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चंडीगढ़ नगर निगम के चुनाव का नतीजा क्यों है हैरतअंगेज?

मुक्त विचार
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नोटबंदी के बाद हुए तमाम चुनावों में भाजपा को बढ़त मिली है। ताजा चुनाव नतीजे चंडीगढ़ नगर निगम के हैं। जिनमें भाजपा ने 26 में से 21 सीटों पर कामयाबी हासिल की है। भाजपा की सफलता का ग्राफ यह दर्शाता है कि नोटबंदी के अचानक लिए गए फैसले से बुद्धिजीवियों को इसमें सरकार की नीयत पर कितना ही संदेह दिखता हो लेकिन आम जनता इस फैसले की व्यवस्थाओं के कारण परेशान होने के बावजूद कहीं न कहीं यह मान रही है कि मोदी ईमानदार हैं और उन्होंने बेईमानों को सबक सिखाने के लिए यह कदम उठाया है। जिसके पूरे नतीजे आने का इंतजार किया जाना चाहिए। नोटबंदी के नतीजों की तार्किक परिणति भोले-भाले लोगों की निगाह में यह होने वाली है कि इससे बेईमानी की व्यवस्था का लगभग अंत हो जाएगा और ईमानदार व काम करने वाले लोगों को उनके परिश्रम व निष्ठा का पूरा सिला मिलेगा।
लोगों का यह विश्वास कितना सही है, इस पर इन पंक्तियों के लेखक तक को संदेह है, लेकिन इससे एक बात फिर पुष्ट हुई है कि व्यवस्थागत कारणों से भ्रष्टाचार की गंदगी समाज के अंतिम छोर पर खड़े लोगों तक पहुंच जाने के बावजूद समाज की सामूहिक चेतना अंततोगत्वा ईमानदारी के पक्ष में कल भी थी और आज भी है। यह तो पहले ही देखा जा चुका है कि डकैतों के गैंग तक में वे ही सरगना सर्वाइब कर पाए हैं जिन्होंने लूट और फिरौती की रकम के बंटवारे में एक मानक निर्धारित किया है। जिन सरगनाओं ने सब कुछ खुद हड़प जाने की नीति अख्तियार की वे बहुत दिनों तक अपना वजूद नहीं बनाए रख सके। कहने का मतलब यह है कि डकैतों के गिरोह तक में ईमानदारी की जरूरत होती है तो इससे मुख्यधारा की व्यवस्था की अपेक्षाएं परे कैसे हो सकती हैं।
इसे देखते हुए नोटबंदी की वजह से उत्पन्न समस्याओं को लेकर विपक्षी दल अगर यह मुगालता पाले हुए हैं कि इससे भाजपा को भारी नुकसान पहुंचने वाला है तो वे मुगालते में हैं। ज्यादा सम्भावना इसकी है कि उत्तर प्रदेश सहित सभी राज्यों में जहां चुनाव होने हैं, सर्जिकल स्ट्राइक और उसके बाद नोटबंदी जैसे नाटकीय कदम की वजह से भाजपा को आश्चर्यजनक सफलता मिलने वाली है। इसे लेकर भाजपा विरोधी दलों को अपनी रणनीति पर चिंतन-मनन जरूर करना चाहिए।
इन पंक्तियों का लेखक अपने पहले के ब्लॉग में भी यह कह चुका है कि भारतीय मानस धन्ना सेठों के खिलाफ नहीं है। भले ही उनके पास दौलत का जखीरा होने को लेकर कितना भी खतरा क्यों न जताया जाए। भारतीय संस्कार और मिथक ऐसे हैं जिससे देशी जनमानस यह मानता है कि अगर किसी के पास जरूरत से ज्यादा समृद्धि आ गई है तो इसके पीछे कोई अपराध नहीं उसका भाग्य है। लेकिन आज अगर उसके मन में तथाकथित काले धन के खिलाफ विद्रोह की कोई भावना है तो उसकी वजह यह है कि गवर्नेंस का स्तर आजादी के बाद के समय में लगातार बहुत खराब हुआ है। किसी नार्म्स पर प्रशासन, शासन और न्याय की प्रणाली काम नहीं करती। या तो फैसले तुष्टिकरण के आधार पर लिए जाते हैं अथवा सुविधा शुल्क चीजों को तय करता है। यह दोनों ही चीजें जनता को बहुत नागवार गुजर रही हैं। उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार भले ही न आई हो लेकिन हिंदू हो या मुसलमान दोनों ने ही मायावती की नार्म्स के आधार पर फैसले करने की नीति को पसंद किया है। स्पष्ट है कि लोग तुष्टिकरण को बहुत महत्व नहीं देंगे। अगर नीति नियम के आधार पर बिना किसी पक्षपात के फैसले लेने और लागू करने की भावना दिखाई जाए।
