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भ्रष्टाचार और काले धन से निजात के सब्जबाग में कितनी हकीकत कितना फसाना

मुक्त विचार
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भ्रष्टाचार के खिलाफ खांचाबंदी आसान नहीं है। नैतिक मान्यताएं परिवेश और युग सापेक्ष होती हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत में पांडवों को जीत दिलाने के लिए कदम-कदम पर प्रचलित मान्यताओं का मूर्तिभंजन कराया लेकिन इतिहास में वे वरेण्य हुए क्योंकि उऩकी सारी पहलें सहज न्याय की कसौटी पर खरी मानी गईं। मुहावरा भले ही सटीक निशाने पर अर्जुन की आँख का बना हो लेकिन सही मायने में भगवान श्रीकृष्ण की आँखों की बेबाकी का नतीजा था जिसकी वजह से धर्मयुद्ध की लक्ष्मण रेखाओं का पांडवों से बार-बार अतिक्रमण कराने का संकोच उन्होंने नहीं किया क्योंकि वे पांडवों के साथ तब हुए थे जब उन्होंने नाप-तौलकर यह जान लिया था कि हक की लड़ाई में पांडवे सच्चे हैं और युद्ध में उनको जीत दिलाना ही सर्वोच्च न्याय है।
भ्रष्टाचार क्या है, आर्थिक न्याय के साथ धोखा। पूर्व प्रधानमंत्री और स्वनामधन्य राष्ट्रीय नेता अटल बिहारी वाजपेयी का पुश्तैनी स्थान बटेश्वर राजाओं के जमाने में बाह रियासत का अंग रहा है। अन्य रियासतों की तरह इस रियासत में भी राजा की आमदनी का मुख्य स्रोत अपने किसानों से लगान वसूली था। बाह की खेती आज भी ऊबड़-खाबड़ और बीहड़ी है। उस पर सिंचाई के साधन भी नहीं हैं। राजाओं के जमाने में तो बाह और भी उजाड़ रहा होगा इसलिए बाह का किला देखकर जिज्ञासुओं के मन में यह सवाल जरूर उठता होगा कि इतनी दरिद्र रियासत के राजा के पास इतने संसाधन कहां से आ गए जिससे वह ऐसा किला बनवा सका। बात अकेले बाह के किले की नहीं है। देश में बाह जैसी सैकड़ों रियासतें रहीं जहां पेट काटकर भी किसान राजा का लगान नहीं भर पाते थे लेकिन उऩ राजाओं के किले विशालता और भव्यता में कोई सानी नहीं रखते थे। इस पर गहराई से मंथन-चिंतन करने पर प्रतीत होता है कि राजाओं के जमाने की रियाया इतनी बेबस और मोहताज होती होगी कि उसे कई दिनों में एक बार भोजन देकर भी दिन-रात श्रम में जोते रखा जा सके।
आजादी से देश को कोई अलादीन का चिराग नहीं मिल गया था लेकिन आज गांव के स्तर तक चारपहिया वाहनों की उपलब्धता बताती है कि आजादी के बाद कुछ ऐसा जरूर हुआ है जिससे अधिक से अधिक लोग समृद्धि की झलक देख पा रहे हैं। दोनों टाइम पेट भरकर काफी हद तक खाने की और बेहतर पहनावे आदि बुनियादी जरूरतों की अच्छे से पूर्ति की गारंटी के बाद ही गांव तक चारपहिया वाहनों का पहुंचना सम्भव हो पाया होगा।
बिना किसी खूनी उथल-पुथल के आजादी के कुछ ही दशकों में एक मोहताज देश में संसाधनों का ऐसा विकेंद्रीकरण और वितरण कैसे सम्भव हुआ। यह एक सवाल हो सकता है। राजीव गांधी सरकार द्वारा पारित किए गए 73 वें और 74 वें संविधान संशोधन विधेयक में इस आर्थिक न्याय की कुंजी निहित है। वैश्विक स्तर पर चल रही स्वशासनवादी लहर के नतीजे के रूप में सामने आये इन संविधान संशोधनों में ग्राम पंचायतों से लेकर नगर के वार्डों तक की इकाइयों को फाइनेंशियल पावर मिल गई। जिससे धरातल के जनप्रतिनिधियों को भी मलाई काटने का मौका मुहैया हो गया। एक और दिलचस्प दखल इन संविधान संशोधनों से सामाजिक न्याय के रूप में हुआ। पंचायतीराज और स्थानीय निकायों में दलितों और पिछड़ों के आरक्षण के रूप में यह परिवर्तन सामने