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जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव के बाद सपा में अटकलों का बाजार गर्म

मुक्त विचार
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जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में उत्तरप्रदेश में कई नये कीर्तिमान स्थापित हुए हैं। समाजवादी पार्टी ने मंसूबा तो एकछत्र राज का बनाया था लेकिन उसे 74 में से 60 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। इन चुनावों से नेताजी के बाद शिवपाल सिंह यादव समाजवादी पार्टी के सबसे कारगर चुनावी मैनेजर के रूप में उभरे हैं। इसे लेकर अटकलों का बाजार भी गर्म है। हालांकि अगले विधानसभा चुनाव तक वास्तव में सपा की अंदरूनी राजनीति में कोई अनहोनी होगी यह विश्वास सयानों को अभी नहीं है।
जिला पंचायत के सदस्य के चुनाव में समाजवादी पार्टी ने कहीं किसी को समर्थन नहीं दिया था। इसलिये जगह-जगह पार्टी के लोग ही आपस में भिड़ गये थे। इसका फायदा उठाकर बसपा और भाजपा समर्थित प्रत्याशियों ने बाजी मार ली थी। जिससे खुश होकर दोनों पार्टियों के नेता नया चुनाव आने के पहले ही जनमानस में समाजवादी पार्टी के खारिज हो जाने के दावे ठोंकने लगे थे। ऐसे में समाजवादी पार्टी के लिये यह बहुत जरूरी हो गया था कि वह किसी भी तीन तिकड़म से जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव शत प्रतिशत नहीं तो इतने जीते कि सारी विपक्षी पार्टियां मिलकर भी उसके सामने बहुत बौनी साबित होकर रह जायें।
समाजवादी पार्टी की इस कटिबद्धता को प्रतिद्वंद्वी दलों ने बहुत गम्भीरता से नहीं लिया। इसकी एक वजह यह भी है कि राजनीति में सुविधाभोगिता के इस दौर में कांग्रेस में तो संघर्ष भावना बची ही नहीं है। बसपा और भाजपा में भी कुल मिलाकर यही स्थिति हो गयी है। हर पार्टी का नेता स्थानीय स्तर पर अपने काम धंधे चलाने के लिये सत्तारूढ़ पार्टी के हैवीवेट नेता से तार जोड़े रहता है। चुनाव किलिंग स्टिंक्ट से जीते जाते हैं लेकिन ऐसे माहौल में करो या मरो की भावना विरोधी दल के नेताओं में पैदा कैसे हो सकती है। खबरें तो यह हैं कि अधिकांश जगह पर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशियों ने सदस्यों के साथ-साथ सपा और बसपा के स्थानीय क्षत्रपों को भी अच्छी खासी रकम का नजराना भेजा। इसलिये समाजवादी पार्टी को चुनौतीपूर्ण परिस्थितियां होते हुए भी चुनाव की कमर कसते ही वाकओवर मिल गया।
समाजवादी पार्टी को सबसे ज्यादा सुख बनारस में जो कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का निर्वाचन क्षेत्र है। अपना उम्मीदवार जिता ले जाने से मिला होगा। जबकि बनारस में पिछले 16 वर्षों से जिला पंचायत पर भारतीय जनता पार्टी का प्रभुत्व कायम था। इस किरकिरी को पार्टी ने नोटिस में ही न लेकर बेअसर करने की रणनीति अपनायी है। दूसरी ओर रायबरेली में कांग्रेस के विधायक दिनेश सिंह के भाई अवधेश सपा की भारी घेराबंदी के बावजूद चुनाव जीत गये। जिससे सोनिया गांधी की नाक बच गयी लेकिन सुल्तानपुर में कांग्रेस का बुरा हश्र हुआ। राहुल गांधी द्वारा जिस उम्मीदवार के लिये अपने आवास पर रणनीति तैयार की थी वह उन पर भरोसा न करके समाजवादी पार्टी में ही दंडवत हो गया। यह सुल्तानपुर में कांग्रेस के गढ़ के जर्जर होकर धराशायी होने की कगार पर पहुंचने का लक्षण है।
शिवपाल सिंह ने अपनी पहले की छवि के विपरीत इस चुनाव में जीतने के लक्ष्य को हासिल करने के लिये फिर भी काफी संयम से काम लिया जिसकी वजह से बहुत ज्यादा उपद्रव और खून खराबे की खबरें नहीं आयीं लेकिन कई जगह ऐसा हुआ जहां मैनेज करने से काम नहीं चला तो फिर वे अपनी असलियत दिखाने से नहीं चूके। गोरखपुर में 11 मत अवैध होने के बाद उनका प्रत्याशी चुनाव जीतने में सफल हो पाया। अम्बेडकर नगर में भी बसपा के कद्दावर नेता लालजी वर्मा की पत्नी शोभावती को चुनाव हराने के लिये प्रशासन ने उनके पक्ष के 10 मत इनवैलिड कर दिये। फर्रुखाबाद में भी धांधली हुई। जहां 30 में से केवल 9 मतों से अध्यक्ष का चुनाव हो गया। बिजनौर में सपा की विधायक रुचि वीरा के पति उदयवीरा को बगावत करके चुनाव लडऩे के कारण सबक सिखाने के लिये सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी। इलाहाबाद हाईकोर्ट में इस मामले को लेकर याचिका भी दायर हुई है। जिसकी सुनवाई कर रही पीठ ने कहा कि अगर आरोप सही है तो लोकतंत्र में इस तरह जबर्दस्ती और मनमानी को बहुत ही अफसोसनाक कहा जायेगा। प्रशासन के पूरी ताकत लगाने के बाद भी उदयवीरा चुनाव जीतने में सफल रहे। भाजपा ने अब उन्हें अपने साथ जोड़ लिया है। सीतापुर के पार्टी विधायक रामपाल यादव को उनके बेटे जितेन्द्र यादव द्वारा बगावत कर चुनाव लडऩे की वजह से उत्पीडि़त कर दबाने की भारी चेष्टा की गयी लेकिन जितेन्द्र यादव भी मैदान मार ले जाने में सफल रहे। उन्नाव के विधायक कुलदीप सिंह सेंगर ने भी बगावत करके अपनी पत्नी संगीता सिंह को जिला पंचायत अध्यक्ष पद का उम्मीदवार बना दिया था। दूसरी ओर शिवपाल सिंह की विशेष कृपापात्र ज्योति रावत उम्मीदवार थीं। बावजूद इसके रामपाल और रुचि वीरा की तरह कुलदीप सिंह के खिलाफ निष्कासन और निलंबन की कार्रवाई का साहस सपा नेतृत्व नहीं कर सका। इसका क्या रहस्य है। यह चर्चा का विषय बना हुआ है। संगीता सिंह के निर्वाचित हो जाने पर उन्हें पार्टी ने सहर्ष अपने साथ ही मानने की घोषणा भी कर दी है।
मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से भारतीय जनता पार्टी ने पश्चिमी उत्तरप्रदेश में अपनी जड़ें जिस तरह से फैला ली हैं। उसका लाभ उसे जिला पंचायत चुनाव में भरपूर मिला। मुजफ्फरनगर, शामली, मथुरा, शाहजहांपुर में उसके उम्मीदवारों ने फतह के झंडे गाड़ दिये। बिजनौर में रुचि वीरा भी उसके समर्थन से चुनाव जीतीं। इसके अलावा फतेहपुर और महाराजगंज में भी भाजपा को सफलता मिली। क्या भाजपा को पश्चिमी उत्तरप्रदेश की सफलता से सांप्रदायिकता की खुराक को अपने लिये सबसे मुफीद मानने की प्रेरणा मिलेगी। पार्टी ऐसा सोच सकती है और राममंदिर पर अचानक शुरू हुए हठधर्मी बयानों से पार्टी का यह सोच झलकने भी लगा है जो आगामी विधानसभा का चुनाव बेहद संवेदनशील परिवेश में होने की स्थितियों की ओर इशारा करने वाला है। बसपा के प्रत्याशी अलीगढ़, हाथरस, शामली, और मिर्जापुर में ही जीते हैं।
जिला पंचायत चुनाव में एक कीर्तिमान यह भी स्थापित हुआ है कि बस्ती में देवेन्द्र प्रताप सिंह सिर्फ 22 साल की उम्र में अपने जिले के सिरमौर बन गये तो दूसरे छोर पर 81 साल की वानप्रस्थ आयु में लखीमपुर खीरी से वंशीधर राज ने भी जिला पंचायत अध्यक्ष बनकर रिकार्ड बनाया है। जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव की व्यूह रचन शिवपाल सिंह यादव की सिफारिश पर पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह द्वारा अखिलेश के दो खासमखास सिपहसलारों आनंद भदौरिया और सुनील साजन को पार्टी से निष्कासित करने की घोषणा के साथ नुमाया हुई थी। जिसके बाद अखिलेश ने सार्वजनिक तौर पर सैफई महोत्सव का बायकाट सा करके अपनी नाराजगी का प्रदर्शन करने में संकोच नहीं किया था। फिर भी काफी देर बाद अखिलेश के खास लोगों का निष्कासन वापस किया गया था। पार्टी में सत्ता केन्द्र में बदलाव का यह लक्षण तात्कालिक था। या पार्टी की अगली दिशा का संकेत। इस प्रश्न का जवाब देना अभी आसान नहीं है। अखिलेश की सुस्त कार्य प्रणाली से सपा सुप्रीमो को कुछ मलाल जरूर है लेकिन यह नहीं भूला जाना चाहिये कि लोकसभा चुनाव में पार्टी की भारी हर के बाद जब अखिलेश को मुख्यमंत्री या प्रदेश अध्यक्ष पद में से किसी एक जिम्मेदारी तक ही सीमित करने की राय पूरी पार्टी में बन गयी थी। और अखिलेश में भी इसके प्रतिरोध का कोई साहस नहीं रह गया था। उस समय भी मुलायम सिंह ने बिना कुछ कहे उनकी हैसियत में रंचमात्र की कमी नहीं आने दी थी। नतीजतन वे दोनों ही पदों पर बरकरार रहे।
ऐसा लगता है कि मुलायम सिंह अखिलेश की कमजोरियों को देखते हुए प्रदेश की सत्ता दोबारा हासिल करने के लिये भले ही उन पर भरोसा करने के बजाय सीधे चुनाव की कमान संभालें और उसमें शिवपाल सिंह की क्षमताओं का सर्वोपरि उपयोग करें लेकिन अंततोगत्वा वंश परंपरा के अपने सहज उत्तराधिकारी अखिलेश का ग्राफ वास्तविक रूप से गिरने देने के निर्मोही तेवर वे नहीं दिखा सके।

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