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वामपंथ : अब रावण और महिषासुर का सहारा

शंखनाद
शंखनाद
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रावण की पूजा कहीं-कहीं होने के समाचार नये नहीं हैं और न ही महिषासुर को माननेवालों का अंत हुआ है। नगण्य ही सही लेकिन इनसे जुड़ाव रखनेवाले लोग हमारे देश में हैं। जैसे मध्यप्रदेश, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और उत्तरप्रदेश में कुछेक स्थानों पर रावण को पूजने की परंपरा है। इन आराधना वाले स्थानों की गिनती की जाए तो हमारे देश के क्षेत्रफल में उनका योगदान न के बराबर मिलेगा। यहाँ ध्यान देनेवाली बात ये भी है कि राक्षसों की भारी-भरकम टोली में रावण की ही पूजा क्यों? कारण स्पष्ट है कि राक्षस कुल का होने के साथ-साथ रावण में ब्राह्मणों के गुण भी थे। अपने ननिहाल की राक्षसी प्रवृत्ति के प्रभाव में आने के कारण रावण में तामसिक आदतों का विकास हो गया था। रावण को आदर तो श्रीराम ने स्वयं दिया था क्योंकि रावण एक विद्वान होने के साथ-साथ महान शिवभक्त भी था एवं यही कारण कि कुछ लोगों के भी मन में रावण के प्रति सम्मान का भाव अन्यथा आपने कभी बकासुर, लवणासुर, शुंभ-निशुंभ, रक्तबीज आदि की पूजा होते देखा या सुना है? कदापि नहीं। रावण की पूजा इसलिए थोड़े होती कि वह राक्षस था और राक्षस यहाँ के मूलनिवासी हैं (जैसा कि वामपंथी प्रचारित करने के प्रयास में लगे हुए) और बाहर से आए हुए आर्यों के प्रति विरोध जताना है तो रावण को पूज लिया जाए।

अब रही बात महिषासुर के पूजन की तो ये तो बिल्कुल लेंस से ढूँढ के निकाला गया मुद्दा है। आदिवासी इलाकों में भी दुर्गापूजा मनाई जाती है।

//कोयलांचल के आदिवासी भी दुर्गापूजा करते हैं। वे दुर्गा की आराधना तांत्रिक विधि से करते हैं। समूह बनाकर नाचते-गाते हुए अन्न संग्रह करते हैं। यहां के सिमलगढ़ा, पलमा, मुर्गाबनी, तुलसीडाबर, संतालडीह के आदिवासी सदियों से दुर्गापूजा तांत्रिक विधि से करते आ रहे हैं। समूह बनाकर मां की उपासना एवं मंत्र सिद्धि के लिए भगवती मां की आराधना करते हैं// (साभार दैनिक जागरण http://jagran.com/jharkhand/deoghar-10789170.html )

//झारखंड के पीरटांड़ प्रखण्ड के ऐतिहासिक गांव पालगंज में बीते आठ सौ वर्षों से राजकीय परंपरा अनुसार दुर्गा पूजा मनाई जाती है। राजकीय दुर्गापूजा से इलाके के आदिवासियों का भी गहरा संबंध है। पालगंज स्टेट में ऐतिहासिक दुर्गा पूजा मनाने के पीछे वंश प्राप्ति से लेकर अन्य मनोकामना पूरी होने की मान्यता है// (साभार हिन्दुस्तान http://livehindustan.com/…/article1-5-famous-temples-of… )

//दुर्गा पूजा हिंदुओं के सबसे ब़डे धार्मिक त्योहारों में से एक है लेकिन मेघालय की पनार जनजाति भी शक्ति की देवी की उपासना करने में पीछे नहीं है, वह भी इस त्योहार को भक्ति और उत्साह पूर्वक मनाती है। सैक़डों की संख्या में पनार समुदाय के लोग जिन्हें जैंतिया भी कहा जाता है और पर्यटक नरतियांग के प्राचीन मंदिर में पांच दिनों तक चलने वाले इस दुर्गा पूजा के लिए एकत्र होते हैं// (साभार खास खबर http://khaskhabar.com/…/indigenous-tribe-celebrates-dur… )

हाँ एक असुर नामक जनजाति अवश्य है जो खुद को महिषासुर का वंशज मानती है। ये उनकी निजी मान्यता। सीधी सी बात ये कि हर किसी का कोई न कोई समुदाय, जाति, वर्ण, योनि आदि-आदि तो होगा ही! मुख्य बात जो है वह ये कि हर जीव की छवि उसके कर्मों से निर्धारित होती है न कि उसकी जाति या योनि से। जो जैसे कर्म करेगा वैसा ही फल पाएगा। आज हमारी सेना कभी नक्सलियों को मारती है तो कभी आतंकवादियों को। नक्सली और आतंकवादी भी किसी धर्म, जाति के होते हैं। आप स्वयं सोचिए कि अगर उन धर्म और जाति के लोगों ने नक्सलियों और आतंकवादियों को अपने धर्म, जाति का प्रतीक मानना शुरू कर दिया तो क्या होगा? और ऐसा होता भी है ही। विभिन्न निम्न स्तर की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए समय-समय पर ऐसी बातें उठाई भी जाती हैं। कभी किसी नक्सली को जनता का हीरो बनाने का दुष्प्रयास होता है तो कभी किसी आतंकवादी की मौत पर लंबी-लंबी यात्राएँ निकलती हैं, भाषण दिये जाते हैं। आप-हम उन नेताओं को किस दृष्टि से देखते हैं? हमारा हृदय उन नेताओं को धिक्कारता ही है न?

