्थों का निर्माण पौधों के अंदर होता है.
उपर्युक्त तत्वों के अतिरिक्त पौधों की वृद्धि के लिए कुछ और तत्वों की आवश्यकता होती है. इनमें कुछ को मुख्य तत्व और कुछ को अल्प तत्व कहते हैं. मुख्य तत्वों में कैलसियम, मैग्नीशियम, पोटैशियम, नाइट्रोजन, फास्फोरस और गंधक है. अल्प तत्वों में ताँबा, मैंगनीज, जस्ता लोहा, मोलिबडेनम और बोरन है.

जहाँ तक मिट्टी की उर्वरता का संबंध है, नाइट्रोजन (एन), फास्फोरस (पी) और पोटैशियम (कश्मीर) बहुत अधिक महत्व के हैं. इन्हें NPK कहते हैं. ये अपेक्षया बड़ी मात्रा पौधों द्वारा मिट्टी से अवशोषित होते हैं. इस कारण ये तत्व मिट्टी से जल्द निकल जाते हैं और इनकी कमी हो जाती है. ये तत्व जलविलय रूप में पौधों द्वारा अवशोषित होते हैं. यदि ये तत्व विलेय रूप में न होते हो मिट्टी में रहते हुए भी पौधों को उपलब्ध न होते.

नाइट्रोजन –
प्रोटीन और क्लोरोफिल का एक प्रमुख अवयव नाइट्रोजन है. प्रकाश संश्लेषण में यह सक्रिय भाग लेता है. जब मिट्टी में खेती की जाती है तब नाइट्रोजन पर चक्र प्रभाव पड़ता है. फसल काटने पर पौधों की केवल जड़े और खूटियाँ ही मिट्टी में रह जाती हैं, शेष भाग का नाइट्रोजन निकल जाता है. संकर्षण से भी मिट्टी का नाइट्रेट बहुत कुछ निकल जाता है. इससे प्रतिवर्ष नाइट्रोजन की क्षति बहुत अधिक होती रहती है.

फास्फोरस –

शरीर क्रिया संचालन में एक महत्व का पदार्थ फास्फोपोटीन है. पौधों में इसकी कमी से जड़ों का उचित विकास नहीं होता और फसलों के पकने में भी बाधा पहुँचती है.

पोटैशियम –

पोटैशियम से प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया में सहायता पहुँचती है.

खाद –
कार्बनिक अवशिष्ट द्रव्य महत्व की खाद हैं, क्योंकि इन से मिट्टी की भौतिक दशा सुधरती है जो पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक है. कार्बनिक पदार्थो के आंशिक विच्छेदन से कुछ धुंधले भूरे रंग के गठन रहित कलिल पदार्थ बनते हैं, जिन्हें ह्मूमस कहते हैं. ह्मूमस से मिट्टी को नमी और पोषण के रोक रखने में सहायता मिलती है. इससे सूक्ष्माणुओं को अनुकूल परिस्थिति भी प्राप्त होती है.

गोबर खाद –

खेत खलिहान के अवशिष्ट द्रव्यों में सबसे अधिक महत्व का पदार्थ गोबर खाद है. एक टन गोबर खाद से 10 से 15 पाउंड तक नाइट्रोजन और प्राय: पाँच पाउंड फास्फोरस प्राप्त होते हैं. सामान्य फसल के लिए मिट्टी में बड़ी मात्रा में गोबर खाद देने की आवश्यकता पड़ती है. गोबर खाद का संगठन एक सा नहीं होता, प्रत्युत गोबर और घासपात की प्रकृति पर, जिनसे यह बनती है, निर्भर करता है. पशुओं के चारे और खाद तैयार करने की स्थिति पर भी खाद की प्रकृति निर्भर करती है. पशुओं का भी मूत्र समान रूप से उपयोगी खाद है. विभिन्न पशुओं के एक मलमूत्र से नहीं होते और उनमें पोषक तत्वों की मात्रा भी विभिन्न रहती है.

पशुओं के का मलमूत्र औसत संघटन प्रतिशतता में
औसत
अवयव ठोस मल द्रव मूत्र
गाय घोड़ा सूअर भेड़ गाय घोड़ा सूअर भेड़
जल 84 76 80 58 92 89 97.5 86.5
ठोस पदार्थ 16 24 20 42 8.0 11.0 2.5 13.5
राख 2.4 3 3 6 2.0 3.0 1.0 3.6
कार्बनिक पदार्थ 13.6 21 17 36 6.0 8.0 1.5 9.9
नाइट्रोजन 0.3 0.5 0.6 75 0.8 1.2 0.3 1.4
फास्फोरस
(P2O5) 0.25 0.35 0.45 0.6 – – 0.12 0.05
चूना और मैग्नीशिया 0.4 0.3 0.3 1.5 0.15 0.8 0.05 0.6
सल्फर ट्रायक्साइड (SO3) 0.05 0.05 0.05 0.15 0.15 0.15 0.05 0.25
नमक 0005 लेश 0.05 0025 0.1 0.2 0.5 0.25
सिलिका 16 2.0 1.6 3.2 0.01 0025 लेश लेश

ये आँकड़े स्टोएकहार्ट (Stoekhardt) के है.

