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हास्य-व्यंग्य : गरीबों का महोत्सव

खट्ठा-मीठा
खट्ठा-मीठा
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वे बहुत प्रफुल्लित नजर आ रहे थे। उनका चेहरा खुशी से चमक रहा था, जैसे खिले पड़ रहे हों। मैंने पूछा- ‘क्या बात है? बहुत खुश नजर आ रहे हो।’
‘मैं सैफई से आ रहा हूँ।’ उन्होंने नाक ऊँची करके शान से कहा।
‘वह क्या है? वहाँ क्या था?’ मैंने अपनी अज्ञानता पर झेंपते हुए पूछा।
‘कैसे लेखक हो? तुम्हें पता नहीं कि सैफई गाँव नेताजी मुलायम सिंह यादव का जन्मस्थान है?’
‘ओह! तो वहाँ क्या हो रहा था? क्या वहाँ नेताजी का जन्म दिन मनाया गया था?’
‘यही समझ लो। वहाँ महोत्सव हुआ था। बड़े-बड़े फिल्म स्टार और स्टारनी वहाँ आये थे।’
‘अच्छा?’ मैंने आश्चर्य से कहा, ‘वे वहाँ पहुँचे कैसे थे?’
‘हवाई जहाज से पहुँचे थे और कैसे पहुँचेंगे?’
‘गाँव में हवाई जहाज कैसे उतरा था?’
उन्होंने एक बार फिर मेरी अज्ञानता पर तरस खाया- ‘अरे, वहाँ हवाईपट्टी भी है।’
मेरी आँखें आश्चर्य से फटी रह गयीं। गाँव में हवाईपट्टी! वास्तव में हमारा देश बहुत प्रगति कर रहा है। मैंने पूछा- ‘महोत्सव में क्या हुआ था?’
‘वही हुआ था, जो सारे महोत्सवों में होता है। खाना-पीना, नाच-गाना, मौज-मस्ती। और क्या? फिल्म स्टार भी नाचे थे। वास्तव में वे वहाँ नाचने के लिए ही बुलाये गये थे।’
‘इस महोत्सव को देखने कौन आये थे और कितने लोग आये थे?’
‘हजारों-लाखों लोग आये थे। सारे मंत्री सपरिवार शामिल हुए थे। कोई छोटा-मोटा प्रोग्राम थोड़े ही था। बहुत बड़ा प्रोग्राम था।’ उन्होंने फिर शान से कहा।
‘इतने सारे लोग कैसे आये थे और कहाँ ठहरे थे?’ मैंने आश्चर्यपूर्वक कहा।
‘सब अपनी-अपनी औकात के हिसाब से आये थे- कोई हवाई जहाज से, कोई कार से। अब बड़े-बड़े नेता पैदल तो आ नहीं सकते?’ उन्होंने मेरी मूर्खता पर फिर तरस खाया।
मेरा आश्चर्य बढ़ता जा रहा था- ‘लेकिन इस पर तो बहुत खर्च हुआ होगा?’
‘बहुत कहाँ, यार। केवल 10-20 करोड़ खर्च हुए थे। इतना खर्च तो हर आयोजन में हो ही जाता है। किसी-किसी महोत्सव में तो इससे भी ज्यादा खर्च हो जाता है।’
‘क्या इतना अधिक खर्च नेताजी ने अपनी जेब से किया था?’
‘नहीं यार, वे अपनी जेब से क्यों खर्च करेंगे। वह तो सरकारी आयोजन था। गरीबों के लिए इतना तो करना ही पड़ता है।’
‘गरीबों के लिए?’ मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा- ‘अब सैफई में ही गरीब रह गये हैं? प्रदेश के दूसरे हिस्से में गरीब नहीं हैं क्या?’
‘होंगे यार, छोड़ो। उनके लिए फिर कभी महोत्सव कर लेंगे।’
इतना कहकर वे चलते बने और मैं ठगा सा खड़ा रह गया।

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