आया। कोई भी अपने जिले में देख सकता है कि जिन ग्राम पंचायतों में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण हुआ उनमें दबंग दलित जातियों को रोकने के लिए सवर्णों और शक्तिशाली मध्य वर्ग ने उनके खिलाफ गठजोड़ करके समाज के सबसे अंतिम छोर पर खड़े वाल्मीकि तबके से प्रधान चुनवा दिया। प्रधान के चुनाव के समय इन ताकतों के उम्मीदवार के घर सुअर पालन होता था जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसकी स्थिति किस चरम तक दीन-हीन थी लेकिन ऐसे वाल्मीकि भाई ने प्रधान के रूप में दो साल का कार्यकाल पूरा करते-करते कठपुतली पहचान के जुए को उतार फेंका और खुद फैसले कमाने के लिए लेने लगा। बात चाहे दलित समाज की हो या पिछड़े समाज की ग्रामों में प्रधान और शहरों में वार्ड मेम्बर से लेकर चेयरमैन तक इन तबकों में वे लोग चुने गए जो इतनी नीची तलहटी में थे केि दशकों की तो छोड़िए सदियों तक उनके बहुत ज्यादा उत्थान की कल्पना नहीं की गई थी।
स्थूल रूप से यह परिघटना भ्रष्टाचार के विकेंद्रीकरण के परिणाम के रूप में देखी जा सकती है लेकिन इस भ्रष्टाचार का एक सकारात्मक योगदान भी है। महात्मा गांधी से लेकर देश के अन्य तमाम आधुनिक महापुरुषों तक ने लोकतंत्र के माध्यम से समाज के अंतिम छोर पर खड़े आदमी की हैसियत के कायाकल्प का सपना देखा था लेकिन व्यवहारिक तौर पर इसकी परिणति कोई इटोपिया से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता था। लेकिन अगर यह इटोपिया मूर्तिमान हुआ है तो महात्मा गांधी का सपना साकार होना ही तो कहा जाएगा।
अर्थशास्त्र भी किसी मकड़जाल से कम नहीं है। आर्थिक तरक्की का पैमाना जीडीपी से आंका जाता है। हालांकि हाल के कुछ वर्षों में इस सूचकांक को अधूरा घोषित कर दिया गया है क्योंकि खुशहाली की कसौटी पर यह सूचकांक कुछ अर्थों में भ्रामक तस्वीर पेश करने के बतौर पहचाना गया। लेेकिन यह एक अलग चर्चा है। जब खानदानी रईसों का दौर था तब उन्हीं परिवारों में दौलत इकट्ठी होने की नियति के चलते इसके जाम होने का असर तारी था। यह दौलत जमीन के अंदर खजाना बनाकर गाड़ दी जाती थी। देश में गरीबी, बेगारी और बेरोजगारी का एक बड़ा कारण दौलत का जमीन के अंदर दफन रहना था लेकिन आजादी के बाद 73 वें व 74 वें संविधान संशोधन विधेयक जैसे संवैधानिक प्रयासों से जब दौलत वंचितों के हाथ में पहुंची तो उनके पास पुश्तैनी रईसों जैसे ठाट-बाट की बात तो दूर बहुत बुनियादी जरूरतों को पूका करने के लिए भी संसाधन नहीं थे। उन्हें यह दौलत अपने शौक पूरे करने और स्टेटस बनाने के लिए बाजार में निकालनी पड़ी। इस तरह दौलत को जाम रहने के श्राप से मोक्ष मिलने लगा। बाजार में जब दौलत का प्रवाह ज्यादा होगा तभी तो जडीपी बढ़ेगी। इस तरह देखें तो तथाकथित भ्रष्टाचार जीडीपी बढ़ाने में वरदान साबित हुआ और बढ़ी जीडीपी दर मौजूदा समय में किसी देश की ऊंची आर्थिक रैंकिंग का लक्षण है लेकिन देश भर में लोगों की पूंजी बटोर कर बैंकें भरने की कवायद कुछ सैकड़ा लोगों को लाखों करोड़ का ऐसा कर्जा देने के लिए की जाए जिसमें वापस लेना भूल जाने की शर्त निहित हो तो क्या यह प्राचीन गौरव की बहाली के पुण्य को कमाने की कसरत के रूप में देखा जाना चाहिए। आखिर ऐसी कोशिश का परिणाम यही तो होना है।