पशुओं का सीधे मलमूत्र खेतों में डाला जा सकता है पर उसे सड़ा गलाकर डालना ही अच्छा होता है. ऐसी खाद पौधों को आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करने के साथ – साथ मिट्टी की दशा भी सुधारती है और मिट्टी में पानी को रोक रखने की क्षमता बढ़ाती है. गोबर को घासपात के साथ मिलाकर कंपोस्ट तैयार करके प्रयुक्त करना अच्छा होता है.

पशुओं का भी मूत्र अच्छी खाद है. पशुओं के चारे का अधिकांश नाइट्रोजन के मूत्र रूप में ही बाहर निकलता है. के मूत्र साथ यदि कंपोस्ट तैयार किया जाय तो वह खाद अधिक मूल्यवान होती है.

साधारणतया तीसरे या चौथे वर्ष खेतों में खाद डाली जाती है और केवल विशेष परिस्थितियों में ही प्रतिवर्ष डाली जा सकती है.

हरी खाद – ताजे, हरे पेड़, पौधों को मिट्टी में जोत देने से कार्बनिक पदार्थ मिट्टी में मिल जाते है. इससे ह्यूमस के साथ साथ ऊतकों में उपस्थित पोषक तत्व भी पौधों को मिल जाते हैं. ये हरे पौघे घासपात, फलीदार, पौधे, सनई, रिजका, सेंजी आदि होते है, जो खेतों में बोए जाते और प्रौढ़ होने पर जोत दिए जाते है. फलीदार पौधों के साथ साथ वेफीदार पौधे भी अच्छे समझे जाते है. इनके सिवाय ग्वानों (25 इसमें प्रतिशत तक P2O5 रहता है), मछली चूरा (5 इसमें 10 से प्रतिशत नाइट्रोजन और इतना ही 2 फा 5 औ रहता है) तथा तेलहन खली (5 इसमें 7 से प्रतिशत नाइट्रोजन 2 और 3 से 2 फा 5 औ एक और से 2 प्रतिशत K2O रहते है) भी कार्बनिक खाद है.

खनिज या अकार्बनिक खाद –

सन् 1910 से पहले संयुक्त नाइट्रोजन के केवल दो ही स्रोत, कोयला और लवणनिक्षेप थे. अब स्थिति बदल गई है और नीचे के आँकड़ो से पता लगता है कि कृत्रिम रीति से संयुक्त नाइट्रोजन के निर्माण में कितनी प्रगति हुई है.

संसार के नाइट्रोजन उर्वरक उत्पादन के आँकड़े (ये संयुक्त नाइट्रोजन 1000 के मीटरी टन में दिए गए है):

1,000 टन
उर्वरकों के प्रकार 1959-60 1960-61
ऐमोनियम सल्फेट 3,087 3,146
ऐमोनिम नाइट्रेट (उर्वरक के लिए) 1,375 1,602
नाइट्रोचॉक (कैल्शियम ऐमोनियम नाइट्रेट 1,728 1,858
ऐमोनिया और अन्य विलयन 1,524 1,668
यूरिया (उर्वरक के लिए) 597 780
कैल्शियम साइनेमाइड 331 304
सोडियम नाइट्रेट 227 185
कैल्शियम नाइट्रेट 442 465
नाइट्रोजन के अन्य रूप 3,037 3,335
गत वर्ष से वृद्धि 9.1% 8.4%

अधिकांश नाइट्रोजनीय उर्वरकों में नाइट्रोजन या तो नाइट्रिक नाइट्रोजन के रूप में, या ऐमोनिया नाइट्रोजन के रूप में, अथवा इन दोनो रूपों में रहता है. नाइट्रीकारी बैक्टीरिया के अधिक सक्रिय न रहने पर भी नाइट्रोजन पौधों को तत्काल उपलब्ध होता है. यह मिट्टी के कलिलों से अवशेषित नहीं होता और जल्द पानी में घुलकर निकल जाता है. दूसरी ओर मिट्टी कलिल से ऐमोनिया जल्द अवशोषित हो जाता है और नाइट्रीकारी बैक्टीरिया उसे धीरे – धीरे नाइट्रेट में परिणित करते है. यह जल घुलघुलाकर निकल नहीं जाता, बल्कि इसका प्रभाव खेतों में अधिक समय तक बना रहता है.

यूरिया में नाइट्रोजन सबसे अधिक रहता है. इससे इसका महत्व अधिक है. मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्माणुओं से उत्पन्न ऐंजाइमों के कारण यह बहुत ऐमोनियम शीघ्र कार्बोनेट में परिणत हो जाता है, जो फिर नाइट्रीकारी बैक्टीरिया से आक्सीकृत होकर जल, कार्बन डाइ – आक्साइड और नाइट्रिक अम्ल में परिणत हो जाता है.

फास्फोरस –

पिसी हुई फास्फेट चट्टानों का सल्फ्यूरिक अम्ल द्वारा उपचारित करने से सुपरफास्फेट प्राप्त होता है. जलविलेय उर्वरकों में सुपरफास्फेट अत्यंत महत्व का होता है. सल्फ्युरिक अम्ल के उपचार से अविलेय ट्राकैलसियम फास्फेट [(PO4) Ca3 2] विलेय मोनोकैलसियम फास्फेट [सीए (PO4 H2) 2] में परिणत हो जाता है. सुपरफास्फेट 15 में प्रतिशत तक P2O5 रहता है.

