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प्राकृतिक प्रेम बनाम मानवीय प्रेम

शंखनाद
शंखनाद
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“प्रेम” एक ऐसा शब्द है जिस पर बहुतायत में लिखा जाता है और ये चलन किसी विशेष अवसर पर और भी तीव्र होता दिखने लगता है। मित्रों, ये संसार “प्लस और माइनस” के सामंजस्य से चलता है। जिस दिन ये सामंजस्य बिगड़ गया, दुनिया समाप्त हो जाएगी। प्रेम और घृणा भी इसी नियम का एक उदाहरण हैं। प्रेम (प्लस) जहाँ आरंभ है, वहीं घृणा (माइनस) अंत। प्रेम के अंकुरण में समय लगता है जबकि घृणा अपनेआप पनप आती है। जहाँ प्रेम जाएगा, पीछे-पीछे घृणा भी आएगी। मानवीय स्वभाव है कि वह आरंभ की ही बात करता है और अंत से आँखें चुराने का प्रयास, जबकि हर आरंभ का अंत निश्चित है।

इन बातों के अलावा एक अन्य बात जो कि ध्यान देने लायक है, वह ये कि प्रकृति का अंग होते हुए भी मनुष्य एकमात्र ऐसा प्राणी है जो प्रकृति से उलझता है और उसके विपरीत या मिलावटी आचरण करता है। ठीक स्वर्ण की तरह प्रेम भी मनुष्य की इसी प्रवृत्ति का मारा है। स्वर्ण जब प्राकृतिक होता है तो वह शुद्ध होता है। उसको मनुष्य का आडंबर मिलावटी बनाता है गहने बनाने के लिए। इसी प्रकार कोई भी सासांरिक मनुष्य कभी प्राकृतिक प्रेम नहीं कर सकता, केवल उसकी बातें करता है। मनुष्य के प्रेम में अपेक्षाओं की मिलावट होगी ही। आप, हम या कोई भी इससे बच नहीं सकते।

हम संसार में जी रहे हैं तो प्रेम के इसी मिलावटी स्वरूप को स्वीकार करना होगा क्योंकि खुद हमारा प्रेम भी औरों के लिए ऐसा ही है। ये कोई गलत बात नहीं बल्कि स्वाभाविक है। ये मानवीय प्रेम, केवल वैचारिक विवेचना की नहीं बल्कि व्यावहारिक रूप से करने की चीज होता है। जीवित रहने के लिए ये हमारी जरूरत है। प्रेम पर चर्चा करनी है तो प्राकृतिक प्रेम पर होनी चाहिए। इसको नायक-नायिका में दिखाने का प्रयास “छोटा मुँह, बड़ी बात” सा है और ओछी निजी इच्छाओं की पूर्ति का आवरण “प्रेम” को बनाना तो राक्षसी कृत्य है। मनुष्य का दिमाग उसको किसी भी क्षेत्र में शुद्ध प्राकृतिक नहीं रहने देता तो प्रेम इसका अपवाद कैसे बने? हम आम लोग जिस प्रेम को जीते हैं, वह भौतिक प्रेम है। ठीक बाइस कैरेट सोने की तरह। प्राकृतिक प्रेम तो चौबीस कैरेट का सोना होता है।

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