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क्या आसानी से मिल जाएगा सूर्यप्रताप को वीआरएस

मुक्त विचार
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उत्तर प्रदेश के चर्चित आईएएस अधिकारी डा. सूर्यप्रताप सिंह ने प्रदेश के मुख्य सचिव को चिट्ठी लिखकर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवेदन कर दिया है। उनका आवेदन एक दो पैरा या पन्नों का नहीं है बल्कि सात पृष्ठों में उन्होंने प्रदेश की मौजूदा सरकार से अपनी तल्खी को इसमें बयान किया है जिससे उनकी भावी योजना का पता चलता है। यह दूसरी बात है कि उनका आवेदन आसानी से मंजूर हो जाएगा या उन्हें इसके पहले बहुत कुछ भुगतना पड़ेगा।
डा. सूर्यप्रताप सिंह के बागी तेवरों से राज्य की अखिलेश सरकार परेशान थी लेकिन सरकारी सेवा में रहते हुए वे जो कर रहे थे वह भी पूरी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। हालांकि लोकसेवक को भी व्यवस्था की खामियों के प्रति आवाज उठाने का अधिकार है और एक संवेदनशील लोकसेवक को ऐसा करना भी चाहिए लेकिन नैतिक और वैधानिक रूप से वह कई सीमाओं में बंधा होता है। इन मर्यादाओं का पालन भी जरूरी है इसलिए सूर्यप्रताप सिंह का उद्धत रवैया बहुत लोगों के गले नहीं उतर रहा था। सरकार के लोग तो यह आरोप लगा ही रहे थे कि सूर्यप्रताप सिंह अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के तहत जानबूझकर सरकार को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं इसलिए अगर उनके मन में व्यवस्था को बदलने की इतनी ही हूक उठ चुकी थी तो सरफरोशी की तमन्ना के साथ उन्हें पहले ही नौकरी छोड़ देनी चाहिए थी। बहरहाल देर आयद दुरुस्त आयद यह अच्छा हुआ कि उन्होंने आखिर यह कदम उठा लिया।
1982 बैच के आईएएस डा. सूर्यप्रताप सिंह कई वर्षों तक विदेश में रहने के बाद जब प्रदेश में लौटे तो मौजूदा सरकार का रुख उनके प्रति सकारात्मक था लेकिन जब उन्होंने प्रमुख सचिव औद्योगिक विकास के रूप में पार्टी विशेष की बजाय सरकार के हितों के अनुरूप काम करना शुरू किया और अच्छी पोस्टिंग की वजह से सत्तारूढ़ पार्टी की कठपुतली बनने के दबाव का प्रतिरोध किया तो वे सरकार की नजरों से उतर गए। इसके बाद प्रमुख सचिव माध्यमिक शिक्षा के रूप में बोर्ड परीक्षाओं के दौरान नकल व अन्य गड़बड़ी न होने देने के लिए उन्होंने सख्त तेवर दिखाए तो सरकार उनसे और चिढ़ गई। जिस अधिकारी को पहले अखिलेश यादव अपना प्रधान सचिव बनाने जा रहे थे उसे सार्वजनिक उद्यम ब्यूरो के प्रमुख सचिव जैसे जलावतन वाले पद पर फेेंक दिया गया। इसी के बाद सूर्यप्रताप सिंह ने सरकार की खुली मुखालफत शुरू की और इसके लिए वे विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने तक से नहीं हिचकिचाए इसलिए वे विवादों के केेंद्र में भी आ गए।
