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कठिन है ढाई घर की चाल की शह को समझना

मुक्त विचार
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अरुंधति राय का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। प्रतिरोध की संस्कृति को खड़ा करने में उन्होंने जो भूमिका निभाई है उससे उनकी प्रमाणिकता स्वयं सिद्ध है। इन दिनों वे जाति व्यवस्था के खिलाफ बहुत ही तीखे ढंग से मुखर हैं। पहले उन्होंने गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के कार्यक्रम में इस देश में जातिवादी प्रेरणाओं से संचालित मीडिया की कार्यशैली को आड़े हाथों लिया। इसके बाद फारवर्ड प्रेस के देश की राजधानी दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित कार्यक्रम में दलित बुद्धिजीवियों की उपस्थिति में उन्होंने कहा कि जाति व्यवस्था गुलामी और रंगभेद से भी अधिक बदतर है।
बुद्धिजीवियों का एक तबका सोलहवीं लोकसभा चुनाव के पहले से ही यह स्थापित करने की चेष्टा में लगा हुआ है कि नरेंद्र मोदी जैसे महाकाय जननेता के राजनीतिक क्षितिज पर उभरने के साथ ही भारतीय राजनीति एक नए युग में प्रवेश कर गई है जिसमें जातिवादी भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके बाद हाल में कराए गए एक सर्वे से इस तरह के फरेब को और मजबूती देने में मदद मिली। उक्त सर्वे के अनुसार अस्सी प्रतिशत ब्राह्म्ïाण और इससे कुछ कम लेकिन आधे से भी ज्यादा क्षत्रिय अभी भी मोदी को सर्वश्रेष्ठ नेता मानते हैं। जाहिर है कि अगर घनघोर सवर्ण एक बैकवर्ड को अपने जनमानस के सिंहासन पर भी विराजमान किए हुए हैं तो इसका अर्थ यही होना चाहिए कि इस समय जातिवाद को पूरी तरह तिलांजलि दी जा चुकी है किंतु तथ्यों की सरलीकृत व्याख्या से वही लोग गुमराह होते हैं जिन्हें यह पता नहीं है कि भारतीय समाज में सीधी चालें नहीं चली जातीं बल्कि शतरंज की ढाई घर चालें इसका भविष्य तय करती हैं। यह चालें आम तौर पर अदृष्ट रहती हैं जिससे सामने वाला खिलाड़ी का दिमाग आसानी से उसके मोहरे को मिल रही शह को नहीं भांप पाता और इस चूक में उसके मोहरे मात खा जाते हैं।
बौद्ध धर्म के साथ क्या हुआ। इस धर्म में एक समय सुनियोजित ढंग से उन लोगों ने दीक्षा ली जो तथागत बुद्ध के समतावादी उद्घोष के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने बौद्ध धर्म में शामिल होकर इसे खोखला किया। अंततोगत्वा तख्ता पलट में कामयाब होते ही इस धर्म के सर्वनाश के लिए इतने क्रूर दमनकारी विधान चला दिए कि जिनका कोई और तानाशाही शासन सानी नहीं रखता। एक बौद्ध भिक्षु का सिर काट लाने पर एक स्वर्ण मुद्रा इनाम में देने का तालिबानी फरमान दुनिया में सबसे पहले भारत की धरती पर सुना गया। एक ओर भारतीय संस्कृति के बारे में दुहाई दी जाती है कि यह अहिंसा और शांति की सबसे प्रबल पक्षधर है। वहीं इस संस्कृति में धार्मिक कथाएं पूरी तरह भीषण महायुद्धों और रक्तपात से ओतप्रोत हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे किन प्रेरणाओं की निमित्त बनती रही होंगी। ओज और वीर रस के ऐसे संचार में जुटे लोग दयावान हो सकते हैं। यह मानना प्रवंचना ही होगी। यह दूसरी बात है कि मानसिक रूप से हिंसक भावना रखने का मतलब साहसी बन जाना नहीं हो सकता जिसकी वजह से अगर कोई ऐसी भावनाओं को मूर्त रूप देने में इतिहास में सफल नहीं हो पाया है तो इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि वह अहिंसावादी या हिंसा विरोधी है।