डबल या ट्रिपल सुपरफास्फेट में जल विलेय P2O5 45 से 50 प्रतिशत तक रहता है. यह उच्चकोटि के फास्फेट खनिज को फास्फरिक अम्ल द्वारा उपचारित करने पर (फास्फेट खनिज के तापीय विघटन से भी) प्राप्त होता है. पिसा हुआ फास्फेट खनिज अम्लीय मिट्टी के लिए, जिसका 6 पीएच से नीचा हो, लाभप्रद हो सकता है. ऐसी दशा में ट्राइकैलसियम फास्फेट धीरे – धीरे विघटित होकर उपलब्ध रूप में हम सो जाता है.

बेसिक स्लैग

कुछ पाश्चात्य देशों के लोहेके खनिजों में फास्फरस की मात्रा अपेक्षया अधिक रहती है. ऐसे खनिजों से प्राप्त स्लैग में 12 से 20 प्रतिशत P2O5 40 से 50 प्रतिशत चूना (हे Ca), 5 से 10 प्रतिशत लोहा (Fe हे और Fe2 O3), 5 से 10 प्रतिशत मैंगनीज (MNO) और 2 से 3 प्रतिशत मैग्नीशियम (MgO ) रहता है. उपोत्पाद के रूप में लाखों टन बेसिक स्लैग के इस्पात के कारखानों में प्रतिवर्ष उत्पन्न होता है. फास्फोरस खाद का यह सबसे सस्ता और उपयोगी स्रोत है.

नाइट्रोफास्फेट –

फास्फेट चट्टान के सल्फ्यूरिक अम्ल द्वारा उपचार से कैलसियम सल्फेट भी बनता है. यह उर्वरक को हल्का बना देता है और फास्फोरस (P2O5) की प्रतिशतता को भी कम कर देता है. कुछ समय से फास्फेट चट्टान के विघटन के लिये नाइट्रिक अम्ल का उपयोग होने लगा है. इससे फास्फेट ही सांद्र नहीं होता, वरन् उसमें उपयोगी खाद नाइट्रोजन भी हम सो जाता है. इसमें कठिनता है कैलसियम नाइट्रेट के निकालने की, क्योंकि यह बहुत ही आर्द्रताग्राही होता है. इसके निकालने के लिए (1) हिमीकरण, या (2) कार्बन डाइ – आक्साइड के साथ अभिक्रिया, या (3) ऐमोनियम सल्फेट अथवा पोटैशियम सल्फेट के साथ अभिक्रिया का उपयोग हो सकता है. भारत ऐसे देश के लिए, जहाँ गंधक की कमी है, नाइट्रो – फास्फेट का उत्पादन लाभप्रद हो सकता है.

पोटैशियम उर्वरक

पोटैशियम उर्वरकों में सबसे अधिक उपयोग में आनेवाला लवण पोटैशियम क्लोराइड नामक प्राकृतिक खनिज (KCI. CI2 मिलीग्राम, 6H2O) और कुछ अन्य खनिजों में यह रहता है और उससे अलग करना पड़ता है. कुछ पौधों के लिए पोटैशियम क्लोराइड हानिकारक होता है. इससे पोटैशियम सल्फेट अधिक पसंद किया जाता है.

कभी – कभी यह समस्या खड़ी हो जाती है कि कार्बनिक उर्वरक अच्छे हैं या अकार्बनिक. मिट्टी से पौधे उर्वरकों को आयन के रूप में ही ग्रहण करते हैं. यह महत्व का नहीं कि आयन कार्बनिक पदार्थो से जैविक विघटन द्वारा प्राप्त होते हैं या अकार्बनिक उर्वरकों से सीधे प्राप्त होते हैं. दोनों के परिणाम एक होते हैं. अंतर केवल यह है कि अकार्बनिक उर्वरकों में पोषक तत्व आयन के रूप में ही रहते हैं, जब कि कार्बनिक उर्वरकों में धीरे – धीरे विघटित होकर आयन के रूप में आते हैं. इस कारण कार्बनिक उर्वरकों की क्रिया अपेक्षया मंद होती है और गँवार किसानों के लिए इनका उपयोग निरापद होता है. ऐसी खादों में पोषक तत्वों, नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटैशियम की मात्रा भी कम रहती है, अत: अति का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता. यह सच है कि मिट्टी के ह्यूमस के लिये कार्बनिक खाद अत्यावश्यक है. अकार्बनिक खाद से ह्यूमस नहीं प्राप्त होता. अत: कार्बनिक और अकार्बनिक खादों में संतुलन स्थापित होना आवश्यक है, जिसमें मिट्टी के ह्यूमस की वृद्धि के साथ साथ आवश्यक पोषक तत्व पौधों को मिलते रहें.

मिट्टी की उर्वरता के लिए ह्यूमस महत्वपूर्ण है. उसपर विशेष ध्यान देने से ही उर्वरता बढ़ सकती है. पौधों अथवा मिट्टी के विश्लेषण से मिट्टी में पोषक तत्वों के अभाव का पता लगता है. किंतु केवल मिट्टी के विश्लेषण से पोषक तत्वों की कमी का पता नहीं लगता. पोषक तत्व मिट्टी में होने पर भी वे ऐसे रूप में रह सकते है कि पौधे उन्हें ग्रहण करने में असमर्थ हों. अत: बहुत सोच समझकर ही उर्वरकों का व्यवहार करना चाहिए अन्यथा लाभ के स्थान में हानि हो सकती है. यह सच है कि हमारी मिट्टी में सैकड़ों वर्षो से फसल उगाते उगाते उर्वरता का ्ह्रास हो गया है तथा उर्वरक के व्यहार से उपज बहुत कुछ बढ़ाई जा सकती है, पर आवश्यकता से अधिक अकार्बनिक उर्वकरों के व्यवहार से पाश्चात्य देशों, विशेषकर अमरीका में, हानि होती देखी गई है.

