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पार्टी की कलह को मुलायम सिंह का प्रायोजित नाटक समझने की ये हैं मुख्य वजहें

मुक्त विचार
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मुलायम सिंह परिवार की लड़ाई क्विज पहेली सी बूझती नजर आ रही है। यह नेताजी का प्रायोजित नाटक है या फिर पिता-पुत्र में वास्तविक तौर पर शक्ति परीक्षण की नौबत पैदा हो चुकी है। इस गुत्थी का उत्तर बताना बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ पंडितों को भी मुश्किल लग रहा है। सवाल यह है कि अगर यह नाटक है तो मुलायम सिंह को इस तमाशे को दिखाने की जरूरत क्यों पड़ी। इस मामले में लीक हुए तथाकथित ई-मेल को सच मानकर बहुत से लोग इसे सपा की चुनावी रणनीति मान बैठे, लेकिन जब मुलायम सिंह अखिलेश के खिलाफ चुनाव आयोग की दहलीज पर पहुंच गये तो लोग भौचक्के हैं, लेकिन फिर भी यह नाटक हो सकता है क्योंकि मुलायम सिंह के पारिवारिक समीकरण बहुत उलझे हुए हैं। अपनी पूरी राजनीतिक जिंदगी में दूसरों के साथ पैंतरेबाजी करते रहे मुलायम सिंह को घर में ही शातिर पैंतरे आजमाने पड़ रहे हों तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है।
दरअसल अखिलेश को मुख्यमंत्री पद सौंपने के बाद अपने जीते जी पार्टी का पूरा स्वामित्व ट्रांसफर करना शिवपाल के रहते मुलायम सिंह के लिए आसान नहीं है। एक समय था जब उन्हें मुस्लिम जनाधार पर कब्जे के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही थी और इसमें आगे निकलने के लिए उन्होंने अपने बाद आजम खां को अपनी पार्टी के सबसे बड़े हीरो के रूप में पेश कर रखा था, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति की खातिर जब उनको प्रदेश विधानमंडल दल का नेता पद खाली करना पड़ा तो उन्होंने आजम खां को दरकिनार कर कुनबापरस्ती के तहत शिवपाल को नेता विधानमंडल दल बनाया। इस बीच अखिलेश के जवान और तैयार होने का वे इंतजार करते रहे। तब तक नेता प्रतिपक्ष रहकर शिवपाल ने यह मुगालता पाल लिया कि बड़े भैया तो अब प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने की जद्दोजहद में लगेंगे और प्रदेश में अवसर मिलने पर अपनी जगह वे उन्हें आगे करेंगे। लेकिन 2007 में जब समाजवादी पार्टी पहली बार पूर्ण बहुमत मेंं आयी तो मुलायम सिंह ने उनको गच्चा दे दिया और नौसिखिया होने के बावजूद अखिलेश को मुख्यमंत्री के सिंहासन पर विराजमान कर दिया।
शिवपाल को नेताजी का यह फैसला हजम करना बहुत मुश्किल हुआ था। इस पृष्ठभूमि में मुलायम सिह अब पार्टी की धरोहर भी अखिलेश के हवाले करने का कदम बढ़ाते तो शिवपाल के संतोष का ज्वालामुखी फट पड़ता। बीच में जब उन्होंने अपने सभी पदों से इस्तीफे की पेशकश सार्वजनिक रूप से कर दी थी तो मुलायम सिंह को उनके बगावती तेवरों की सीमा का अंदाजा हो गया था। इसीलिए माना जा रहा है कि उन्होंने फूंक-फूंककर कदम रखते हुए अखिलेश को मौका दिया कि वे खुद पार्टी के सारे अधिकार हस्तगत कर लें। इसके बाद उन्होंने रामगोपाल, नरेश अग्रवाल और किरणमय नंदा को तो पार्टी से निष्कासित किया लेकिन अखिलेश के खिलाफ जो उनकी जगह राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए, कोई एक्शन नही लिया।