बहरहाल यह मार्केटिंग का युग है। पूरी दुनिया में मुनाफाखोरी के लिए जिन हथकंडों को इस्तेमाल किया जाता है उनमें धार्मिक साहित्य में उल्लिखित मायावी युद्ध के मिथक का साकार रूप देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न्यायाधीशों के सम्मेलन में न्याय पालिका से एनजीओ द्वारा दायर कराई जाने वाली जनहित याचिकाओं में धारणा के आधार पर फैसले देने से बचने की जो गुजारिश की थी उसके पीछे मायावी युद्ध के प्रहारों का संत्रास उनकी जुबान से व्यक्त हो रहा था। एनजीओ के माध्यम से किसी दूसरे देश में औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा अपने ही हितों के विरुद्ध नीतियां बनाने का माहौल तैयार किया जाता है ताकि उपनिवेशवादी शक्तियों के स्वार्थों और हितों की पूर्ति हो सके। भारत में विवेकवान लोग हाल के कुछ दशकों में परंपरागत नैतिक धारणाओं के विरुद्ध हुए अनर्थकारी बदलावों के साक्षी हैं लेकिन वितंडावाद इस ढंग से घटाटोप बनाता है कि विवेकवान लोग असहाय हो जाते हैं और जनता में उनके सचेत करने के प्रयासों का कोई असर नहीं होता। भारत की जातिवादी शक्तियां तो इसमें पहले से ही निष्णाथ हैं इसलिए देशकाल के हिसाब से अपने ढांचे की रक्षा के लिए रंग बदलने में उनका कोई जवाब नहीं है। मोदी की जाति क्या है इसका कोई मतलब नहीं है। समझने वाली बात यह है कि उन्हें संचालित करने वाली वर्गीय शक्तियां कौन सी हैं। संघ परिवार में उन्हें जो दीक्षा मिली है उसके संस्कारों के वशीभूत वे संस्कृति के नाम पर उन विचारों और कर्मकांडों से सम्मोहित हैं जिनकी सशरीर परिणति जातिगत ऊंचनीच की विषैली भावनाएं समाज में सहज रूप में इंजक्ट करने की होती है।
वर्ण व्यवस्था कुछ लोगों की सामाजिक सत्ता का निर्माण करती है और हर सत्ता की तरह यह सत्ता भी संक्रमणकाल में उन लोगों की शिनाख्त करने में सक्षम है जो उत्पीडि़त वर्ग से होकर भी उनके लिए विभीषण के रूप में इस्तेमाल हो सकेें। रूप के आधार पर चरित्र का निर्धारण नहीं होता असल महत्व तासीर रखती है। बर्फ इसका उदाहरण है जो रूपगत आधार पर ठंडी होती है लेकिन उसका प्रभाव शरीर में गर्मी पैदा करने वाला होता है। डा. राममनोहर लोहिया ने पिछड़ों में बांधी गांठ सौ में पावें साठ का नारा दिया था। डा. लोहिया स्वयं सवर्ण थे और उनकी यह धारणा बिल्कुल नहीं थी कि वे जातिगत पिरामिड को उल्टा करें ताकि उत्पीडि़त वर्ग को सवर्णों से इतिहास में हुए अन्याय का बदला लेने का मौका मिल सके। फ्रांस की राज्य क्रांति के विचारों और लोकतांत्रिक समाजवाद की धारणाओं के प्रभाव में होने की वजह से उनके मन में भारत को आदर्श राष्ट्र राज के रूप में ढालने के जो सपने थे उसमें वर्ण व्यवस्था उन्हें सबसे बड़ी रुकावट लगती थी। इस कारण वे सत्ता में सर्व प्रतिनिधित्व पूर्ण व्यवस्था बनाना चाहते थे ताकि जातिगत विशेषाधिकारों का कोई महत्व न रह जाए लेकिन उनके आंदोलन के प्रभाव से मुलायम सिंह जैसे जो नेता सत्ता के शिखर पर पहुंचे उन्होंने इस मंतव्य को पूरा करने की बजाय जातिवादी किले को और मजबूती प्रदान करने में भूमिका अदा की। