- 83 Posts
- 121 Comments
बाप जी की पीड़ा समझ में आने वाली है. बड़ी हसरत से बेटा जी को छोटी कुर्सी पर बैठाया था, चाचाओं का हक मारकर। उम्मीद थी कि बेटा जी कुछ ऐसा करके दिखायेंगे कि बाप जी को बड़ी कुर्सी पाने में आसानी होगी। लेकिन सारी उम्मीदें धरी रह गयी। बेटा जी ने कुछ ऐसा किया कि बड़ी कुर्सी पाने की तो नहीं, बल्कि बड़े घर जाने की नौबत भी आ सकती है।
बेटा जी भी क्या करें? चापलूसों से घिरे रहने की आदत बचपन से है और वे चापलूस ऐसे हैं जो अभी तक बाप जी की आड़ में अपना गुंडा गिर्दी का धंधा करते रहे हैं। एक दम से पुराना पेशा कैसे छोड़ दें? बाप जी ने उनको सुधारने के लिए क्या-क्या नहीं किया? कितना डराया-धमकाया-हड़काया, पर बेटा जी के चमचों पर रत्ती भर असर नहीं हुआ। इस कान से सुना, उस कान से निकाल दिया। जिनके खून में ही गुंडागिर्दी के कीटाणु बचपन से पल रहे हैं, वे अपना स्वभाव कैसे बदल दें?
अगर गुंडागिर्दी आम जनता तक ही हुई रहती तो भी गनीमत थी। किसने कहा था कि डाक्टरों से पंगा लेना? इस बिरादरी के नाम पर तो बड़े-बड़े तुर्रम खान घबड़ाते हैं। अब भुगतो उनको! दंगों के नाम पर कलंक अलग लगा हुआ है। बेटा जी ने कहीं मुँह दिखाने लायक ही नहीं छोड़ा। लगता है कि बाप जी का सपना बस सपना ही रह जायेगा।
Read Comments