उन्हें इशारे से कई बार हद में रहने का संकेत किया गया लेकिन वे नहीं माने। जब अमिताभ ठाकुर पर कार्रवाई की तलवार लटकाई गई उसके बाद सूर्यप्रताप सिंह को भी राज्य सरकार ने कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया। एक समय था जब कांग्रेस के शासनकाल में आईएएस अधिकारियों की सरकार से असंतोष की खबरें फैलती थी तो सरकार विचलित हो जाती थी और आईएएस लाबी को मनाने में उसे जुट जाना पड़ता था। मुझे मध्य प्रदेश के अपने छात्र जीवन के दिनों की याद है जब मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह थे और एक बार राज्य के प्रमुख हिंदी दैनिक भास्कर में उनके खिलाफ चालीस आईएएस अधिकारियों द्वारा बैठक करने की खबर सुर्खियों में छप गई थी। नतीजतन अर्जुन सिंह घबड़ाकर तत्काल उन्हें साधने में जुट गए थे। उत्तर प्रदेश में भी कमोवेश यही स्थिति थी लेकिन मुलायम सिंह और मायावती के राज्य में उनका यह रुतबा बहुत फीका पड़ गया। कुछ तो बात यह थी कि जब मुलायम सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने तो जनता पार्टी के शासन के तजुर्बे से उनके मन में यह बात रही कि नौकरशाही मूल रूप से अपने को कांग्रेसी समझती है। इस वजह से वह उनका सहयोग करने को तब तक तैयार नहीं होगी जब तक कि उसको इतना जलील न किया जाए कि वह लंबलेट होने की मानसिकता बना ले। मुलायम सिंह ने आईएएस सहित पूरी उच्च नौकरशाही को रीढ़ विहीन बनाने में काफी हद तक सफलता प्राप्त की। मायावती ने आईएएस अधिकारियों को सार्वजनिक रूप से इसलिए बेइज्जत किया क्योंकि औपनिवेशिक मानसिकता की वजह से यह अधिकारी जिसे वास्तव में जनता कहा जाता है उसके साथ होने वाले अन्याय के निवारण की बात तो दूर उसकी बात सुनने तक की उपेक्षा करते थे और यह आम जनता उनकी वोटर थी। आईएएस अधिकारियों को बेइज्जत करके उन्होंने अपने इस वोटर क्लास की प्रतिशोध ग्रंथि को तृप्त किया जो उनके लिए राजनीतिक बढ़त लेने का बड़ा औजार साबित हुआ लेकिन जब स्टील फ्रेम कहे जाने वाले आईएएस अधिकारी तक बिना रीढ़ के हो गए तो उन्होंने अपना रोल बदल लिया। आईएएस अधिकारियों के पास बजट है और नीतिगत फैसले लेने की ताकत। उन्होंने नेताओं को सिखाया कि किस तरह फर्जी और कागजी योजनाओं के जरिए सरकारी खजाने में डकैती डालकर वे और नेता जी अपना घर भर सकते हैं। बसपा नेता बाबू सिंह कुशवाहा ने एनआरएचएम में घोटालों का जो कमाल दिखाया वह औसत से भी कम की बौद्धिक हैसियत वाले उन जैसे नेता के लिए संभव नहीं था। अगर अपने बैच के टापर रहे प्रदीप शुक्ला जैसे आईएएस इस मामले में मार्गदर्शन करने के लिए उन्हें न मिले होते। कानून के शासन के यह स्टील फ्रेम ही कानून का भट्टा अदालतों आदि सबको चकमा देकर बिठाने में नेताओं के मार्गदाता बने। इसी कारण बाद के कार्यकाल में दूसरे संवर्गों की तुलना में चाहे मुलायम सिंह हों या मायावती आईएएस अधिकारियों के प्रति काफी नरम हो गए बल्कि कहा जाए तो मायावती के राज्य में तो आईएएस अधिकारी ही सरकार के असली सूत्रधार बन गए थे।