जिस तरह से प्राचीन समय में दौलत का थोक कुछ लोगों के यहां लगा रहने की वजह से पूरा देश विपन्नता की पराकाष्ठा में जीने को मजबूर था ऐसे किसी चक्रव्यूह से क्या वैसी ही स्थिति फिर से नहीं लौटाई जा रही। कुछ सप्ताह पहले एक नये-नये शुरू हुए टीवी चैनल ने खबर प्रसारित की थी कि चंद लोगों ने हजारों करोड़ रुपये की कृषि आमदनी का रिटर्ऩ भरकर आयकर से छूट प्राप्त कर ली है। यह आंकड़ा इतना बड़ा था कि सरकार के विरोधी दलों तक के नेता इस पर अविश्वास जता रहे थे और कुछ गड़बड़ होने की बात कह रहे थे। टीवी चैनल दावा कर रहा था कि आंकड़े सरकार की ही रिपोर्ट पर आधारित हैं। साथ-साथ में उसका सवाल भी यह था कि पिछले कुछ वर्षों से जब देश के किसी भी कोने में किसान लगातार इतना घाटा खा रहा है कि अपने को आत्महत्या करने के लिए मजबूर पाने लगा है तब आखिर यह चुनिंदा किसान कौन हैं और किस हिसाब से खेती में इतना अकूत मुनाफा बटोर रहे हैं। पहले तो अनुमान यह था कि सरकार इस चैनल के आंकड़ों की विशालता को गलत बताने का स्पष्टीकरण जारी करेगी लेकिन सरकार यह खंडन जारी नहीं कर सकी। नतीजतन आंकड़ों को बल मिला। दूसरे सरकार के प्रतिनिधियों ने इस चैनल पर आकर स्वीकारोक्ति के अंदाज में कहा कि भारी-भरकम आदमनी को कृषि आय घोषित करने वाले रिटर्ऩ की गहन छानबीन होगी और ऐसे लोगों को बेनकाब कर उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। इऩ खुशकिस्मत किसानों में बड़े नौकरशाहों के साथ-साथ राजनेता भी शामिल हैं, यह पुष्टि वित्तमंत्री अरुण जेटली ने यह बयान देकर कर दी थी कि सरकार खेती की आदमनी के आयकर रिटर्ऩ के आधार पर कार्रवाई करे तो उस पर राजनीतिक बदले की भावना से काम करने का आरोप लग सकता है लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि जांच कराकर इसमें उजागर होने वाले चेहरों पर कार्रवाई जरूर की जाएगी।
इस तरह काले धन के आसानी से पहचाने जाने वाले मगरमच्छों पर शिकंजा कसने का रास्ता सरकार को मिल गया था। जिसके खलबली मचा देने वाले नतीजे आने की उम्मीद संजोई गई थी लेकिन काले धन पर सीधे-सीधे इस वार को करने की बजाय सरकार ने नोटबंदी का अंधड़ उठा डाला जिसमें तात्कालिक तौर पर पूरी अर्थव्यवस्था तितर-बितर होती नजर आ रही है। दूसरी ओर इसके घटाटोप में कृषि आमदनी के अकल्पनीय रिटर्ऩ की हकीकत को सुविधापूर्वक ठंडे बस्ते में फेंका जा चुका है। आखिर सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है जो काला धन रखने वालों से आंख से आंख मिलाकर बात करने से उसका हाथ पकड़ती हो नतीजतन इस पर कार्रवाई के नाम पर चोंचलेबाजी उसकी फितरत बन गई है। नोटबंदी के फैसले को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से जोड़ा जा रहा है। यह अनुमान काफी हद तक सही भी लगता है क्योंकि प्रदेश के स्वयंभू जागीरदारों की इस मामले में बौखलाहट भरी प्रतिक्रिया जबर्दस्त आपसी अंतर्विरोधों के बावजूद एक जैसी है। मान लीजिए कि इन जागीरदारों में म-नम्बर एक और म-नम्बर दो दोनों का ही कई हजार करोड़ का नुकसान हो जाता है तो क्या वे मटियामेट हो जाएंगे। ये जागीरदार पहले ही आय से अधिक सम्पत्ति के मामलों में कानून को फेस कर चुके हैं जिसके दौरान उन्होंने डूबने की आशंका वाली रकम से कई गुना ज्यादा रकम समय रहते सेफ करा ली थी इसीलिए तो वे अदालत में छक्क बच गए थे।