सं. ग्रं – फूलदेव सहाय वर्मा: खाद और उर्वरक (1960). (स. व.)
भारत में खाद के कारखाने – भारत में सुपर फास्फेट का 1906 उत्पादन में ही तमिलनाडू के रानीपेट स्थित एक कारखाने ने आरंभ कर दिया था, किंतु बड़े पैमाने पर उद्योग के रूप में रासायनिक खादों के उत्पादन का कार्य पाँचवें दशक के आरंभिक वर्षो में ही शुरू हुआ . 1950 में रासायनिक खाद के नौ कारखाने खुले और धीरे धीरे उनकी संख्या बढ़ने लगी. 1973. ई आते आते इसके पचास कारखाने हो गए और इन कारखानों 1973-74 में के वर्ष 10.60 में लाख टन रासायनिक खाद तैयार हो गई है.

भारत सरकार 1961 ने में एक भारतीय खाद निगम की स्थापना की थी. उसके अंतर्गत छह कारखाने सिंदरी (बिहार), नांगल (पंजाब), ट्रेंब (महाराष्ट्र), गोरखपुर (उत्तरप्रदेश), नामरूप (असम) और दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल) में हैं. बरौनी (बिहार), रामगुंडम् (प्रदेश अंाध्र), तालचरे (उड़ीसा), हल्दिया (पश्चिम बंगाल), कोरबा (मध्य प्रदेश) में नए कारखाने निर्माणाधीन हैं. पुराने कारखानों में नामरूप सिंदरी, ट्रांबे, गोरखपुर और नंगल का विस्तार किया जा रहा है.

खाद निगम के इन कारखानों के अतिरिक्त कुछ निजी कारखाने भी है जिनमें फर्टिलाइजर्स ऐंड केमिकल्स (त्रिवांकुरु) के अतंर्गत कोचीन और अलवाये के कारखाने हैं. यह रासायनिक खादों के उत्पादन में अग्रणी हैं. मद्रास और वाराणसी में निजी के क्षेत्र अन्य कारखाने हैं. राउरकेला इस्पात से संयंत्र संलग्न राउरकेला रासायनिक खाद का एक कारखाना है 1962 जो में चालू हुआ था. इस प्रकार का नैवेलि में एक कारखाना है जो नैवेली लिग्नाइट निगम से संबद्ध है.

कोक भट्ठी 34 के संयंत्र उत्पादों सहित सिंदरी, नंगल, ट्रांबे, राउरकेला, अलवाये, नैवेलि, नामरूप गोरखपुर, दुर्गापुर कोचीन तथा मद्रास स्थित सरकारी कारखानों और एन्नूर, वाराणसी, बड़ौदा, विशाखापत्तन, कोटा, गोवा और कानपुर के निजी कारखानों की कुल क्षमता 31 1974 मार्च, 19.39 को लाख टन नत्रजन थी. 18 अन्य बड़ी परियोजनाएँ जिनकी समन्वित क्षमता 22.22 लाख टन नत्रजन 6.62 और लाख टन P2 O5 की है, कार्यान्वयन के विभिन्न चरणों में हैं: इनमें से बरौनी खेतड़ी, तूती कोरन, और काँदला के नए कारखाने लगभग तैयार हैं तथा नामरूप कोटा और विशाखापत्तन के पुराने कारखानों का विस्तृतीकरण पूरा होने की अवस्था में है. इन कारखानों की 8.22 क्षमता लाख टन फास्फेट की है. (परमेश्वरीलाल गुप्त)

जैविक कीटनाशक अपनाकर पानी प्रदूषण से बचाएं
जैविक कीटनाशकजैविक कीटनाशकहम जिस गाँव में रहते हैं वैसे ही लगभग एक लाख गाँव पूरे उत्तर प्रदेश में है जिनमें तेरह करोड़ से भी ज्यादा लोग रहते हैं और इनमें से दस करोड़ से ज्यादा लोगों का जीवन पूर्णत: खेती पर ही आधारित है. इनमें से अधिकांश किसान तथा खेतिहर मजदूर हैं हमारे सारे किसान मिलकर पूरे देश की आवश्यकताओं का एक बटे पाँचवाँ भाग तो खुद ही पूरा करते हैं.

