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श्राद्ध – विचार बदलने की आवश्यकता

आक्रोशित मन
आक्रोशित मन
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श्राद्ध शुरू हो चुके हैं , एक बार फिर एक मरे हुए पितरो की आत्मा की शांति के नाम पर पाखंड शुरू हो जायेगा। पितरो की आत्मा को शांत करने वाले पाखंडी दान दक्षिणा खूब दिया जायेगा, कुत्ते – कौवो को भोजन परोसा जायेगा चाहे जब पितृ जीवित थे तब उन्हें एक लोटा पानी तक न दिया हो पर घी के टीन दान दिए जायेंगे।
एक बार फिर अन्धविश्वासो और लूट का दौर शुरू हो गया है, कबीर ने श्राद्ध कर्मकांड की धूर्ता के बारे में लिखा है –

जीवित पितर न माने कोउ मुए सिराध कराही।
पितर भी बपुरे किउ पावही कउआ कूकर खाही।।

यानि जीवित पितर का सम्मान नहीं किया जाता ,मरने के बाद कैसा पाखंड है। पितरों को भी क्या मिलता है। कौओ, कुत्तो को भोजन परोसा जाता है ,वे ही इसे खाते हैं ।

इससे पूर्व कई महापुरुषों ने भी श्राद्ध को पाखंड माना है और इसका विरोध किया है, आचार्य चार्वाक ने लोकायत में श्राद्ध क्रिया पर प्रहार करते हुए कहा है-

“मरे हुए प्राणी को यदि श्राद्ध से तृप्ति मिलती है तो बुझे हुए दीपक में तेल बढ़ा देने से वह जल उठाना चाहिए ,घर में किये गए श्राद्ध से यदि रस्ते में तृप्ति मिलती है तो घर से दूर जाने वाले प्राणी को पाथेय देना व्यर्थ होना चाहिए ”

जीवतो को प्रताणित करते हुए मृतको की पूजा का यह आडम्बर भारत में ऐसी विचारधारा का विरोधाभास है जिसे जनमानस की चेतना आत्मसात कर दिया गया है और शताब्दियों से इसमें जकड़े लोग बिना विचारे इसका पालन करते आ रहे हैं।

पुराणिक ग्रंथो में इस अन्धविश्वासी विचारधारा के प्रभाव के कारण , पापो के प्रायश्चित और अनेक भयानक नरको की यातनाओ का भय ,मिथकों के माध्यम से इस कदर मानस चेतना पर
बैठा दिया गया है की जनमानस भयभीत होके इसका अनुसरण करता चला आ रहा है और अपनी जमा पूंजी लुटाता आ रहा है।

अब जरुरत है ऐसे आंदोलनों की जो ऐसे पाखंडो को जड़ से मिटा सके और जनमानस को इन अन्धविश्वासो और पाखंडो से मुक्ति दिला सके ।

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