Menu
blogid : 799 postid : 330

गुजरात के नाथ

सत्यमेव .....
सत्यमेव .....
  • 29 Posts
  • 532 Comments

इस लेख को लिखने की प्रेरणा आदरणीय रमेश बाजपेई जी के लेख ” अयोध्या इतिहास के आइने में “ में अभी हाल मे आयी श्रद्धेय अरूणकांत जी की टिप्पणी पढ़ने से मिली । अरूण जी की टिप्पणी जो कि नीचे दी गयी है ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है । क्योंकि मैं इतिहास का विद्यार्थी नहीं रहा इसलिये मैं इस टिप्पणी को लेकर वरिष्ठ पत्रकार और भारतीय इतिहास के जानकार श्री नरेश मिश्र के पास गया । उक्त टिप्पणी को पढ़ कर उन्होंने जो लेख लिखवाया वह नीचे दे रहा हूं ।

कृष्ण मोहन मिश्र

अरुण कान्त शुक्ला \\\\\\\’आदित्य \\\\\\\’ के द्वारा
September 21, 2010

आदरणीय बाजपेयी जी ;
आपका लेख निसंदेह ज्ञानवर्धक है | जिन कालखंडों की आपने चर्चा की है , उनमें अयोध्या ही क्यों पाटलीपुत्र , उज्जयनी , वाराणसी , प्रयाग एवं अनेक अन्य नगर अपने वैभव और धार्मिक महत्त्व के लिये आज तक जाने जाते हैं | उसी महत्व और वैभव को पुनः हासिल करने के प्रयास में तो पूरा समाज आदि सामंतकाल में चला जायेगा | इतिहास से अतीत के गौरव को खींचकर लाने से वर्त्तमान का गौरव नहीं बनता | देश में जो लोग ऐसा करना चाहते हैं , उन्होंने वर्त्तमान को कितना कष्टदायी बना दिया है , यह भी अक विचारणीय प्रश्न है |
हर काल के शासकों ने इतिहास को न केवल अपने तात्कालिक राजनीतिक उद्देश्यों के लिये अपने हिसाब से तोड़ा मरोड़ा बल्कि अपने हिसाब से लिखवाया भी है | वर्तमान में कोई भी राय बनाने से पहले इतिहास में मंदिरों को तोडने की प्रक्रिया को समझाना बहुत आवश्यक है | क्या मंदिर इसलिए तोड़े गए कि मुसलमान राजा हिदू धर्म का अपमान करना चाहते थे ? हम बहुचर्चित और कट्टरपंथियों द्वारा सबसे ज्यादा हवाला दिए जाने वाले मुहम्मद गजनवी और सोमनाथ मंदिर की चर्चा करें | मुहम्मद गजनवी अफगानिस्तान के गजना नामक शहर से आया था और शायद इसी लिये उसका नाम गजनवी था | गजना से सोमनाथ आने के लिये उसे एक लंबा सफर तय करना पड़ा होगा और निश्चित रूप से रास्ते में बहुत सारे हिन्दू मंदिर पड़े होंगे | उसने उन सब मंदिरों को क्यों नहीं तोड़ा ? रास्ते में बामियान की वशाल बुद्ध की मूर्तियां भी उसे दिखी होंगी , उसने उन्हें हाथ भी नहीं लगाया | पहला सवाल यह उठता है कि उसने तोडने के लिये सोमनाथ मंदिर को ही क्यों चुना ? जब गजनवी सोमनाथ की और बढ़ रहा था तो रास्ते में मुल्तान नाम का शहर पड़ा | मुलतान के नवाब का नाम था अब्दुल फत दाउद | गजनवी ने उससे उसकी सल्तनत की सीमाओं से होकर सोमनाथ जाने की अनुमति मांगी | अब्दुल फत दाउद ने इसकी अनुमति नहीं दी और इस कारण दोनों मुसलमान राजाओं में युद्ध हुआ और इस युद्ध में मुल्तान की जामा मस्जिद शहीद हो गई | याने गजनवी ने अपने राजनीतिक प्रयोजन के लिये रास्ते में आने वाली मस्जिद को भी नहीं छोड़ा | मुल्तान के बाद जो मुख्य शहर पडता था , उसका नाम था थानेश्वर , जहाँ का राजा आनंदपाल था | गजनवी ने उससे भी वही निवेदन किया और आनंदपाल ने उसे अपने राज्य से गुजरने की अनुमति दे दी | अबयः बात तो सभी जानते हैं कि सोमनाथ की अकूट संपदा को उसने लूटा और फिर यह कहकर मंदिर को तोड़ा कि इस्लाम में मूर्ति पूजा को मान्यता नहीं है , इसलिए में मंदिर को तोड़ रहा हूँ | यहाँ प्रश्न उठता है कि अगर वह इस्लाम का सिपाही था तो उसने रास्ते में पड़ने वाले मंदिरों को क्यों नहीं तोड़ा ? अगर वह इस्लाम का सिपाही था तो उसने अपने रास्ते में आने वाली मस्जिद को क्यों नहीं छोड़ा ? गजनवी की फ़ौज में एक तिहाई सैनिक हिन्दू थे और उसके बारह सिपलसहारों में से पांच हिन्दू थे | उनके नाम थे तिलक , सोंधी , हरजान , राण और हिंद | उसने सोमनाथ जीतने के बाद वहाँ अपने प्रतिनिधि के रूप में एक हिंदू राजा की नियुक्ति की और अपने नाम के सिक्के चलाये जिनकी लिखावट संस्कृत में थी |
कमेन्ट लंबा हो रहा है इसलिए में रामभक्त गोस्वामी तुलसीदास का हवाला देते हुए अपनी बात खत्म करूँगा कि उसी काल में तुलसीदास अयोध्या में ही रहते थे | अगर राम मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई होती तो निश्चित रूप से तुलसीदास इसका जिक्र अपनी रचनाओं में करते | एक और छोटी किन्तु महत्वपूर्ण बात है कि अभी भी बहुतायत में हिन्दू परम्परा के अनुसार स्त्री अपने पहले बच्चे को जन्म देने के लिये मायके जाती है , तब सीता भी गईं होंगी | और तो और आज भी अयोध्या में ऐसे लगभग पचास से ज्यादा मंदिर हैं जो यह दावा करते हैं कि राम का जन्म वहीं हुआ था |
गोस्वामी तुलसीदास के बारे में एक रोचक जानकारी है कि उन्होंने राम कथा को पहली बार आम बोलचाल की भाषा अवधी में लिखा |चूंकि उस समय ब्राम्हण वर्ग केवल देवभाषा संस्कृत का प्रयोग करता था , और तुलसी दास ने उसके विपरीत जाकर अवधी (लोकभाषा) का प्रयोग किया , इसलिए उन्हें जाती से निकाल दिया गया और उनके राम मंदिर आने पर रोक लगा दी गई | पर इस रामभक्त ने अपनी भक्ति को जारी रखने के लिये किसी ढाँचे को ध्वस्त नहीं किया और एक मस्जिद में रहने लगे | तुलसीदास ने अपनी आत्मकथा विनय चरितावली में लिखा है ;
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को , जाको रुचे सो कहे वोहू
माँग के खइबो मस्जिद माँ रहिबो , लेबे का एक न देबे का दोऊ