हमारे किसानों में से तीन चौथाई से ज्यादा तो छोटे और सीमांत किसान है. जो बीघा दो बीघा से लेकर पाँच एकड़ तक की खेती करते है. बहुत सारे लोग मानते हैं कि हमारी जोते छोटी होने के कारण खेती फायदेमन्द नहीं रह गई है लेकिन ये तो सोचना ही चाहिए कि छोटी – छोटी जोत वाले बहुत सारे किसान मिलकर पूरे प्रदेश में लाखों टन से ज्यादा पैदा करते हैं और पूरे देश के लोगों की खाने की जरूरत को पूरा करने में अपना योगदान करते हैं. हॉ, यह बात सही है कि खेती से जुड़ी समस्याएं लगातार बढ़ती जा रही है. देश मे सुरक्षित अन्न भण्डार तो बढ़ रहे हैं और खाद्यान्न उत्पादन में हमारा देश आत्म निर्भर भी हो गया है किन्तु अनाज पैदा करने वाले किसान के घर में साल भर खाने का अन्न नही है. फसल की पैदावार बढ़ाने के प्रयासों में खेती की लागत बढ़ी है और मिट्टी की गुणवत्ता भी खराब हो रही है तथा रसायनिक खादों और कीटनाशकों के अंधाधुन्ध प्रयोग से हमारा पानी, मिट्टी और पर्यावरण सब खराब (दूषित) होता जा रहा है.

हमारे खेतों में कहीं सिंचाई के साधन नहीं है तो कहीं नहर है किन्तु पानी नहीं है. सिंचाई के साधनों की कमी के चलते हमारे छोटी जोत के किसान भी साठ से अस्सी रूपये प्रति घण्टे का पानी खरीदकर फसल पैदा करते हैं. और ऐसा करने से हमारी खेती की लागत और बढ़ जाती है.

बढ़ती हुई महँगाई का असर खेती की लागत पर भी पड़ा है. पिछले 10-15 वर्षों में ही खाद, बीज, दवाई, डीजल, पानी भाड़ा आदि के भावों में दो से चार गुना तक की बढ़ोत्तरी हो गई है. सच तो यही है कि किसान के पैदा किये अनाज को छोड़कर बाकी सब चीजों के दामों में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है. खेती में लगने वाली लागत लगातार बढ़ने और उपज का वास्तविक मूल्य नहीं मिल पाने के कारण खेती नुकसान देने वाली लगने लगी है.

विकास की अंधी दौड़ में हमने अपनी परम्परागत खेती को छोड़कर आधुनिक कही जाने वाली खेती को अपनाया. हमारे बीज – हमारी खाद – हमारे जानवर सबको छोड़ हमने अपनाये उन्नत कहे जाने वाले बीज, रसायनिक खाद और तथाकथित उन्नत नस्ल के जानवर. नतीजा, स्वावलम्बी और आत्मनिर्भर किसान खाद, बीज, दवाई बेचने वालों से लेकर पानी बेचने वालों और कर्जा बांटने वालों तक के चँगुल में फंस गये. यहां तक की उन्नत खेती और कर्ज के चंगुल में फँसे कई किसान आत्म हत्या करने तक मजबूर हो गये. खेती में लगने वाले लागत और होने वाला लाभ भी बड़ा सवाल है, किन्तु खेती केवल और केवल लागत और लाभ ही नहीं है हमारे समाज और बच्चों का पोषण, मिट्टी की गुणवत्ता, पर्यावरण, जैव विविधता, मिट्टी और पानी कर संरक्षण, जानवरों का अस्तित्व तथा किसानों और देश की सम्प्रभुता भी खेती से जुड़े हुए व्यापक मसले है. हम तो परम्परागत तौर पर मिश्रित और चक्रीय खेती करते आये हैं. जिसमें जलवायु, मिट्टी की स्थिति और पानी की उपलब्धता के आधार पर बीजों का चयन होता रहा है. हमारे खेतों में हरी खाद एवं गोबर की खाद का उपयोग होता था. हमारे पूर्वज पूर्ण जानकार थे पानी वाली जगहों पर पानी वाली और कम पानी वाली जगहों पर कम पानी वाली फसल करते थे. हमारे खेतों में खेती के अलावा, फल वाले पौधे, इमारती और जलाऊ लकड़ी के पेड़, जानवरों के लिये चारा सब कुछ तो होता था. किन्तु एक फसली उन्नत और आधुनिक कही जाने वाली खेती के चक्रव्यूह में हमने अपनी परम्परागत और उन्नतशील खेती को छोड़ दिया.

हमारी खेती केवल अनाज पैदा करने का साधन नहीं मात्र है बल्कि हमारी संस्कृति से जुड़ी हुयी है. हमारी खेती, जल – जमीन – जंगल, जानवर, जन के सहचर्य – सहजीवन और सह – अस्तित्व की परिरचायक है. ये पॉचों एक दूसरे का पोषण करने वाले और एक दूसरे को संरक्षण देने वाले है सबका जीवन और अस्तित्व एक दूसरे पर निर्भर है और ये भी सही है कि जन के ऊपर स्वयं के विकास के साथ – साथ बाकी सबके भी संतुलित संरक्षण और संवर्धन की जिम्मेदारी है. हमारी परम्परागत खेती पद्वति सहजीवन और सह अस्तित्व की परिचायक रही है, जबकि आधुनिक खेती संसाधनों के बेहतर प्रयोग के स्थान पर उनके अधिकतम दोहन में विश्वास करती है. अब तो अधिकतर कृषि वैज्ञानिक, जानकार आदि भी मानने लगे है कि हमारी परम्परागत फसल पद्वति ही बेहतर और टिकाऊ है.

