12वीं सदी के प्रारंभ में उरई महोबा के परिहार वंशी नरेशों के शासन के अंतर्गत थी। उरई के तत्कालीन राजा माहिल के बारे में ऐसी किंवदंतियां प्रचलित हैं जिससे उसका व्यक्तित्व बहुत कुटिल प्रतीत हो लेकिन बुजुर्ग इतिहासकार डा. जयदयाल सक्सेना का दावा है कि माहिल जैन धर्म का अनुयायी था और शांति व अहिंसा की नीति का प्रबल समर्थक। इस वजह से भ्रमवश उसके चरित्र का अनुचित मूल्यांकन प्रस्तुत किया जाता है। डा. जयदयाल सक्सेना बताते हैं कि माहिल ने उरई के चारों ओर के वन्य क्षेत्र को आखेट वर्जित क्षेत्र घोषित कर संरक्षित उपवन के रूप में विकसित किया। प्रजा के स्वास्थ्य एवं मनोरंजन को ध्यान में रखकर राजा माहिल ने कई रंग शालायें तथा मल्ल शालायें यहां बनवाई जिनके भग्नावशेष के रूप में रामतलइया व डिग्गीतल क्षेत्र को देखा जा सकता है। उनका कहना है कि नाम में ताल तलइया शब्द इनके जलाशय होने का भ्रम पैदा करते हैं परंतु इनकी संरचना से स्पष्टï है कि यह दोनों रंगशाला तथा मल्ल शाला ही थीं। राम तलइया में तो अभी कुछ दशक पहले तक बसंत पंचमी के मेले पर दंगल का आयोजन होता रहा है। डा. जयदयाल सक्सेना के अनुसार तत्कालीन राजपूत रजवाड़ों की भांति राजा माहिल आत्म केंद्रित और कूप मंडूक नहीं था। उसके 100 वर्ष पहले पूर्व भारत में हुए महमूद गजनवी के लुटेरे धावों से यहां के राजाओं ने कोई सबक नहीं सीखा था। परस्पर संघर्षरत रजवाड़े बाह्यï आक्रमण को रोक पाने में समर्थ न होंगे इस तथ्य को उन्होंने भलीभांति समझ लिया था। इसके बाद आक्रमण रोकने के लिए उन्होंने पृथ्वीराज के नेतृत्व में उत्तर भारत के रजवाड़ों का एक परिसंघ बनाने का निश्चय किया। उनकी नीति और प्रयास इतने सुदृढ़ थे कि सभी राजा उन्हें सुनने समझने को विवश थे। राजसभाओं में उन्हें सम्मान दिया जाता था। उन्हें बैठने के लिए चंदन की चौकी दी जाती थी। किंतु सामंती अहंकार तथा अज्ञानता में डूबे दंभी, कूप मंडूक उनके परामर्श को शीघ्र ही भुला देते थे। माहिल के प्रयास अंततोगत्वा नाकामयाब साबित हुए जिससे इतिहास में उन्हें चुगलखोर, डंडी, घमंडी, उलटी-सीधी भिड़ाने वाला कहकर बदनाम कर दिया गया।
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