टिप्पणीकार का इतिहास के बारे में ज्ञान अधूरा और गलत साक्ष्यों पर आधारित है । इस तथ्य पर गौर करना चाहिये कि पाटलिपुत्र, उज्जैन, वाराणसी और प्रयाग के तमाम मंदिर मुस्लिम शासनकाल में धवस्त किये गये इसके बावजूद हिंदू आस्था बाबरी ढांचे को राममंदिर क्यों मानती है और उस स्थल को आस्था का केन्द्र क्यों समझती है । हिंदुओं को अपने तमाम मंदिरों के ध्वस्तीकरण पर मलाल होने के बावजूद उस पर दुबारा कब्जे का आग्रह नहीं है । हिंदू मानस सिर्फ अपने आराध्य श्री राम की जन्मस्थली पर मंदिर क्यों बनाना चाहता है ।

टिप्पणीकार इतिहास से कट कर वर्तमान की चिंता करने की सलाह देते हैं । उन्हें यह बताना जरूरी है कि जो देश या समुदाय अपने अतीत की संस्कृति, ऐतिहासिक घटनाओं से वाजिब सबक लेकर वर्तमान को नहीं संवारना चाहता उसका वजूद जल्दी ही खत्म हो जाता है । यूनान, मिश्र, और रोमन सभ्यता का पतन इसलिये हुआ था कि उस सैनिक नजरिये से बेहद ताकतवर संस्कृति का कोई वैभवशाली अतीत नहीं था । तलवार के बल से जो साम्राज्य बनाये जाते हैं वे तलवार की धार से ही टुकड़े -टुकड़े हो जाते हैं । हिंदू संस्कृति के निमार्ण में हिंसा या सैनिक शक्ति की कोयी भूमिका नहीं थी । वह उस वैचारिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक बुनियाद पर बनी थी जिसे आज तक सनातन कहे जाने का गौरव हासिल है । हमारे देश में जिन तीन धर्मों का प्रचार, प्रसार हुआ वे मुख्य रूप से हिंदू, बौद्ध और जैन धर्म हैं । इतिहास में ऐसा कोई ठोस उदाहरण नहीं मिलता कि इनमें से किसी भी धर्म के प्रचार के लिये किसी शासक ने या समुदाय ने युद्ध और हिंसा का सहारा लिया हो । मौर्य और गुप्त साम्राज्य में ऐसे तमाम उच्च पदाधिकारियों के नाम गिनाये जा सकते हैं जो बौद्ध, जैन या हिंदू थे । शासक कभी इस मुद्दे पर गौर नहीं करते थे कि उनके सेनापति, मंत्री किस धर्म के अनुयायी हैं । वे सिर्फ यह देखते थे कि साम्राज्य और शासन के हित में कौन व्यक्ति सबसे ज्यादा उपयुक्त है ।