यह बात तो सही है कि आबादी – बढ़ने के कारण जमीने बँट गयी है और जोत का आकार छोटा हो गया है. किन्तु छोटी जोत का मतलब अलाभकारी खेती तो नही है. खेती का लाभ फसल के उत्पादन के साथ उसमें लगने वाली लागत और फसल पद्वति के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों के रूप में ही नापा जा सकता है. हमारी अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से एक ओर तो हमें जमीनों उत्पादकता बढ़ाने के प्रयास करने है और दूसरी ओर खेती में लगने वाली लागत को कम करते हुए पर्यावरण संतुलन को बनाये रखना होगा. हम सब को मिलकर “छोटी जोत अलाभदायक हैं,” जैसे दुष्प्रचारों से निपटने के कारगर उपाय भी ढूंढ़ने होंगे.

हम सब मिलकर वैज्ञानिक सोच, परम्परागत ज्ञान, और फसल पद्वतियों के संयोजन से लागत कम करते हुये लाभकारी और पर्यावरण हितैषी खेती को अपना कर अपनी फसल, खेत पानी आदि की गुणवत्ता को बढ़ा सकते हैं.

अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये हमें अपनी खेती को बेहतर बनाना होगा. रसायनिक खादों, कीटनाशकों, पानी और बीज के अनियंत्रित उपयोग को रोकते हुये एवं टिकाऊ खेती पद्वतियों को अपनाते हुए खेती की लागत कम और उत्पादकता बढ़ाने के प्रयास करने होंगे.

टिकाऊ खेती में ऐसा कुछ नही है जो हम पहले से नहीं जानते हैं – हमें रासायनिक खादों और कीटनाशकों का मोह त्याग कर जैविक खाद (हरी खाद, गोबर की खाद) जैविक कीटनाशक (गोबर, गौमूत्र नीम, गुड़, तुलसी, खली आदि) का उपभोग बढ़ाना होगा, आवश्यकता के अनुसार कूडवार खेती अपनानी होगी. जिससे न केवल खेती की लागत में कमी आयेगी अपितु कुल उत्पादन में वृद्वि के साथ मिट्टी और पानी का सरंक्षण भी होगा. हम अपनी छोटी जोत की खेती की योजना बनाकर मिश्रित, चक्रिय, जैविक खेती अपनाकर लाभदायक और पर्यावरण हितैषी जोत में परिवर्तित कर सकते है.
जैविक खेती (Organic farming)
कृषि की वह विधि है जो संश्लेषित उर्वरकों एवं संश्लेषित कीटनाशकों के अप्रयोग या न्यूनतम प्रयोग पर आधारित है तथा जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बचाये रखने के लिये फसल चक्र, हरी खाद, कम्पोस्ट आदि का प्रयोग करती है। सन् १९९० के बाद से विश्व में जैविक उत्पादों का बाजार काफ बढ़ा है।