उधर अखिलेश द्वारा बनाये गये प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम ने जबरिया लखनऊ के सपा कार्यालय में घुसकर कब्जा कर लिया। मुलायम सिंह अगर उस समय शिवपाल को लेकर सपा कार्यालय पहुंच जाते तो अखिलेश को बैकफुट पर आना होता लेकिन ऐसा कोई प्रतिकार करने की बजाय वे चुनाव आयोग में अखिलेश के खिलाफ अर्जी देने का बहाना करके लखनऊ छोड़कर दिल्ली उड़ लिये और अपने पीछे-पीछे शिवपाल को भी बुलवा लिया। अखिलेश के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ने के स्वांग में शिवपाल को भरमाकर वे अपने बेटे को पूरा मौका दे रहे हैं। इस कानूनी लड़ाई का नतीजा जब तक आयेगा तब तक चुनाव हो चुके होंगे और मौजूदा हालत यह है कि मुलायम सिंह के निष्क्रिय प्रतिकार के चलते कार्यकर्ता जहा अखिलेश वहां पार्टी जैसी मनःस्थिति के मुताबिक ढलते जा रहे हैं। नतीजतन चुनाव में उनका वास्तविक सेनापति चेहरा कौन होगा, इसे बताने की जरूरत नहीं रह गयी है।
लेकिन सवाल यह नहीं है कि मुलायम सिंह के पारिवारिक महाभारत का रहस्य क्या है और इसका अंत क्या होगा, इससे बड़ा सवाल यह है कि क्या मुलायम सिंह की राजनीति को चाणक्य नीति के आधुनिक अध्याय के रूप में महिमामंडित किया जाना चाहिए या इसमें हमें अपने पॉलीटिकल सोशल सिस्टम की दयनीय अथवा विडम्बनापूर्ण इबारत पढ़कर अफसोस में डूब जाना चाहिए।
लोकतंत्र व्यवस्था का उन्नत चरण है लेकिन कोई भी व्यवस्था जैसा समाज हो उसके सापेक्ष बनती है इसीलिए बाबा साहब अम्बडेकर जैसे विचारकों ने भारतीय समाज में लोकतंत्र की उपयुक्त अग्रसरता के लिये सामाजिक जनतंत्र को संभव बनाना आवश्यक शर्त निरूपित किया था। भारतीय लोकतंत्र के रूमानी दौर में एक युग डॉ. लोहिया का है, जो पश्चिम के लोकतंत्र से बाबा साहब की तरह ही बहुत प्रभावित थे और देश में भी इसे अमल में लाने के लिए आंदोलनरत रहे लेकिन उन्होंने जब यह अहसास किया कि भारतीय समाज लोकतांत्रिक व्यवस्था के बावजूद राजा को ईश्वर मानने की धारणा से ग्रसित होने के कारण कांग्रेस के खिलाफ वोट करना कुफ्र मानती है तो उन्होंने भारतीय समाज की इस जड़ता को हिलाने के लिए पिछड़ों ने बांधी गांठ सौ में पांवें साठ का नारा दिया। इसके पीछे कांग्रेस से छिटके वर्ग को लामबंद कर कांग्रेस को सत्ता से हटाने की रणनीति थी लेकिन उनकी यह रणनीति इस बात का भी आभास जैसा कराती थी कि वे अपने प्रयासों के माध्यम से भारतीय समाज के लोकतंत्रीकरण के लिए भी महत्वपूर्ण योगदान दे रहे थे। पर उन्हें लेकर यह सोच को बहुत सतही थी चूंकि उन्होंने बाबा साहब की तरह सामाजिक फासीवाद का दर्द प्रत्यक्ष तौर पर झेला नहीं था और जब महात्मा गांधी वर्ण व्यवस्था की हिमायत बाबा साहब के तर्कों के जवाब में खुलेआम कर रहे थे उस समय से उनके सबसे बड़े प्रेरणास्रोत महात्मा गांधी थे। इसलिए उनके प्रयासों से सामाजिक लोकतंत्र की संरचना में कोई योगदान होने की बजाय कुलक वर्गसत्ता को बढ़ावा मिला। जो कांग्रेस जितनी भी लोकतांत्रिक उदारता का कायल नहीं था।
