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आज माननीय सर्वोच्च न्यायलय ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया है कि यदि किसी फांसी की सजा प्राप्त अपराधी की दया याचिका का निपटारा शीघ्र नहीं किया जाता अथवा किसी भी कारण वश उसे शीघ्र फांसी नहीं दी जाती, तो उसे उस सजा को उम्र कैद में बदल देना हे न्याय होगा. इस निर्णय के अनुसार १५ ऐसे अपराधियों की फांसी की सजा को उम्र कैद में बदल दिया गया है, जिनको लम्बे समय से फांसी का या अपनी दया याचिका के निपटारे की प्रतीक्षा है.
मा. सर्वोच्च न्यायलय का यह फैसला प्राकृतिक न्याय के अनुकूल ही है. किसी व्यक्ति की फांसी को लम्बे समय तक लटकाए रखना एक प्रकार से उसे मानसिक कष्ट देना है, जो यातना की श्रेणी में आता है. लम्बी सजा भोगने के बाद फांसी देना एक तरह से उसे उम्र कैद और फांसी दोनों सजाएं एक साथ देने के बराबर है, जो न्याय के प्रतिकूल है. इसलिए स.न्या. के इस निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिए.
अदालतें किसी व्यक्ति को फांसी की सजा तभी देती हैं, जब उसका अपराध दुर्लभ से दुर्लभ श्रेणी में आता है और जब अत्यधिक क्रूरता बरती गयी हो. इसलिए ऐसे मामलों में सजा का क्रियान्वयन निर्धारित प्रक्रिया पूरी करके तत्काल कर दिया जाना चाहिए.
परन्तु देखा यह जाता है कि राष्ट्रपति के पास दया याचिकाएं लम्बे समय तक अनिर्णीत पड़ी रहती हैं और गृह मंत्रालय उनकी फाइलों पर कुंडली मारकर बैठ जाता है. पिछली राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल इस मामले में बहुत लापरवाह सिद्ध हुई थीं, जिसके कारण अनेक दुर्दांत अपराधी छूट गए.
अब इस प्रक्रिया को बदला या सुधार दिया जाना चाहिए. राष्ट्रपति को चाहिए कि ऐसी हर याचिका पर अधिक से अधिक १ माह में अपना निर्णय दे दें. अगर वे ऐसा करने में असफल रहते हैं, तो याचिका को रद्द माना जाना चाहिए.
यहाँ मुझे अफज़ल और कसाब के मामले याद आ रहे हैं. कांग्रेस सरकार मुस्लिम वोट खोने के डर से उनको फांसी पर नहीं लटका रही थी. वह तो भला हो उन डेंगू मच्छरों का, जिन्होंने पहले कसाब और फिर अफज़ल का निपटारा कर दिया, वरना वे आज भी जेल में बिरयानी खा रहे होते और आज के फैसले में जिन्दा छूट गए होते.
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