इसके बरखिलाफ मध्यपूर्व मे जिन तीन सेमेटिक धर्मों का प्रचार हुआ उनके अनुयायी शासकों ने तलवार का सहारा लेकर अपने धर्म का प्रचार करने मे गुरेज नहीं किया । इसाईयों और इस्लामी शासकों ने याहूदियों को उनके मूल स्थान से खदेड़ कर दुनिया के तमाम हिस्सों में बसने को मजबूर किया । इसाईयों और मुसलमानों में क्रूसेड (धर्मयुद्ध) सदियों तक चलता रहा । क्या भारत के इतिहास में ऐसे धर्मयुद्धों का कोई प्रसंग आता है । हिंदू शासकों ने इस्लाम के तूफान में विस्थापित हुए अग्निपूजक पारसियों को उदारता से अपनाया । यह उदारता हिंदू संस्कृति की सबसे बड़ी पूंजी है । हमारी संस्कृति उदार, सदाशय और समन्वयवादी है । हम किसी भी हितकारी विचारधारा के लिये अपनी खिड़कियां बंद नहीं करते । हम हर दिशा से शुभ विचारों की बयार का स्वागत करते हैं ।

टिप्पणीकार ने महमूद गजनवी को मुहम्मद गजनवी लिखा है । जाहिर है वे सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण करने वाले शासक का सही नाम नहीं जानते । मुहम्मद गोरी ने तराईन की लड़ाई में पृथ्वीराज चैहान को हरा कर पहली बार भारत में स्थायी रूप से इस्लामी शासन की नींव डाली । उसने अपने एक गुलाम को दिल्ली का सुल्तान बनाया और इस देश में गुलामवंश की नींव पड़ी । महमूद गजनवी ने सिर्फ एक बार भारत पर आक्रमण नहीं किया था । उसने कई बार इस देश पर हमला करके यहां के मंदिरों की संपत्ति को लूटा था । इसका विस्तृत व्यौरा जानने के लिये टिप्पणीकार को ‘शाहनामा’ पढ़ना चाहिये । अगर ‘शाहनामा’ पढ़ने में दिक्कत आये तो उन्हें कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी लिखित ‘गुजरात के नाथ’ पढ़ना चाहिये ।

टिप्पणीकार का यह कथन भ्रामक है कि हिंदूओं ने सोमनाथ मंदिर के रास्ते में महमूद गजनवी को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया । उन्होंने प्रयास किया और कुर्बानियों दी लेकिन उनका प्रयास संगठित नहीं था । वे इस्लामी जुनून से भरी गजनवी की फौज का मुकाबला नहीं कर सके । महमूद गजनवी ने जब गदा की चोट से सोमनाथ शिवलिंग तोड़ने के प्रयास किया था तब पुजारियों और हिंदू सामंतों ने उससे अनुरोध किया था कि वह शिवविग्रह न तोड़े । इसके बदले में वे गजनवी को मुंह मांगी दौलत देने को तैयार थे । लेकिन गजनवी ने दो टूक जवाब दिया था कि वह तवारीख में बुतों का सौदागर नहीं बुतशिकन कहा जाना पसंद करेगा । टिप्पणीकार को महमूद गजनवी की यह बात क्यों याद नहीं आयी इस बारे में सिर्फ कयास लगाया जा सकता है । टिप्पणीकार यह कहकर महमूद गजनवी का बचाव करना चाहता है कि उसने सोमनाथ के अलावा कोई मंदिर नहीं तोड़ा जाहिर है उन्हें इतिहास की आधी अधूरी जानकारी है ।

राम मंदिर तोड़ कर वहां मस्जिद बनाने का काम बाबर के शिया सिपहसालार मीर बाकी ने किया था । इस घटना का विवरण मुस्लिम और यूरोपियन इतिहासकारों ने किया है । मंदिर मस्जिद संघर्ष का लंबा इतिहास है । इसके सम्बन्ध में जो दावे किये गये और मुकद्दमेबाजी हुयी उसकी शुरूआत 19वीं सदी से हो गयी थी ।