दूसरी ओर बाबा साहब ने वर्ण व्यवस्था की सोपानगत व्यवस्था का जो खाका खींचा है उसी के अऩुरूप अपने से नीचे की श्रेणी के लोगों के प्रति उसमें कोई सहानुभूति भी नहीं थी। डॉ. लोहिया के न रह जाने के बाद आजादी की लड़ाई के दौरान उनसे सीनियर रहे लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने राजनीतिक वानप्रस्थ से वापस आकर जब इंदिरा विरोधी आंदोलन की बागडोर संभाली तो उन्होंने वैकल्पिक राजनीति के लिए सम्पूर्ण क्रांति का दर्शन दिया। जेपी भी चूक कर गये। वे इस दर्शन में मतदाताओं को रिकॉल का अधिकार, दल-बदल विरोधी कानून आदि के जिन सपनों को गूथे हुए थे वह तो आगे का स्थिति विकास था लेकिन सबसे पहले तो बुनियादी तौर पर लोकतंत्र के एप को भारतीय समाज में डाउऩलोड करने के सही उपक्रम की जरूरत थी, जिसका रास्ता समाज के ढांचे को जनतांत्रिक बनाये बिना तैयार करना सम्भव नहीं था। इसलिए जेपी जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वीटो का प्रयोग करने से चूक गये और कुलक वर्गसत्ता में जकड़ी जनता पार्टी न तो इसके लिए कोई काम कर पायी और न ही उनके सम्पूर्ण क्रांति के दर्शन के अऩुरूप राजनीतिक सुधारों को अंजाम दे पायी।
फिर भी राजनीतिक सुधारों के रंगीन सपने भारतीय राजनीति में जनता दल का दौर आते-आते प्रासंगिक बने रहे। वीपी सिंह ने 1989 में दूसरे दलों के साथ गठबंधन के लिए कॉमन मिनिमम प्रोग्राम का जो एजेंडा बनाया था उसमें इस जज्बे का पूरा समावेश देखा जा सकता था। लेकिन जल्द ही वे समझ गये कि मौजूदा सामाजिक व्यवस्था में उन्नत लोकतांत्रिक प्रयोगों पर अमल की आशा कितनी बड़ी नादानी है। इसीलिये उन्होंने पहले जिसकी जरूरत थी उसके लिए शुरुआत की। 1990 में बाबा साहब अम्बेडकर को भारतरत्न से उन्होंने नवाजा। किसी शख्सियत को मरणोपरांत यह अलंकरण देना अनायास नहीं था। इसका अगला स्टेप मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करना होना ही था। इसके बाद भारतीय लोकतंत्र में सबसे बड़ी उथल-पुथल शुरू हुयी।
वीपी सिंह के सामाजिक जनतंत्रीकरण के प्रयास तार्किक परिणति पर पहुंच सकते थे अगर राजीव गांधी की 1991 के चुनाव में लिट्टे के आतंकवादियों के हाथों दुर्भाग्यपूर्ण हत्या न हुयी होती। जिसके चलते बाद के फेज के मतदान में संयुक्त मोर्चा का पासा पलट गया। तमिलनाडु में उसकी सहयोगी द्रमुक का पत्ता साफ हो गया। इसके बाद अनुसूचित जाति, जनजाति सांसदों के फोरम के गठन और दलित राष्ट्रपति की मांग जैसी मुहिम को आगे बढ़ाकर वीपी सिंह ने कुलक वर्गसत्ता को अपना शत्रु बना लिया और अस्तित्व रक्षा में जुटे सामाजिक भद्रलोक ने दूरगामी नतीजों की अनदेखी करके उसे अपना समर्थन शुरू कर दिया। ध्यान रहे कि रामविलास पासवान को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने के प्रयासों के चलते वीपी सिंह से अंत में उनकी घनघोर दुहाई देने वाले लालूप्रसाद यादव भी उनसे पूरी तरह विमुख हो गये।