सूर्यप्रताप सिंह को काफी समय विदेश में रहने की वजह से देश और अपने प्रदेश में आए बड़े परिवर्तनों की भनक नहीं थी। कांग्रेस की सरकार में असुविधाजनक स्थिति होने पर चालीस पचास आईएएस अधिकारी एक साथ बैठक कर सकते थे लेकिन आज आईएएस एसोसिएशन तक की यह हिम्मत नहीं है कि अगर व्यक्तिगत रूप से मुख्यमंत्री उनके संवर्ग के किसी अधिकारी से नाराज हैं तो उसके साथ होने वाले अन्याय को लेकर औपचारिक ज्ञापन तक दे सके। सूर्यप्रताप सिंह ने अगर बगावत आईएएस संवर्ग की पूर्व स्थिति की गलतफहमी में शुरू की थी तो उन्हें अब तक एहसास हो ही गया होगा कि उनका संवर्ग वर्तमान में कितना पिलपिला और कमजोर है। यही नहीं जनता को भी इस संवर्ग से हमदर्दी न होकर हिकारत जैसी है। जब कानून का शासन अर्थहीन होता है तभी लोकतंत्र में लोग माफियाओं और गुंडों की शरण में रहना पसंद करते हैं। जैसा कि इस देश में हो रहा है। इसी तरह जब अधिकारी लोगों के न्यायोचित काम तक सीधे करना गवारा नहीं करते और सिर्फ भड़ुआ, दलाल व नेताओं के पिट्ठुओं से घिरे रहते हैं तो आम लोगों के लिए नेता पर विश्वास करना मजबूरी बन जाता है। भले ही वह नेता भ्रष्ट हो। राजनीति के अपराधीकरण में विश्वास रखता हो और मनमानी करता हो। आज ऐसे लोगों का चुनाव में निर्वाचित होना और उनकी सरकारें बनने की मुख्य वजह यही है।
हो सकता है कि सूर्यप्रताप सिंह इसमें अपवाद हों लेकिन अमिताभ ठाकुर या उनके लिए लोग कहीं खड़े हो रहे हों यह भी नहीं दिखाई दे रहा जबकि अतीत में जब अच्छे अफसरों को सरकार ने प्रताडि़त किया तो जनता सड़कों पर आ गई और उसने सरकार विरोधी प्रदर्शन करने में कोताही नहीं की। इसके बावजूद सूर्यप्रताप सिंह ने जो आरोप पत्र वीआरएस के आवेदन के बहाने पेेश किया है उसमें लोगों को उद्वेलित करने की क्षमता है। इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता। इस सरकार में सबसे बड़ी कमी डिप्लोमैसी का न होना है जिसकी वजह से सलीके से जिन स्थितियों से वह निपट सकती है उनमें भी वह उजड्डपन का सहारा लेने से नहीं चूकती जिससे अंदर ही अंदर मौजूदा राज्य सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के प्रति जनभावनाएं बहुत विरुद्ध होती जा रही हैं। सूर्यप्रताप सिंह ने कहा है कि आज कोई सत्ता पक्ष की मनमानी के खिलाफ आवाज नहीं उठाना चाहता तो उसकी वजह यह है कि उसे सबक सिखाने का एक नया तरीका जिंदा जलाकर मार डालने के रूप में विकसित कर लिया गया है। आम लोगों को हाल में हुई कुछ घटनाओं की वजह से उनका यह आरोप निश्चित रूप से अंदर तक छुएगा। उन्होंने एक जाति विशेष के लोगों की सरकारी सेवाओं में सारे नियम कानून ताक पर रखकर भर्ती पर भी लोगों को उकसाने की कोशिश की है। यह मुद्दा भी सरकार के विरोध में काफी तूल पकड़ चुका है जिससे सूर्यप्रताप सिंह का इस आरोप को और बल देना सरकार का बहुत नुकसान करेगा लेकिन सच यह है कि प्रतियोगी सेवाओं में चयन से लेकर पोस्टिंग देने तक में जातिवाद पहले से ही काम करता रहा है बल्कि देखा तो यह गया है कि काफी लंबे समय तक यादवों को इस मानसिकता की वजह से भेदभाव झेलना पड़ा। मुझे प्रदेश के पहले यादव आईपीएस अधिकारी के बारे में मालूम है जिन्हें पूरी काबलियत होते हुए भी काफी लंबी सेवा अवधि तक जिले का कप्तान बनाने की जरूरत नहीं समझी गई थी। अगर वीरबहादुर सिंह के मुख्यमंत्री बनने पर उनके अपने कारणों से