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खुद अपनी फजीहत करा रही उत्तर प्रदेश सरकार

मुक्त विचार
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उत्तर प्रदेश सरकार के लिए अपनी ही करतूतों से फजीहत का एक नया कारण प्रदेश लोक सेवा आयोग के गठन में की गई मनमानी पर उच्च न्यायालय के जवाब तलब से पैदा हो गया है। आयोग में अध्यक्ष से लेकर सदस्यों तक की नियुक्ति उनकी योग्यता के किस पैमाने के आधार पर की गई यह बात राज्य सरकार स्पष्ट नहीं कर पा रही है। राज्यपाल की तरह उच्च न्यायालय के बारे में कोई अशोभनीय टिप्पणी नहीं की जा सकती वरना प्रो. रामगोपाल यादव उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की गरिमा पर प्रवचन करने से भी नहीं चूकते।
भारतीय संविधान में शक्तियों के विकेेंद्रीकरण के सिद्धांत को सर्वोपरि महत्व दिया गया है इसलिए चेक एंड बैलेंस के कई चैनल व्यवस्था के सभी स्तंभों के लिए हमारे लोकतंत्र में हैं। हर संस्था को मनमानी करने की बजाय नियमों और परंपराओं के मुताबिक ही कार्य करना चाहिए। वैसे तो कमोवेश लगभग सभी पार्टियां मनमानी की कोशिश करती हैं लेकिन लोक दल परिवार की पार्टियां हठधर्मिता की सारी सीमाएं पार कर देती हैं। विधान परिषद के लिए मनोनयन में राज्यपाल ने जिस आधार पर आपत्ति लगाकर नाम वापस किए थे उसके बाद अगर राज्य सरकार अपनी सूची सुधार कर नए नाम प्रस्तावित कर देती तो बखेड़ा खत्म हो जाता लेकिन समाजवादी पार्टी को यह लग रहा है कि जैसे इस देश में लोकतंत्र न होकर राजतंत्र चल रहा है जिसकी वजह से किसी भी संवैधानिक संस्था द्वारा अपने कार्यों पर उंगली उठाना उसे बर्दाश्त नहीं है। यही वजह है कि अभी तक किसी तरह संयम धारण करके मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह राज्यपाल की कार्यप्रणाली से असुविधा महसूस करते हुए भी अपने व्यक्तिगत संबंध मधुर होने की बात बनावटी तौर पर कह रहे थे लेकिन स्वेच्छाचारी मानसिकता की वजह से उनका धैर्य जल्द ही चुक जाना अवश्यंभावी था इसीलिए गत दिनों अचानक सपा के महासचिव रामगोपाल यादव ने राज्यपाल पर अचानक ऐसा हमला बोला कि लोग भौचक्क रह गए। उन्होंने कहा कि राज्यपाल को महामहिम कहने में अब शर्म आने लगी है। वे यहीं तक नहीं रुके बल्कि उन्होंने संवैधानिक पद की मर्यादा को तार-तार करने की पराकाष्ठा करते हुए केेंद्र सरकार को यह सलाह दे डाली कि वह राज्यपाल से इस्तीफा लेकर उन्हें आगामी विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का उम्मीदवार घोषित कर दे ताकि वे पूरी बेशर्मी के साथ राजनीति कर सकेें।
पर चेक एंड बैलेंस का काम करने वाली संस्थाओं में अकेले राज्यपाल और राष्ट्रपति ही नहीं हैं। रूल आफ ला की सीमाओं को लांघने पर कई और संस्थाएं हैं जो जवाब तलब के लिए तैयार बैठी हैं। कुछ ही दिन पहले उच्चतम न्यायालय ने राज्य में वर्तमान लोकायुक्त को असंवैधानिक तरीके से पद पर अनंतकाल तक बनाए रखने के राज्य सरकार के निश्चय को लेकर कड़ी टिप्पणियां की थी जिससे राज्य सरकार की प्रतिष्ठा बेहद धूमिल हुई थी। इसके बाद राज्य लोक सेवा आयोग के गठन में की गई मनमानी पर उच्च न्यायालय की नाराजगी का मसला सामने आ गया। राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष अनिल यादव की ही अकादमिक योग्यता संदिग्ध है। इसके अलावा चार में से तीन सदस्य भी बेहद साधारण योग्यता के हैं। राज्य कैडर के सर्वोच्च पदों का चयन करने वाली समिति की यह हालत बेहद खेदजनक है।
अखिलेश सरकार ने विकास के एजेंडे के आधार पर काम करते हुए लोगों का दिल जीतने की ख्वाहिश कई बार जाहिर की और लखनऊ में मेट्रो शुरू करने व आगरा लखनऊ एक्सप्रेस वे जैसी परियोजनाओं के कारण मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को प्रमुख लोगों की सराहना भी मिली। एक युवा मुख्यमंत्री से यह आशा की जाती थी कि वे परंपरागत राजनीतिक हथकंडों से निजात पाकर आधुनिक एजेंडे के आधार पर काम करेंगे जिससे उन्हें राजनीतिक बढ़त मिलना तय माना जा रहा था लेकिन लगता है कि सपा अपनी कमजोरियों से न उबर पाने के लिए अभिशप्त है और उक्त विवाद ने अखिलेश सरकार की विकासवादी मेहनत पर फिलहाल तो काफी हद तक पानी फेर दिया है।

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