टिप्पणीकार का यह कहना भी तथ्यों से परे हैं कि गोस्वामी तुलसीदास के जमाने में ब्राह्मण वर्ग आम बोलचाल की भाषा के रूप में संस्कृत का प्रयोग करते थे । उन्हें भाषा विज्ञान का इतिहास पढ़ना चाहिये । ईसा के जन्म से 600 साल पहले भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था । उनके जीवनकाल में संस्कृत की जगह पालि भाषा आम लागों के चलन में थी । पालि के बाद प्राकृत का प्रचार हुआ । प्राकृत के बाद अपभ्रंशकाल आया और उससे हिन्दी के साथ ही मराठी, गुजराती, जैसी तमाम क्षेत्रीय भाषाओं का का विकास हुआ ।

टिप्पणीकार यह भूल जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास का अवधी में रामचरितमानस लिखने का प्रयोजन किसी मंदिर का इतिहास लेखन नहीं था । वे तो सिर्फ निराश, हताश और दिगभ्रमित हिंदू समुदाय में सबसे ज्यादा प्रचलित लोक भाषा अवधी का सहारा लेकर उसे अपने धर्म पर टिके रहने का आह्नन करना चाहते थे । उनका जीवनकाल मुगल शासन का दौर था । वे ऐसी बातें क्यों लिखते जिससे हिंदू समुदाय को इस्लामी रोष का सामना करना पड़ता ।

गोस्वामी तुलसीदास को कभी जाति बहिष्कृत नहीं किया गया और न ही उन्हें राम मंदिर में जाने से रोका गया । वे मस्जिद मे रहते थे इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है । तुलसीदास की आत्मकथा का जिक्र करके टिप्पणीकार ने हास्यास्पद स्थिति पैदा कर दी है । गोस्वामीजी ने विनय चरितावली नाम का कोई ग्रंथ नहीं लिखा है । उनकी रचना का नाम विनय पत्रिका है । विनय पत्रिका में कवि ने केवल अपने आराध्य श्री राम के प्रति अपनी अविचल भक्ति का वर्णन किया है । उनकी एक रचना का नाम गीतावली है । टिप्पणीकार जल्दबाजी में उसे विनय चरितावली लिखते हैं । गोस्वामी तुलसीदास ने अपने कट्टर आलोचकों को मुंहतोड़ जवाब देने के लिये अपना फक्कड़ और अकिंचन स्वरूप व्यक्त किया था । इस पद में उन्होंने लिखा था

मांग के खाईबो, मसीत में सोईबो ।

टिप्पणीकार ने मसीत की जगह मस्जिद लिख दिया है । सोईबो की जगह रहिबो समझ लिया है । इसमें गलती गोस्वामी जी की नहीं खुद टिप्पणीकार की है । गोस्वामी जी तो अपने आलोचकों को यह बताना चाहते थे कि उन्हें किसी लाभ लोभ की आकांक्षा नहीं है । उन्हें जो भिक्षा में मिल जाता है उसी को प्रसाद समझ कर ग्रहण करते हैं । रात में सोने की जगह नहीं मिले तो मस्जिद में सो जाते हैं । मस्जिद भी पवित्र धार्मिक स्थान हैं इसलिये उसमें किसी भक्त का रात गुजारना यह साबित नहीं करता कि वे मंदिरों से बहिष्कृत थे और मस्जिद में रहते थे ।

यहां महान संत गुरू नानक के एक दोहे का जिक्र करना मुनासिब होगा ।

नानक नान्हे व्हे रहो जैसे नान्हीं दूब ।

और रूख सूख जायेंगे दूब खूब की खूब ।

यह दोहा गुरू नानक ने बाबर के पंजाब पर हमले और उसकी हैवानियत को देख कर कहा था । तुलसी ने भी वही किया । वे जानते थे कि इस्लाम का तूफान एक दिन गुजर जायेगा । इसमें बड़े बड़े पेड़ उखड़ जायेंगे मगर जो झुक कर सब सहन कर लेगा उसका कुछ न होगा ।

लेखक – श्री नरेश मिश्र

ब्लागर मित्रों ऐसी ही कुछ बहस कश्मीर के अलगाववादियों के मानवाधिकार को लेकर मेरी पिछली पोस्ट “कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है“ पर छिड़ी हुयी है । मैं आप सभी प्रबुद्धजनों को इस पोस्ट पर आमंत्रित करता हूं कि आयें और सिंहनाद करें “कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और हम कश्मीर को भारत से कभी अलग नहीं होने देंगे । मुट्ठीभर अलगाववादियों हम भारत के सवा अरब लोग तुम्हारे खिलाफ खड़े हैं ।”

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply