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मायावती फिर मैदान में, पार्टी को सहेजने की चुनौती

मुक्त विचार
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बहुजन समाज पार्टी के नेतृत्व का हाल शुरू से ही विचित्र रहा है। पार्टी के नेतृत्व ने अपने समर्थकों को जितना दुत्कारा लताड़ा उतने ही वे उसके साथ मजबूती से जुड़े इसलिए बसपा नेतृत्व द्वारा अपने लोगों की अवहेलना उसके स्वभाव की विशेषता बन गई। याद करिए पार्टी के संस्थापक कांशीराम की दिल्ली की एक सभा के नजारे को। इसमें भीड़ के बार-बार उठ खड़े होने से अव्यवस्था पैदा हो रही थी। खीझी पुलिस बल प्रयोग पर उतारू हो गई। कोई और पार्टी होती तो उसका नेता अपने समर्थकों को पिटते देख पुलिस पर हमलावर हो जाता। यह न होता तो अपने समर्थकों के नाराज होने के भय से वह मंच से चिरौरी करके उन्हें व्यवस्था बनाए रखने में सहयोग देने को कहने लगता लेकिन कांशीराम इसकी बजाय मुंहफट हो गए। उन्होंने पुलिस की ओर इशारा करके कहा कि इन्हें पीट कर ठीक करो। ये जितना पिटते हैं उतनी ही शिद्दत के साथ हमसे जुड़ते हैं। अपने लोगों के लिए कांशीराम ने जीवन की व्यक्तिगत खुशियां बलिदान करके अकथ संघर्ष किया था इसलिए वे उनके मसीहा के तौर पर इतने प्रमाणिक थे कि उनसे कितना भी बुरा बोलते उनके प्रति समर्थकों की आस्था डिगने का सवाल ही नहीं था।
मायावती कई मामलों में कांशीराम से अलग हैं। उन्होंने शुरू से यह माना कि अगर उनकी पकड़ में सत्ता बनी रहती है तो ही वे पार्टी को संभाले रख पाएंगी और मिशन को कामयाब कर पाएंगी। उन्होंने अपनी सोच से कांशीराम को भी सहमत कर लिया था इसीलिए वे बहुजन समाज पार्टी के दरवाजे सवर्णों के लिए खोलने को तैयार हुए और भाजपा के साथ पूरी तरह अवसरवादी होते हुए भी गठबंधन करने के मायावती के फैसले पर उन्होंने मुहर लगाई लेकिन कुल मिलाकर मायावती कांशीराम जी की शिष्या हैं और हर शिष्य किसी न किसी सीमा तक तो अपने गुरू की अनुकृति होता ही है सो मायावती को भी अपने समर्थकों पर कांशीराम की तरह ही यह भरोसा है कि वे उनकी चाहे जितनी बेकद्री करें लेकिन वे उनका साथ नहीं छोडऩे वाले। इसी आत्मविश्वास की वजह से मायावती जब-जब सत्ता से छिटकीं वे अपने लोगों को संबल देने के लिए उनके बीच रहने की बजाय पलायन कर गईं। हालांकि अधिकांश बार यह तब हुआ जब उत्तर प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता का दौर चल रहा था इसलिए सत्ता से उनका निर्वासन सीमित अवधि के लिए ही रहा और इस बीच में अनाथ छोड़े गए उनके समर्थकों को ज्यादा लंबी यातनाएं नहीं झेलनी पड़ीं लेकिन सन् 2012 में लखनऊ में सपा की पूर्ण बहुमत से सरकार आई जिसके बाद यह तय हो गया कि अब उनके समर्थकों खास तौर से दलितों को बिना किसी छत्रछाया के अपनी दम पर सत्ता के कोप के ताप को झेलना पड़ेगा। यह हो भी रहा है। शुरूआती समय हर किसी से भिड़ पडऩे के साहस की वजह से ही मायावती दलित राजनीति का सितारा बनकर चमकी थीं लेकिन आज के दौर में वे जरा से सीधे मुकाबले से भी घबड़ाती