नोटबंदी की मुहिम से उनके इस आर्थिक वित्तीय किले में तो कोई दरार आने वाली है नहीं इसलिए बड़़े नुकसान का सदमा झेलकर भी वे सर्वाइब करेंगे और दोबारा उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने की कोशिश में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे और अगर उनको इस चुनाव में नहीं तो अगले पंचवर्षीय चुनाव में सत्ता वापस मिल गई तो पूरे नुकसान की मय बयाज के भरपाई कर लेंगे। जैसा मायावती के शासनकाल में समाजवादी पार्टी की दुकान बंद रही लेकिन पांच वर्ष बाद चक्र फिर घूमा और समाजवादी पार्टी प्रदेश की सत्ता में लौट आई। जिसके बाद उसने अपना नुकसान पूरा कर लिया। इस तरह के सुधारवादी कदम सेफ्टी वॉल्व का काम कर रहे हैं जो कि व्यवस्था की ओवरहालिंग की जरूरत पूरी नहीं होने दे रहे। काले धन के मगरमच्छों के हल्के-फुल्के नुकसान पर वाहवाही जताना उसी तरह का प्रपंच है जैसा दीपावली के समय करोड़ों रुपये के जुए के खिलवाने की करतूत पर पर्दा डालने के लिए पुलिस कुछ हजार रुपये के जुए का चालान करती घूमती है।
काले धन से व्यवस्था को मुक्त कराने के अभियान के दौरान यह सवाल भी जेहन में रखा जाना चाहिए कि अगर सरकार के खजाने में यह धन भर जाता है तो इससे आम आदमी को क्या मिलेगा। माना कि कांग्रेस ने टू-जी स्पेक्ट्रम में बड़ा घोटाला किया था लेकिन पहले जो मोबाइल कॉल 3 रुपये में हो पाती थी वह 10 पैसे में होने लगी। यह घोटाला तो बड़ा मजेदार रहा। दूसरी ओर केंद्र में भ्रष्टाचार के पूरी तरह खत्म हो जाने, स्वैच्छिक छिपी सम्पत्ति की उद्घोषणा की मोहलत के दौरान लाखों करोड़ सरकार के खजाने में आ जाने और अब काला धन को भी सरकारी खजाने में बटोर लेने के बावजूद रेल किराये से लेकर उस पेट्रोल, डीजल तक की कीमतें सरकार को बढ़ानी पड़ती हैं जिसका मूल्य आयात में उसे लगातार कम से कम चुकाना पड़ रहा है तो आम आदमी ऐसी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को किस रूप में संज्ञान में लेगा, यह विचारणीय है। अगर सरकार के खजाने में होने वाली अतिरिक्त बढ़ोत्तरी को बुलेट ट्रेन चलाने जैसे शगल में खपाया जाता है जबकि पैसेंजर डिब्बों की हालत और उपलब्धता में सुधार नहीं किया जा सकता तो ऐसे सुधार को तो आम लोग मृगमरीचिका ही कहेंगे।
सबसे अंत में यह कि भ्रष्टाचार का एक सबसे संगीन रूप निजी क्षेत्र में कामगारों के आर्थिक शोषण रोकने का कोई भी प्रयास सफल न हो पाना भी है। सरकार के वरदहस्त प्राप्त कई मीडिया प्रतिष्ठानों का भी इस सिलसिले में उल्लेख किया जा सकता है जो अपने पत्रकार और गैर पत्रकार कर्मचारियों को सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बावजूद भी मजीठिया आयोग का लाभ देने को तैयार नहीं हैं जबकि इन मीडिया प्रतिष्ठानों ने नंबर एक से लेकर नंबर दो तक में अकूत मुनाफा बटोरा है। इनके काले धन और काले मन को सरकार क्यों नजरंदाज कर रही है, क्या यह मीडिया प्रतिष्ठान सरकार के दामाद हैं। अकेले मीडिया प्रतिष्ठानों की ही बात नहीं है। ज्यादातर गैर सरकारी नौकरियों में न्यूनतम वेतन अधिनियम की ऐसी-तैसी की जा रही है। कम्पनियों और प्रतिष्ठानों को कितना भी मुनाफा क्यों न हो जाए लेकिन वे अपने कर्मचारियों को भुखमरी की स्थिति में ही रखने पर आमादा हैं। सरकार को खुद पता होगा कि सरकारी नौकरियों के वेतनमान के अनुपात में निजी क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को मिलने वाली पगार कितनी है। लेकिन इस भ्रष्टाचार का अंत कब होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। क्या काले धन को बाहर निकालने की मुहिम से इस तरह के मुद्दों का भी कोई रिश्ता बनाया जाएगा।

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