इस प्रक्रिया में सामाजिक जनतंत्रीकरण की मुहिम तो ठंडी होती ही गयी साथ-साथ में राजनीतिक सुधार का एजेंडा भी नेपथ्य में खिसकता गया। इस गड़बड़ी के अपद्रव्य के रूप में निजी सत्तावाद को बढ़ावा मिला जिससे एक तरह से लोकतंत्र की उत्तर प्रदेश जैसे सूबों में हत्या ही होती गयी। मुलायम सिंह की राजनीतिक कामयाबी का सूत्रपात इसी गड़बड़ी में निहित है। जनता दल से अलग होने के बाद वे चंद्रशेखऱ की समाजवादी जनता पार्टी में शामिल हुए। जेपी ने चंद्रशेखर को अपना मानसपुत्र भले ही घोषित किया हो लेकिन चंद्रशेखऱ और डेमोक्रेटिक सोच के बीच विलोमानुपाती सम्बंध था। जिसे अपने पूरे उभार पर पहुंचने के बाद उन्होंने प्रकट कर दिया। वे निजी सत्तावाद के पहले मॉडल थे और ब्रांडिंग के लिए मुलायम सिंह भले ही लोहिया की दुहाई दें लेकिन उनके दिमाग में हमेशा चंद्रशेखर बसे रहते हैं।
निजी सत्तावादियों का एक साथ रहना एक म्यान में दो तलवार रहने जैसा असम्भव कार्य है इसीलिए मुलायम सिंह चंद्रशेखर की पार्टी में भी ज्यादा दिनों तक नहीं रह सके और उन्होंने समाजवादी पार्टी के नाम से अपनी एक अलग पार्टी बना ली। इसमें उन्होंने जनेश्वर मिश्र जैसे पदभ्रष्ट लोहियावादियों से लेकर जिन रेवती रमण से वे नेता प्रतिपक्ष की लड़ाई हार गये थे, उन तक को अपने साथ जोड़ लिया। बेनीप्रसाद वर्मा के अपनी पार्टी में आने के लिये उन्हें कई बार उनके घऱ जाकर निहोरे करने पड़े थे। लेकिन निजी सत्तावाद में एक ही वटवृक्ष हो सकता है इसलिए उन्होंने इन सारे कद्दावरों को धीरे-धीरे बोनसाई बना दिया। समाजवादी पार्टी के सारे प्रमुख पदों राष्ट्रीय अध्यक्ष, प्रमुख राष्ट्रीय महासचिव, प्रदेश अध्यक्ष, नेता विधानमंडल आदि पर अपने ही कुनबे के लोग उन्होंने बैठा दिये। उन्होंने जिस वंशवाद की पराकाष्ठा की उसका उदाहरण तो राजशाही तक में ढूंढना मुश्किल है लेकिन उनकी निरंकुशता के बावजूद उनकी राजनैतिक प्रगति में कोई रुकावट नहीं आयी। यह आश्चर्यजनक है। खासतौर से उस राजनीतिक समाज की इस मुद्दे पर बेसुधी के बारे में सोचना दिमाग को चकरा देता है जिसने लोहिया से लेकर जेपी की अगुवाई तक लोकतंत्र में राजनीति की उच्च मान्यताओं को कायम करने के लिए जद्दोजहद की हो।