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह का प्रभाव इसलिए लगातार मजबूत नहीं हुआ कि उनके साथ सारे पिछड़े गोलबंद थे। उनके बार-बार सत्ता में पहुंचने में सवर्ण समर्थन ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने से वर्ण व्यवस्था के दुर्ग में जो प्रकंपन पैदा हुआ था उसे शांत करने में मुलायम सिंह ने उस कालखंड में जाने अनजाने में बहुत प्रभावी भूमिका निभाई थी। इसके बाद वर्ण व्यवस्थावादी शक्तियों ने उन्हें इस्तेमाल करने की गुंजायश भांप ली। मुलायम सिंह ने जब बसपा के साथ गठबंधन करके प्रदेश विधान सभा चुनाव लडऩे का फैसला किया था उस समय सतही व्याख्या कारों को यह गलतफहमी हो गई थी कि वर्ण व्यवस्था का निर्णायक अंत उनका मकसद है। हालांकि वर्ण व्यवस्थावादी ताकतें उस समय भी जानती थीं कि यह समझौता अल्पकालिक है और ऐसा ही हुआ। मुलायम सिंह ही नहीं आज पक्ष में हों या विपक्ष में अधिकांश पिछड़े वर्ग के नेता जजमानी का अधिकार पाकर वर्ण व्यवस्था से लडऩे की बजाय उसका पोषण करने में अपने को कृतार्थ समझ रहे हैं।
वैसे तो मायावती जैसी दलित नेता भी निर्णायक अवसर पर पक्षद्रोह के लिए कलंकित हो चुकी हैं लेकिन वर्ण व्यवस्था के अलंबरदारों के लिए पिछड़ी जातियों का समाज उतना बड़ा खतरा नहीं है जितना दलित जातियां हैं। दलित मुक्ति आंदोलन की लंबी परंपरा में इस समुदाय ने अपने वैकल्पिक प्रतीक, धर्म, साहित्य व महापुरुष विकसित कर लिए हैं। इस तरह से वे वर्ण व्यवस्था से अलगाव में काफी दूर तक जा चुके हैं जबकि पिछड़ों के साथ ऐसा नहीं है क्योंकि उन्होंने अपने को ऐसी वैकल्पिक आस्थाओं से नहीं जोड़ा जिसकी वजह से परंपरागत आस्थाओं में अपने को गर्क कर लेना उनकी नियति साबित हुई। आज हाल यह है कि वे वर्ण व्यवस्था की रक्षक सेना के सेनापति बनकर दलितों के दमन में प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में पदोन्नति में आरक्षण समाप्त करने जैसा कदम इसका उदाहरण है। दूसरी ओर भारत सरकार के सचिवों और राज्यपालों आदि की नियुक्तियों में मोदी सरकार द्वारा दलितों की उपेक्षा भी इसी प्रभाव के परिणाम के रूप में देखी जा रही है। वर्तमान राजनीतिक परिवेश में दलित निरंतर हाशिए की ओर खिसकते जा रहे हैं। यह एक हकीकत है।
कोंस्टीट्यूशनल क्लब की ऊपर उल्लिखित गोष्ठी का विषय था दलित साहित्य और अन्याय जनित क्रोध से वर्ण व्यवस्था का मुकाबला लेकिन इसमें अरुंधति राय ने यह भी कहा कि न्याय भावना का जो सौंदर्य है क्रोध में उससे परे होकर प्रतिक्रियावाद को हावी होने से बचना होगा ताकि किसी तरह के बौनेपन की झलक आप लोगों के आचरण में उत्पन्न न हो पाए। अरुंधति राय की इस सलाह पर भी गौर किया जाना चाहिए। वर्ण व्यवस्था के उन्मूलन के पीछे कानून के शासन की मनोभूमि राष्ट्रीय जनमानस में निर्मित करने का लक्ष्य सर्वोपरि रखा जाए तभी यह जद्दोजहद रचनात्मक क्रांति के रूप में फलित होना संभव है।

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