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दलितों का मंदिरों में प्रवेश निषेध उचित है- शंकराचार्य

आक्रोशित मन
आक्रोशित मन
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देश को आजाद हुए 65 साल हो गए है , संविधान के अनुसार सब बराबर हैं न कोई जात और धर्म से बड़ा है और न कोई छोटा । सभी को पूजा स्थलों में जाने का अधिकार है कोई भी धार्मिक संस्थान जाति पाती के आधार पर किसी को पूजा स्थलों में जाने से नहीं रोक सकता ।

पर इतने साल बाद भी और इतने कानून के बाद भी आज भी हिन्दू धर्म गुरु दलितों को मंदिर में प्रवेश को निषेध मानते हैं । देश में ऐसे कई देव स्थान हैं जंहा बाकायदा यह बोर्ड लगा होता है की पूजा घर में दलितों का प्रवेश निषेध है।
एक महीने पहले बिहार के मुख्य मंत्री को एक मंदिर में चले जाने से उस मंदिर को अपवित्र समझ के गंगाजल से धोके पवित्र किया गया।

हिन्दू धर्म के सर्वोच्च पदवी पर बैठे शंकराचार्यों का आज भी मानना है की दलितों को मंदिरों में प्रवेश नहीं देना चाहिए ,क्यों की यह शास्त्र विरुद्ध है। हिन्दू शास्त्र निषेध करते हैं दलितों का मंदिरों में प्रवेश। पूरी के शंकराचार्य ने रांची में पत्रकारों से कहा की दलितों का मंदिरों में प्रवेश निषेध उचित है और शास्त्र सम्मत है।

तो मैं सोचता हूँ की ऐसे में दलितों का हिन्दू बने रहना कंहा तक उचित है? दलित सवर्ण हिन्दुओं के लिए और शास्त्रों के लिए आज भी अछूत हैं … तो ऐसी अछूतपना क्यों ढोए जा रहे हैं दलित? यदि इसके बाद दलित दूसरा धर्म अपना लेता है तो दोषी कौन होगा?

सोचिये जब आज देश में लोकतंत्र है , संविधान है, कानून है तब ऐसे बयान दिए जाते हैं , ऐसी अमानवीय प्रथा को उचित बताया जाता है और इसे करते रहने का समर्थन किया जाता है तो आजदी से पहले दलितों की क्या हालत होती होगी जब कोई भी कानून नहीं था ? तब दलितों को सडको पर चलने का भी अधिकार नहीं था उन्हें अपने पीछे झाड़ू बाँध के चलना पड़ता था ताकि पैर पड़ने से जो निशान बने हैं उन पर किसी सवर्ण का पैर न पड़ जाए , गले में हांडी लटकानी पड़ती थी ताकि थूक जमीन न गीरे , इस तरह की अमानवीय व्यव्हार होते थे दलितों के साथ। आज भी धर्म के तथा कथित गुरु ऐसा ही व्यवहार दलितों के साथ जारी रखना चाहते हैं।

तो क्या ऐसे लोगो को कानून सजा नहीं देनी चाहिए जो संविधान पर चोट करते हैं? देश की अखंडता और समानता को तोड़ने की बाते करते हैं?
आज भी जाति आधरित भेद भाव करने के पक्ष में हैं और इसे धर्म सम्मत बताते हैं?

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