परिचय
संपूर्ण विश्व में बढ़ती हुई जनसंख्या एक गंभीर समस्या है, बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ भोजन की आपूर्ति के लिए मानव द्वारा खाद्य उत्पादन की होड़ में अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए तरह-तरह की रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों का उपयोग, प्रकृति के जैविक और अजैविक पदाथाæ के बीच आदान-प्रदान के चक्र को (इकालाजी सिस्टम) प्रभावित करता है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति खराब हो जाती है, साथ ही वातावरण प्रदूषित होता है तथा मनुष्य के स्वास्थ्य में गिरावट आती है।
प्राचीन काल में मानव स्वास्थ्य के अनुकुल तथा प्राकृतिक वातावरण के अनुरूप खेती की जाती थी, जिससे जैविक और अजैविक पदार्थों के बीच आदान-प्रदान का चक्र निरन्तर चलता रहा था, जिसके फलस्वरूप जल, भूमि, वायु तथा वातावरण प्रदूषित नहीं होता था। भारत वर्ष में प्राचीन काल से कृषि के साथ-साथ गौ पालन किया जाता था, जिसके प्रमाण हमारे ग्रांथों में प्रभु कृष्ण और बलराम हैं जिन्हें हम गोपाल एवं हलधर के नाम से संबोधित करते हैं अर्थात कृषि एवं गोपालन संयुक्त रूप से अत्याधिक लाभदायी था, जोकि प्राणी मात्र व वातावरण के लिए अत्यन्त उपयोगी था। परन्तु बदलते परिवेश में गोपालन धीरे-धीरे कम हो गया तथा कृषि में तरह-तरह की रसायनिक खादों व कीटनाशकों का प्रयोग हो रहा है जिसके फलस्वरूप जैविक और अजैविक पदाथाæ के चक्र का संतुलन बिगड़ता जा रहा है, और वातावरण प्रदूषित होकर, मानव जाति के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है। अब हम रसायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों के उपयोग के स्थान पर, जैविक खादों एवं दवाईयों का उपयोग कर, अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं जिससे भूमि, जल एवं वातावरण शुद्ध रहेगा और मनुष्य एवं प्रत्येक जीवधारी स्वस्थ रहेंगे।
भारत वर्ष में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि है और कृषकों की मुख्य आय का साधन खेती है। हरित क्रांति के समय से बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए एवं आय की दृषि्ट से उत्पादन बढ़ाना आवश्यक है अधिक उत्पादन के लिये खेती में अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरको एवं कीटनाशक का उपयोग करना पड़ता है जिससे सीमान्य व छोटे कृषक के पास कम जोत में अत्यधिक लागत लग रही है और जल, भूमि, वायु और वातावरण भी प्रदूषित हो रहा है साथ ही खाद्य पदार्थ भी जहरीले हो रहे है। इसलिए इस प्रकार की उपरोक्त सभी समस्याओं से निपटने के लिये गत वर्षों से निरन्तर टिकाऊ खेती के सिद्धान्त पर खेती करने की सिफारिश की गई, जिसे प्रदेश के कृषि विभाग ने इस विशेष प्रकार की खेती को अपनाने के लिए, बढ़ावा दिया जिसे हम “”जैविक खेती”” के नाम से जानते है। भारत सरकार भी इस खेती को अपनाने के लिए प्रचार-प्रसार कर रही है।
म.प्र. में सर्वप्रथम 2001-02 में जैविक खेती का अन्दोलन चलाकर प्रत्येक जिले के प्रत्येक विकास खण्ड के एक गांव मे जैविक खेती प्रारम्भ कि गई और इन गांवों को “”जैविक गांव”” का नाम दिया गया । इस प्रकार प्रथम वर्ष में कुल 313 ग्रामों में जैविक खेती की शुरूआत हुई। इसके बाद 2002-03 में दि्वतीय वर्ष मे प्रत्येक जिले के प्रत्येक विकासखण्ड के दो-दो गांव, वर्ष 2003-04 में 2-2 गांव अर्थात 1565 ग्रामों मे जैविक खेती की गई। वर्ष 2006-07 में पुन: प्रत्येक विकासखण्ड में 5-5 गांव चयन किये गये। इस प्रकार प्रदेश के 3130 ग्रामों जैविक खेती का कार्यक्रम लिया जा रहा है। मई 2002 में राष्ट्रीय स्तर का कृषि विभाग के तत्वाधान में भोपाल में जैविक खेती पर सेमीनार आयोजित किया गया जिसमें राष्ट्रीय विश्ोषज्ञों एवं जैविक खेती करने वाले अनुभवी कृषकों द्वारा भाग लिया गया जिसमें जैविक खेती अपनाने हेतु प्रोत्साहित किया गया। प्रदेश के प्रत्येक जिले में जैविक खेती के प्रचार-प्रसार हेतु चलित झांकी, पोस्टर्स, बेनर्स, साहित्य, एकल नाटक, कठपुतली प्रदशÇन जैविक हाट एवं विशेषज्ञों द्वारा जैविक खेती पर उद्बोधन आदि के माध्यम से प्रचार-प्रसार किया जाकर कृषकों में जन जाग्रति फैलाई जा रही है।

जैविक खेती से होने वाले लाभ
कृषकों की दृषि्ट से लाभ
• भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृदि्ध हो जाती है।
• सिंचाई अंतराल में वृदि्ध होती है ।
• रासायनिक खाद पर निर्भरता कम होने से कास्त लागत में कमी आती है।
• फसलों की उत्पादकता में वृद्धि।
मिट्टी की दृष्टि से
• जैविक खाद के उपयोग करने से भूमि की गुणवत्ता में सुधार आता है।
• भूमि की जल धारण क्षमता बढ़ती हैं।
• भूमि से पानी का वाष्पीकरण कम होगा।
पर्यावरण की दृषि्ट से
• भूमि के जल स्तर में वृद्धि होती हैं।
• मिट्टी खाद पदार्थ और जमीन में पानी के माध्यम से होने वाले प्रदूषण मे कमी आती है।
• कचरे का उपयोग, खाद बनाने में, होने से बीमारियों में कमी आती है ।
• फसल उत्पादन की लागत में कमी एवं आय में वृदि्ध
• अंतरराष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद की गुणवत्ता का खरा उतरना।
जैविक खेती, की विधि रासायनिक खेती की विधि की तुलना में बराबर या अधिक उत्पादन देती है अर्थात जैविक खेती मृदा की उर्वरता एवं कृषकों की उत्पादकता बढ़ाने में पूर्णत: सहायक है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में जैविक खेती की विधि और भी अधिक लाभदायक है । जैविक विधि द्वारा खेती करने से उत्पादन की लागत तो कम होती ही है इसके साथ ही कृषक भाइयों को आय अधिक प्राप्त होती है तथा अंतराष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद अधिक खरे उतरते हैं। जिसके फलस्वरूप सामान्य उत्पादन की अपेक्षा में कृषक भाई अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। आधुनिक समय में निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या, पर्यावरण प्रदूषण, भूमि की उर्वरा शकि्त का संरक्षण एवं मानव स्वास्थ्य के लिए जैविक खेती की राह अत्यन्त लाभदायक है । मानव जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए नितान्त आवश्यक है कि प्राकृतिक संसाधन प्रदूषित न हों, शुद्ध वातावरण रहे एवं पौषि्टक आहार मिलता रहे, इसके लिये हमें जैविक खेती की कृषि पद्धतियाँ को अपनाना होगा जोकि हमारे नैसर्गिक संसाधनों एवं मानवीय पर्यावरण को प्रदूषित किये बगैर समस्त जनमानस को खाद्य सामग्री उपलब्ध करा सकेगी तथा हमें खुशहाल जीने की राह दिखा सकेगी।

