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नीतीश बाबू किधर ?

खट्ठा-मीठा
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देश की राजनीति करवट बदल रही है. सभी पार्टियाँ इस या उस दल के साथ गठबंधन करने या अकेले ही लोकसभा चुनावों में उतरने का मन बना रही हैं. लेकिन एक महत्वपूर्ण पार्टी ऐसी है जिसके बारे में अभी तक कुछ पता नहीं है कि वह क्या करेगी, किधर जाएगी.

जी हाँ, मैं जनता दल (यू) की बात कर रहा हूँ. अभी कल तक यह भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन का महत्वपूर्ण अंग था. लेकिन अपनी मूर्खता के कारण इसने राजग से अपना नाता तोड़ लिया और अब राजनीति में इतना महत्त्वहीन हो गया है कि लोग इसे जनता दल (यूजलेस) कहने लगे हैं.

अपनी इस दयनीय हालत के लिए इसके नेता खुद जिम्मेदार हैं. इसकी बिहार में एकमात्र राज्य सरकार है, जो पहले भाजपा के साथ गठबंधन में थी. लेकिन स्पष्ट बहुमत पाने के दंभ में इसने भाजपा से किनारा कर लिया. सिर्फ इसलिए कि कांग्रेस ने इसके मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री बनने के सपने दिखा दिए थे.

खुद को बहुत समझदार मानने वाले नीतीश बाबु यह नहीं समझ पाए कि कांग्रेस में गाँधी-माइनो परिवार के अलावा किसी भी व्यक्ति का प्रधानमंत्री बनना लगभग असंभव है, जब तक कि एकदम मजबूरी न हो जाए. नीतीश का यह सोचना ही गलत था कि राहुल को किनारे करके कांग्रेस किसी पुरानी दुश्मन पार्टी के नेता को आगे करेगी.

इसी गलती का परिणाम है कि आज जनता दल (यू) की बात कोई नहीं करता. न तो कांग्रेस उसके साथ गठबंधन को तैयार है और न कोई दूसरा दल उसे घास डाल रहा है. कान्ग्रेस को लालू प्रसाद यादव के साथ जाने में अधिक लाभ दिखाई दे रहा है, जो कि सही भी है.

इसलिए अब जनता दल (यू) और नीतीश की हालत पर बस यही कहा जा सकता है- ‘न खुदा ही मिला न विसाले-सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे.’

खैर छोड़िये. आप तो एक शेर सुनिए-

बस एक कदम रखा था गलत राहे-शौक में.
मंजिल तमाम उम्र मुझे ढूंढती रही.

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