मुलायम सिंह का सबसे ज्यादा शक्तिमान होना केवल यादवों और मुसलमानों के समर्थन की वजह से संभव हुआ, यह कहना भी गलत है। अगर पुश्तैनी कुलीनता का दावा करने वाले सामाजिक वर्गों ने कपटाचार न दिखाया होता तो लोकतंत्र का कोई व्यक्ति इस तरह से अपमान नहीं कर सकता था। सपा के वर्तमान महाभारत के शुरुआती अध्याय में अखिलेश ने कहा कि झगड़ा परिवार में नहीं सरकार में है, लेकिन जब भी संकट हुआ मुलायम सिंह का आह्वान किया गया। वे लखनऊ आये और अपनी कोठी में केवल कुनबे के लोगों के साथ गतिरोध सुलझाने के लिए बैठक की। न कहीं सरकार की इसमें सहभागिता दिखी, न कोई पार्टीतंत्र दिखा। यहां तक कि अभी भी उनके परिवार की उठापटक को इस तरह पेश किया गया जैसे राजशाही चल रही हो जिसमें अपने राजा के परिवार के द्वंद्व से विह्वल प्रजा की भूमिका केवल ईश्वर से उनके लिए प्रार्थना करने तक सीमित हो।
इस पूरी उठापटक में अखिलेश व्यक्तिगत तौर पर प्रदेश के सबसे लोकप्रिय चेहरा बनकर उभरे हैं तो इसलिए नहीं कि वे मुलायम सिंह के पुत्र हैं बल्कि उनके प्रति लोगों की जो सहानुभूति है वह इस वजह से है कि निजी सत्तावाद का बंधक हो चुके उत्तर प्रदेश को उबारने की उम्मीद उन्होंने अपने कामों से लोगों में जगायी है। राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने पूरी ताकत लगा दी लेकिन उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की रीति-नीति की वजह से ही यह प्रयास अभी तक बुरी तरह नाकाम रहे। अखिलेश ने बाहुबलियों को टिकट देने का विरोध किया और चुनाव जीतने के लिए बूथ कैप्चरिंग जैसी हरकतों का सहारा लेने की बजाय लोगों का दिल जीतने के काम करने की वकालत की। मुलायम सिंह तो अभी भी कारसेवकों पर गोली चलाने के पराक्रम की चर्चा चुनावी सफलता के लिए करने से बाज नहीं आ रहे जबकि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण जैसे ओछे हथकंडों की बजाय विकास की बड़ी लाइन खींचकर सभी लोगों को अपने साथ समेटने की जो राजनीतिक बयार अखिलेश ने बहाई है उसकी वजह से समाजवादी पार्टी की संस्कृति इस कदर बदली है कि आजम खां तक अलग तरह के भाषण देने लगे हैं। कई बार तो गंगा और गाय के महात्म में वे हिंदुत्व के ठेकेदारों के भी कान काटते नजर आने लगते हैं। उन्होंने समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कमान संभालने के बाद प्रदेश अध्यक्ष का पद नरेश उत्तम को सौंपकर बहुत बड़ी क्रांति की है क्योंकि मुलायम सिंह तो ऐसा पद अपने परिवार और जाति के बाहर के सहयोगी को सौंपने की सोच तक नहीं सकते थे।
अखिलेश की इस रीति-नीति और चाल-ढाल का असर दूसरी पार्टियों पर भी होना है। यानी प्रदेश की राजनीतिक संस्कृति में उनकी शैली बदलाव ला सकती है। इसी उम्मीद की वजह से लोग उनकी ओर आकर्षित हो रहे हैं। इसलिए मुलायम सिंह अगर उनकी छवि तराशने के लिए परिवार और पार्टी में कोई नाटक कर रहे हैं तो यह पुण्य उनके अभी तक के तमाम पापों को धो देने वाला है। इसलिए उनके इस नाटक को वक-अप करने की इच्छा उन लोगों में भी होना स्वाभाविक है जो उनकी राजनीति को पसंद नहीं करते रहे हैं।

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