मोदी ने बार-बार यह आभास दिलाया है कि वे गवर्नेंस को पटरी पर लाना चाहते हैं। हालांकि व्यवहारिक स्तर पर देखा जाए तो इस मामले में उनके प्रयासों की सार्थकता लगभग शून्य है लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि काम करने से ज्यादा महत्व इस बात का है कि यह दिखाया जाए कि आप काम करते हैं और बहुत ज्यादा काम करते हैं। मोदी इस मामले में मास्टर हैं। उन्होंने यह दिखा पाने में सफलता प्राप्त की है। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन पर यह ठप्पा था कि वे मुसलमानों को उनकी औकात में रखने में सक्षम नेता हैं। आज भी मुस्लिम समुदाय उनको लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है लेकिन मोदी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी के रूप में जो कार्यशैली अख्तियार की है उसमें इस बात की पूरी सतर्कता नजर आती है कि किसी कौम को अतिरिक्त प्रोत्साहन देने या किसी कौम के प्रति दुराग्रह का भाव उनके काम करने में परिलक्षित न हो। इसीलिए मुसलमानों में भी उनके प्रति पहले जैसी तिक्तता नहीं रह गई है।
दूसरी ओर तुष्टिकरण के तमाम प्रयासों के बावजूद कांग्रेस सहित अन्य भाजपा विरोधी दलों ने नीति संगत और तर्कसंगत कार्यप्रणाली के तहत आगे बढ़ने के मामले में बहुत बड़ी चूक की है। उनके शासनकाल में हमेशा यह धारणा बनी है कि वे मनमाने तरीके से काम करने और फैसले लेने के आदी हो चुके हैं और इस ठप्पे को अपनी छवि से हटाने का बहुत ज्यादा प्रयास ये दल अभी तक नहीं कर पाये हैं। इसके अलावा सपा हो या बसपा, इनका अस्तित्व एक खास प्रतिबद्धता के नाते है पर दोनों ही दलों ने इस मामले में भारी बेईमानी की जिससे इनकी विश्वसनीयता समाप्त हो चुकी है। बसपा में पैसे लेकर जनरल कास्ट के किसी भी उम्मीदवार को भले ही वह कितना भी दलित और सामाजिक न्याय का विरोधी क्यों न हो, टिकट दिया जा सकता है। बसपा में जनरल कास्ट के जो शीर्ष नेता हैं बहनजी के सामने भले ही वे हैसियत में रहते हों लेकिन एससी के अन्य लोगों के प्रति उनके मन में पूर्ववत मनुवादी विचार हावी हैं। इसलिए बसपा की वैचारिक स्तर पर साख समाप्त हो चुकी है। उसके पास एक वोट बैंक है इसलिए सत्ता केंद्रों में उसे इग्नोर भले ही न किया जाता हो लेकिन वर्चस्ववादियों को यह भलीभांति इलहाम है कि बसपा खोखली हो चुकी है। जनता उसके साथ नहीं है और यह सच भी है।
दूसरी ओर सपा का हाल भी बहुत अच्छा नहीं है। लोहियावाद का बहुत ज्यादा राग छेड़ना उसे काफी भारी पड़ रहा है। वजह यह है कि लोहियावाद का जब जिक्र होता है तो लोगों का माइंडसेट वंशवादी व्यवस्था के खिलाफ उभरने लगता है जबकि समाजवादी पार्टी से ज्यादा वंशवाद कहां हो सकता है। भ्रष्टाचार और नॉन गवर्नेंस के मामले में तो समाजवादी पार्टी बहुजन समाज पार्टी तक से बहुत आगे है जो उसकी कलंकित छवि का बड़ा कारण सिद्ध हो रहा है। जहां तक कांग्रेस की बात है, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में उसका संगठनात्मक वजूद कभी का समाप्त हो चुका है। कांग्रेस के उत्तर प्रदेश में लगभग सभी प्रमुख नेता या तो समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी के हित और स्वार्थ साधन के मद्देनजर काम करते हैं। इसलिए कांग्रेस के इस प्रदेश में उबर पाने के आसार खत्म हो चुके हैं। हालांकि यह स्थिति प्रदेश में भाजपा की भी थी लेकिन नोटबंदी जैसे असाधारण फैसले ऐसी हालत में किसी राजनीतिक पार्टी के लिए कोरामिन इंजेक्शन बन जाते हैं। यह बात मोदी को भलीभांति पता है लेकिन कांग्रेस हाईकमान को नहीं।
बहरहाल अगर सियासी मंजर यही रहा तो विधानसभाओं के चुनावों के अगले दौर में विपक्षी पार्टियां खरगोश और कछुए की दौड़ की कहानी की मिसाल बनकर रह जाएंगी। इसलिए उन्हें निकम्मे कहे दर्शन पर विश्वास रखने की बजाय कुछ पुरुषार्थ करके दिखाना होगा। उन्हें मोदी की तरह जुआ खेलने के लिए तत्पर होना पड़ेगा जिसमें वे समाज के किसी बड़े अप्रभावशाली निहित स्वार्थवर्ग को चुनें और उस पर राजनीतिक समर में निशाना साधें। हो सकता है कि इसका नतीजा उनके लिए बहुत घातक साबित हो लेकिन अगर नतीजा उनके अनुकूल रहा तो उनके सारे दरिद्र मिट जाएंगे। क्या भाजपा विरोधी दल इसे देखते हुए कोई साहसिक दांव नोटबंदी के चलते मोदी के पक्ष में बह रही हवा को विफल करने के लिए उठाने की सोचेंगे?

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