हैं। इसी वजह से सत्ता परिवर्तन होते ही उत्तर प्रदेश में दलितों पर एक वर्ष तक भीषण जुल्म हुए लेकिन मायावती ने अपनी जबान नहीं खोली। सुविधा भोगिता की वजह से कतरा जाने की मानसिकता ने ही उन्हें सपा के समय हर चुनाव से किनारा कर लेने के लिए प्रेरित किया। इन कारगुजारियों के कारण बसपा प्रदेश की राजनीति में पिछले साढ़े तीन वर्षों में अदृश्य सी हो चुकी है। नतीजा यह है कि उनकी मूल वोट बैंक ने फिर अपने वोट का सौदा शुरू कर दिया है। दलित राजनीति में वैकल्पिक ठिकाने तलाशने लगे हैं।
मायावती को इसका अंदेेशा न हो ऐसी बात नहीं है इसीलिए जब दद्दू प्रसाद ने उनके द्वारा निष्कासित किए जाने के बाद यह घोषणा की कि वे दलित उत्पीडऩ के खिलाफ सड़कों पर उतर कर संघर्ष करने की बसपा की पुरानी नीति को अपने स्तर से बहाल करेंगे तो मायावती बुरी तरह विचलित हो गईं। जिन-जिन मामलों में दद्दू प्रसाद ने सक्रियता दिखाई उनमें बहुत तत्परता से उन्होंने अपनी पार्टी के लोगों को अगुवाई संभालने के लिए निर्देशित किया। कई कारणों से दद्दू प्रसाद संघर्ष भावना के उत्कट रूप को ज्यादा दिनों को प्रदर्शित नहीं कर पाए। नतीजतन जब वे फिर निष्क्रिय हो गए तो मायावती भी चैन की सांस लेकर बैठ गईं।
इस बीच समाजवादी पार्टी ने अगले विधान सभा चुनाव के लिए ब्यूह रचना शुरू कर दी है। हालांकि फासिस्ट कार्यशैली की वजह से रोजाना किसी न किसी विवाद से घिर जाना समाजवादी पार्टी की नियति बन गई है। चूंकि बसपा अदृश्य है इस कारण नजाकत के मौकों पर भारतीय जनता पार्टी ही सपा नेतृत्व घेरने का काम कर रही है। होते होते भाजपा उत्तर प्रदेश में विपक्ष के स्पेस में केेंद्र बिंदु बन गई है। यह बहुजन समाज पार्टी के लिए खतरे का बहुत बड़ा सिग्नल है। यह बात मायावती को यकायक समझ में आई और यही वजह है कि रविवार को उन्होंने लखनऊ में केेंद्र व राज्य सरकार पर एक साथ जोरदार हमला बोला। उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि प्रतिद्वंद्वियों की सक्रियता को देखते हुए 2017 के चुनाव के लिए वे भी अभी से मोर्चा संभालने को तत्पर हो चुकी हैं। सोमवार को उन्होंने अपने जिलाध्यक्षों के साथ बैठक करके सभी स्तरों पर पार्टी की प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराने को रणनीति तय की। मायावती के हक में एक अच्छी बात यह है कि लोक सभा चुनाव के बाद से शून्य पर अटकी भाजपा में एकदम बूम आया है लेकिन उसके पास राज्य का नेतृत्व करने के लिए कोई चेहरा अभी तक सामने नहीं है। दूसरी ओर सपा के शासनकाल को देखते हुए नियम और प्रक्रिया से सत्ता संचालित करने में बसपा की रीति नीति तुलनात्मक रूप से बेहतर है। इस निष्कर्ष पर ज्यादातर लोग मोहर लगाने को तैयार हैं। मायावती इसी का फायदा उठाने की कोशिश करेंगी। बहरहाल सपा, भाजपा व बसपा तीनों के बीच कांटे की टक्कर की स्थितियां बनने के आसार से प्रदेश का राजनीतिक माहौल आने वाले कुछ दिनों में बेहद रोमांचक हो जाने का अनुमान लगाया जा रहा है।

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