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मांग में लगा सिंदूर, हाथों में हरी-हरी चूड़िया, वो लाल चुनरी जिसे ओढ़ने के बाद हर नारी को अपने रूप पर घमंड होने लगता है पर एक दिन वो सारा श्रृंगार छीन लिया जाए और बदले में सफेद साड़ी दे दी जाए तो उस नारी के दिलो-दिमाग पर क्या आघात पहुंचता होगा इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती है.
आज भी नींद खुल जाती है जब भी उस रात के बारे में कल्पना करती हूं. मेरी उम्र लगभग सात साल की रही होगी जब एक रात मेरी गहरी नींद रात के 11 बजे खुल गई और वो भी रोने की आवाज से. देखा तो सामने वाले घर से रोने की आवाजें आ रही थीं. अजीब लगा कि ऐसा क्या हो गया जो यह तीन-चार औरतें इतनी तेज-तेज से रो रही हैं. आखिरकार समझ भी कैसे पाती उम्र ही ऐसी थी. मां से पूछा तो मां ने कहा कि फिर किसी औरत की जिंदगी बर्बाद हो गई. शायद मां के इन शब्दों को भी मैं समझ नहीं पाई थी. अचानक मेरी नजर उस औरत पर पड़ी जिसे मैने हमेशा मुस्कुराते देखा था पर इस बार वो ना तो मुस्कुरा रही थी और ना ही रो रही थी. अजीब सी ही चुप्पी उसके होठों पर थी और उसकी आंखें बस अपने पति की लाश को देखे जा रही थीं. कुछ औरतें उसके मांग में लगा सिंदूर मिटा रही थीं और कुछ उसके हाथों की लाल-हरी चूड़ियां तोड़ रही थीं पर वो औरत किसी से भी कोई भी शिकायत नहीं कर रही थी जैसे उसे होश ही ना हो कि उसके साथ क्या हो रहा है.
सात साल की उम्र से मैं बारह वर्ष की हो चुकी थी पर हैरानी वाली बात तो यह थी कि उस औरत के चेहरे की चुप्पी वैसी ही थी जैसी मैंने सात साल की उम्र में देखी थी. दिन-रात यही सोचने लगी थी कि ऐसा क्या हुआ है उस औरत के साथ जो वो मुस्कुराना ही भूल गई है. पर शायद सच तो यह था कि मैं ही समझ नहीं पा रही थी कि वो मुस्कुराना नहीं भूली है बल्कि समाज ने उसकी मुस्कुराहट छीन ली है. जब भी मैं खेलने-कूदने के लिए बाहर निकलती तो मोहल्ले की औरतें मुझे उससे बात करने के लिए मना करती थीं और कहती थीं कि उस औरत का आचरण अच्छा नहीं है. पति के मरने के बाद भी करवा चौथ का व्रत रखती है. मेरी खेलने-कूदने की उम्र थी भला मैं कैसे समझ पाती कि करवा चौथ का अर्थ क्या है और यह कैसे जान पाती कि वो औरत अपने पति के मरने के बाद भी करवा चौथ का व्रत उसकी आत्मा की शांति के लिए करती है क्योंकि पवित्र नारी के लिए कभी भी उसका पति मरता नहीं है और उसे पति के शरीर से नहीं आत्मा से प्रेम होता है. शायद यह बात आज मैं समझ पा रही हूं.
बारह वर्ष उम्र की लड़की अब 21 वर्ष की हो चुकी थी पर इतने सालों में भी उस औरत की हंसी वापस नहीं आई थी और ऐसा लगता था कि जैसे उसने रंगों से लड़ाई कर रखी हो. लाल, गुलाबी, हरा रंग तो मानो उसे अपना दुश्मन लगता हो और जैसे उसके हाथों ने बिना चूड़ियों की खनखन के रहना सीख लिया हो. मेरा उस औरत के साथ एक लगाव का रिश्ता बन गया था आखिरकार सात साल की उम्र से उसे हारते हुए देखती आ रही थी. फिर क्या था वक्त ने एक दिन अपना खेल खेला और अचानक मेरी उससे मुलाकात हुई. हम आपस में ऐसे बातें करने लग गए जैसे उसकी और मेरी उम्र में ज्यादा फासला ना हो. सच ही तो है एक नारी दूसरी नारी के जज्बात को बहुत जल्द ही समझने लगती है. वो मुझे अपनी बातें ऐसे बताने लगी जैसे उसे हजारों साल बाद अपनी सखी मिल गई हो. उसकी हर एक बात मेरे दिल और दिमाग पर असर करने लगी पर उसकी एक बात ने मेरे भीतर सवालों की झड़ी लगा दी थी. जब उसने मुझसे कहा कि ‘मैं शायद अब एक सुहागन जैसी मौत नहीं मर पाऊंगी…वो ही सफेद रंग की साड़ी में मेरी लाश को लपेटा जाएगा पर फिर भी अंतिम इच्छा यही है कि मेरी शादी के जोड़े में ही मेरे शरीर का दाह संस्कार किया जाए भले ही मांग में सिंदूर ना लगाया जाए पर अपने पति के साथ जिस जोड़े को पहनकर मैंने सात फेरे लिए थे उसी जोड़े में मैं अंतिम सास लूं.” इन बातों को सुनने के बाद मैं यही सोचती रही कि शायद उसकी बातें यह मर्दवादी समाज भी समझ पाता तो वो यह जान पाता कि कैसे एक नारी पति के मरने के बाद भी उसे जीवित बनाए रखती है. आज भी इन बातों का जवाब समाज के पास नहीं है कि क्यों पति के मरने के बाद औरत के अस्तित्व का भी दाह संस्कार हो जाता है.
उस औरत की मौत के बाद मैं यही सोचती रही कि काश उसने एक बार अपने लिए आवाज उठाई होती क्योंकि यह समाज हमेशा से ही बहरा रहा है या फिर सुनाई देने के बावजूद अनदेखी करता रहा है.
“रंग बेरंग हुए,
मुस्कान खामोशी हुई,
जिंदा रहते हुए लाश बन गई,
पर दाह-संस्कार भी सुहागन जैसा नहीं हुआ.”
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