परिस्थितियां न बदली होती तो शायद वे सिलेक्शन ग्रेड में पहुंच जाने के बाद किसी छोटे मोटे जिले में छह महीने एक साल के लिए एसपी बनाकर निपटा दिए गए होते जबकि जब उन्हें काम दिखाने का अवसर मिला तो वे बेहद बेहतर कप्तान साबित हुए। आज अगर अखिलेश की सरकार नौकरियों में पक्षपात कर रही है तो यह हमारी प्राचीन परंपरा की देन है। इसमें केवल पक्षपात करने वाले और पक्षपात के शिकार होने वाले लोगों की जगह बदल गई है।
फिर भी सूर्यप्रताप सिंह की बगावत एक आशा जगाती है। राजनीतिक स्तर पर तो सिस्टम सुधारने के लिए वैकल्पिक व्यवस्था के नारे के साथ कोई नया आगाज होने की संभावना नजर आ नहीं रही थी लेकिन आईएएस जैसा संवर्ग जिसमें सर्वोच्च मेधा शामिल होती है अगर उससे जुड़ा कोई शख्स यह पहल कर रहा है तो हो सकता है कि वह बड़ी असरदार साबित हो। हालांकि पहले तो सूर्यप्रताप सिंह के बारे में यह देखना पड़ेगा कि वे आसानी से सरकारी सेवा के बंधन से मुक्त हो पाते हैं या नहीं। इसके बाद अगर सूर्यप्रताप सिंह को सार्वजनिक जीवन में मौका मिलता है तो फिर उन्हें यह दिखाना पड़ेगा कि वे सपा द्वारा सत्ता के दुरुपयोग को लेकर जितने नाराज हैं उतनी ही नाराजगी दूसरे लोगों के प्रति भी दिखा पाते हैं या नहीं। सूर्यप्रताप सिंह अकेले आईएएस नहीं हैं जो शहीद बनकर राजनीतिक नायक का दर्जा पाने में सफल हो गए हों। फैजाबाद के आजादी के तत्काल बाद के कलेक्टर साहब नैयर का उदाहरण इस मामले में सामने है जो एक धार्मिक षड््यंत्र करके बाद में सरकारी नौकरी छोड़कर संसद में पहुंचने में सफल हो गए। हालांकि बाद में साबित हुआ कि उन्होंने सिर्फ व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के लिए ऐसा किया था इसीलिए राजनीति में आने के बाद उनके योगदान का आज तक किसी को पता नहीं है। अयोध्या में विवादित स्थल को तोडऩे के दौरान फैजाबाद के एसएसपी रहे राय साहब भी सांसद बनने के बाद रामराज कायम करने में कितनी भूमिका निभा पाए यह सबके सामने उजागर है लेकिन उत्तर प्रदेश में पिछले डेढ़ दशक में नौकरशाही व राजनीतिज्ञों का रिश्तों के नए आयामों से यह बात जरूर एक मुद्दा बनने लायक हो गई है कि अधिकारी मंत्रियों के नीचे जरूर हैं लेकिन उनके व्यक्तिगत कारिंदे नहीं हैं। उनके साथ अशिष्ट व्यवहार की नेताओं की बढ़ती सीमा ने स्थितियों को बहुत विकृत कर दिया है। अगर जनप्रतिनिधि लोगों द्वारा चुने जाने की वजह से सम्मानीय हैं तो नौकरशाह भी बौद्धिक प्रतिस्पद्र्धा में अपने को अग्रणी साबित करके सेवा में आते हैं जिसकी वजह से उनका सम्मान भी कम नहीं है। साथ साथ अधिकारी भी नागरिकता के मामले में किसी भी नेता के बराबर हैं इसलिए उनके बीच में एक संतुलित रिश्ता होना चाहिए। नेता राजा हैं और अधिकारी सिर्फ उनके नौकर। यह अवधारणा लोकतंत्र के विरुद्ध है। वास्तविकता यह है कि शासन के दोनों अंगों के बीच रिश्ते को कामरेड शिप के दायरे में व्यवहृत करने की जरूरत है तभी बेहतर शासन यानी गुड गर्वनेंस की कल्पना की जा सकती है।

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