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इस्लाम के अनुसार बलत्कार की दोषी स्त्री को भी सजा मिले ?

आक्रोशित मन
आक्रोशित मन
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अभी दो दिन पहले ही सपा प्रमुख मुलायम सिंह ने महिलाओं के खिलाफ एक चौकाने वाला बयान दिया जिसमें की वो कहते हैं की लडको से जवानी में गलती हो जाती है जो बलात्कार कर देते हैं , इसलिए उन्हें फांसी की सजा नहीं होनी चाहिए।
उनका यह बयान उन अपराधियों को शय देने वाला है जो स्त्री की अस्मत से खेलते हैं, इससे बलात्कार करने वालो को और हौंसला मिलेगा और स्त्रियों पर बलात्कार की घटनाओ में इजाफा हो सकता है ।
जिस सरकार का काम है औरतों की रक्षा करना वो ही ऐसे बयान देगी तो देश में अपराधियों के हौसले और बुलंद क्यूँ नहीं होंगे? क्या स्त्रियों के विषय में ऐसी मानसिकता रखने वालो को वोट देना देश हित में होगा? मेरे हिसाब से तो बिलकुल  भी नहीं।
चलिए मुलायम सिंह ने जो कहा सो कहा परन्तु उन्ही के मंत्री अबू आज़मी तो उनसे भी आगे बढ़ के बयान दे दिया है।

अबू आज़मी जो की एक मुस्लिम भी हैं उन्होंने कहा की  ” इस्लाम में बलात्कारी की सजा मौत है ,परन्तु भारत में केवल मर्दों को ही सजा मिलती है , औरतो को नहीं
जबकि महिला भी इसकी दोषी होती है”। उनके अनुसार इस्लाम में यदि कोई महिला चाहे विवाहित हो या अविवाहित अगर किसी लड़के के साथ अपनी मर्जी से या बैगैर मर्जी से सम्बन्ध बनाती है तो उसे फांसी होनी चाहिए।
उन्होंने आगे कहा की कई बार महिलाये पुरुषो के बिना छुए ही शिकायत कर देती हैं।
अब प्रश्न यह है की क्या इस्लाम में बलात्कार की पीड़ित महिला को भी फांसी देने का अधिकार है?
क्या यदि कोई महिला बैगैर मर्जी के या मर्जी से किसी के साथ सम्बन्ध बनाती है तो इस्लाम के अनुसार उसे फांसी होनी चाहिए?
क्या इस्लाम जंहा मर्दों को चार चार बीबियाँ रखने का हुक्म देके उन्हें स्त्री भोग करने की खुली छूट देता हो और वंही स्त्रियों को अपनी मर्जी से किसी के साथ सेक्स करने पर उन्हें फांसी की सजा देके अन्याय नहीं करता?
क्या अबू आज़मी जी कुरान की सूरत अन-निसा की 15वी आयात का अनुशरण तो नहीं कर रहें जंहा यह कहा गया है की यदि कोई औरत किसी मर्द से अपनी मर्जी से सेक्स कर ले तो उसे तब तक घर में कैद रखो जब तक की उसकी मृत्यु न हो जाये?
अगर अबु आज़मी  ऐसा वक्तव्य देते हैं की  निर्दोष बलात्कार की पीड़ित स्त्री को भी  दोषी मान के  फांसी सजा दे देनी चाहिए,  जिसमें  वह इस्लामिक कानून का हवाला देते , क्या इसे गैर मुस्लिम सही माने ? यदि नहीं तो क्यों?
आशा है की इस विषय में मुस्लिम विद्वान लोग अवश्य अपने विचार व्यक्त करेंगे और स्थिति को स्पष्ट करेंगे ।

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