अच्छाई और बुराई की परिभाषा सबकी अपनी-अपनी हो सकती है लेकिन समय उनको ही अच्छा कहता है जो निर्माण करते हैं। बुराई केवल ध्वंस में विश्वास रखती। आज विश्वविद्यालयों में आग लगवाने वाले सनकी सुल्तानों से लेकर महिलाओं को जौहर करने के लिए विवश करने वाले जालिम बादशाहों के भी वकील बहुत सारे मिल जाएँगे आपको तो क्या हम उन हत्यारों को पूजना आरंभ कर दें? सत्य को छिपाया नहीं जा सकता। सत्य ही जनभावनाओं का आधार होता है। चार लोग उठें और कह दें कि हम इसको नहीं मानते, ये बंद कर दो। आप उस चीज को बंद कर दीजिए। कल फिर चार लोग उठेंगे और बोलेंगे कि हम उस चीज को नहीं मानते, हमारी भावनाएँ आहत हो रही हैं, उसको भी बंद कर दो। आप उस चीज को भी बंद कर दीजिएगा। यही बंद करने का सिस्टम चलता रहेगा और सारी व्यवस्था एक तमाशा बन जाएगी।

रही बात श्रद्धा की तो किसी के कहने या बरगलाने से श्रद्धा का जन्म नहीं होता बल्कि वह एक छलावा मात्र होता है। श्रद्धा अपनेआप जन्म नहीं लेती। उसके ठोस कारण होते हैं जिनका अनुभव हर श्रद्धावान को समय-समय पर होता रहता है जो उसकी श्रद्धा को औेर भी सबल करता जाता। जनता का बहुमत जहाँ श्रद्धा रखता है सत्य भी वहीं होता है। लोकतंत्र का आधार भी तो बहुमत ही है! बहुमत को हम व्यक्तिगत मान्यताओं के आगे झुठला नहीं सकते। यह संभव ही नहीं है। इसकी अवहेलना होने पर प्रलय आ जाएगा। हाँ, व्यक्तिगत मान्यताओं का एक अपना स्थान है। उन्हें वहीं अपनी सीमाओं में रहना चाहिए। बहुमत कभी उन्हें नुकसान नहीं पहुँचाता। यही व्यवस्था पूरे संसार को चला रही है। जहाँ-जहाँ इसको तोड़ने का प्रयास हुआ है, वहाँ-वहाँ परिणाम भयंकर हुए हैं।

अंत में जो बात कहना सबसे महत्वपूर्ण है वह ये कि रावण और महिषासुर को लेकर बचे-खुचे वामपंथी जो आजकल सक्रिय दिख रहे हैं, वे केवल अपनी दोगली मानसिकता का ही एक और प्रमाण दे रहे। वे तो धर्म को ही नहीं मानते और न ही ईश्वर के किसी रूप में विश्वास रखते हैं। ऐसे में सोचनेवाली बात यही है कि जब राम उनके अनुसार काल्पनिक हैं तो रावण सत्य कैसे हो गया? माँ दुर्गा के अस्तित्व को नकारनेवाले महिषासुर को वास्तविक कब से मानने लगे? कार्ल मार्क्स जो धर्म को अफीम बताते थे, उनके अनुयायी कब से किसी की धार्मिक मान्यताओं जिनमें रावण और महिषासुर पूजित हो रहे, के लिए लड़ने लगे? दरअसल यहाँ भी वामपंथ को किसी की आस्था से कुछ लेना-देना नहीं है। वह केवल अपना अस्तित्व बचाने की अंतिम लड़ाई में हाथ-पैर मारने के क्रम में ये रावण और महिषासुर के मुद्दे पर भ्रम पैदा कर के उन गिने-चुने समुदायों को अपनी ओर खींचना चाहता है जो इस तरह की चीजों से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं। ये कैसा दोहरापन है कि राम को नकली कहानी मात्र का नायक बताकर राम मंदिर के निर्माण का विरोध हो और दूसरी ओर रावण को असली बताकर उसके कथित आराधकों की ओर से मैदान में उतर जाया जाए? है कोई उत्तर? कोई उत्तर नहीं, केवल कुतर्क ही सामने आएँगे। अतः इस प्रकार की घटिया राजनीति करनेवाले लोगों का हम जितना बहिष्कार करेंगे, उतना ही हमारे लिए अच्छा रहेगा।

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