जैविक खेती हेतु प्रमुख जैविक खाद एवं दवाईयाँ
जैविक खादें
• नाडेप
• बायोगैस स्लरी
• वर्मी कम्पोस्ट
• हरी खाद
• जैव उर्वरक (कल्चर)
• गोबर की खाद
• नाडेप फास्फो कम्पोस्ट
• पिट कम्पोस्ट (इंदौर विधि)
• मुर्गी का खाद
जैविक खाद तैयार करने के कृषकों के अन्य अनुभव
• भभूत अम़तपानी
• अमृत संजीवनी
• मटका खाद
जैविक पद्धति द्वारा व्याधि नियंत्रण के कृषकों के अनुभव
• गौ-मूत्र
• नीम- पत्ती का घोल/निबोली/खली
• मट्ठा
• मिर्च/ लहसुन
• लकड़ी की राख
• नीम व करंज खली

जैव उर्वरक का लाभ
रासायनिक उर्वरक, जैविक उर्वरक और प्राकृतिक उर्वरक के रूप में उर्वरकों के विभिन्न प्रकार के बाजार में उपलब्ध हैं. उर्वरक के प्रकार बहुत अपने उत्पाद की गुणवत्ता को नियंत्रित करता है. दुनिया भर में सभी किसानों को रासायनिक उर्वरकों का उपयोग कर रहे हैं, लेकिन कई अब जैविक उर्वरक बाद की स्पष्ट लाभ के कारण के लिए जा रहे हैं.
जैव उर्वरक कार्बन आधारित यौगिकों कि पौधों की उत्पादकता में वृद्धि कर रहे हैं. वे रासायनिक उर्वरकों पर विभिन्न लाभ है. इन लाभों में निम्नलिखित शामिल हैं:
* गैर विषाक्त भोजन: इन उर्वरकों का उपयोग सुनिश्चित करता है कि खाद्य उत्पादित वस्तुओं को हानिकारक रसायनों से मुक्त कर रहे हैं. एक परिणाम के रूप में, अंत उपभोक्ताओं को जो इन जैविक उत्पादों के खाने के कम कैंसर, दिल स्ट्रोक और त्वचा विकारों जैसे रोगों से ग्रस्त हैं, के रूप में जो रासायनिक उर्वरकों का उपयोग खाद्य उत्पादित वस्तुओं का उपभोग करने के लिए तुलना में.
* कृषि उत्पादन: जैव उर्वरक, उनमें से ज्यादातर स्थानीय रूप से या खेत में ही तैयार किया जा सकता है. इसलिए इन उर्वरकों की लागत रासायनिक उर्वरकों की लागत से बहुत कम है.
* कम पूंजी निवेश पर कृषि जैव उर्वरकों के उत्पादन की संभावना के अलावा, जैविक उर्वरक मृदा संरचना को बनाए रखने में मदद और अपनी पोषक तत्व धारण क्षमता में वृद्धि. इसलिए एक किसान है जो कई वर्षों के लिए जैविक खेती अभ्यास किया है उर्वरकों की बहुत कम मात्रा की आवश्यकता होती है के रूप में उसकी मिट्टी पहले से ही पोषक तत्व अमीर हो जाएगा.
मिट्टी के * की फर्टिलिटी: कार्बनिक उर्वरक सुनिश्चित करने कि खेतों सैकड़ों वर्ष के लिए उपजाऊ रहेगा. प्राचीन सभ्यताओं में भारत और चीन जैसे देश अभी भी उपजाऊ है, हालांकि कृषि वर्षों के हजारों के बाद से वहाँ वहाँ अभ्यास किया गया है. उर्वरता अभी भी जैविक उर्वरक के रूप में अतीत में इस्तेमाल किया गया था बनाए रखा है. हालांकि, अब रासायनिक उर्वरकों की वृद्धि हुई उपयोग के साथ, देश तेजी से बांझ होता जा रहा है कई किसानों को आगे बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरक आदानों या खेती छोड़ मजबूर.
* सुरक्षित वातावरण: जैविक उर्वरक जैव degradable आसानी से कर रहे हैं और इसलिए पर्यावरण प्रदूषण का कारण नहीं है. दूसरी ओर, रासायनिक उर्वरकों दूषित भूमि और पानी है जो मनुष्य और संयंत्र, पशु, और कीड़ों की प्रजाति का एक संख्या के विलुप्त होने के लिए बीमारियों का कारण है.
* रोजगार: हम सभी जानते हैं कि रासायनिक उर्वरकों है कि स्वचालित कर रहे हैं और लाखों टन की वार्षिक क्षमता के बड़े पौधों में बना रहे हैं. जैव उर्वरक, दूसरे हाथ पर, और स्थानीय स्तर पर एक छोटे पैमाने पर तैयार कर रहे हैं. एक परिणाम के रूप में, जैव उर्वरकों के उत्पादन में विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां रोजगार के अवसर धूमिल कर रहे हैं रोजगार की ओर जाता है.

जैव उर्वरकों अब आमतौर पर उर्वरक की दुकानों में के रूप में के रूप में अच्छी तरह से उपलब्ध हैं. आप भी जैव उर्वरकों के अपने बगीचे के लिए अपने आप कर सकते हैं.

Thanks
Kawal hasan & Dr. Rajeev Kumar
(Hasan Education Society)
Shahpur(M.Nagarr)251318

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply