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मोदी की सामाजिक चेतना

मुक्त विचार
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डा. अंबेडकर पर प्रस्तावित विश्व केेंद्र को स्थापित करने के लिए अपनी उत्साहपूर्ण स्वीकृति प्रदान करते हुए एक बार फिर दोहराया है कि अगर डा. अंबेडकर न होते तो वे उस जगह पर नहीं पहुंच सकते थे जहां आज हैं। अपनी चुनावी सभाओं में भी नरेंद्र मोदी ने कुछ इसी तरह से डा. अंबेडकर का आभार जताया था। उन्होंने कहा था कि यह उन्हीं के बनाए संविधान की देन है जो आज उन जैसा व्यक्ति प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित हो सका। उन जैसा से उनका तात्पर्य अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि के बारे में था।
जाहिर है कि नरेंद्र मोदी ने जातिगत भेदभाव के कारण देश के सामने उत्पन्न रहीं विसंगितयों को व्यक्त किया है और उनमें क्रांतिकारी परिवर्तन का श्रेय डा. अंबेडकर को देने के मामले में उन्हें कोई संकोच नहीं रहा है। यह डा. अंबेडकर के पुनर्मूल्यांकन का समय है। 6 दिसंबर 1956 को उनका निधन हो गया था। उस समय भी उनका योगदान और कृतित्व उतना ही उजागर था जितना आज है ेलेकिन तब उन्हें सर्वमान्य महापुरुष मानना तो दूर उनको एक खलनायक के रूप में मुख्य धारा के समाज में प्रस्तुत किया जाता था। सरकारी तौर पर उनकी जयंती या निर्वाण दिवस मनाने की बात भी नहीं सोची जा सकती थी लेकिन जो लोग सरकारी हवा से फूले गुब्बारे के रूप में उस समय आसमान पर उड़ते नजर आते थे आज धीरे-धीरे उनका नामलेवा न रहने की स्थिति बनती जा रही है। दूसरी ओर डा. अंबेडकर की स्वीकार्यता में देश-विदेश में भारी इजाफा हुआ है। आज उन्हें केवल दलितों के मसीहा के बतौर नहीं मानवाधिकार के चैंपियन के रूप में सारी दुनिया में देखा जा रहा है और यह युग मानवाधिकारों का युग है। संयुक्त राष्ट्र संघ का मानवाधिकार चार्टर दुनिया के किसी भी देश की सभ्य व्यवस्था के लिए मानक माना जाता है जिसका किसी भी अग्रणी देश द्वारा उल्लंघन संभव नहीं रह गया है। ऐसे में वर्ण व्यवस्था को जारी रखने का दुराग्रह मन में रखते हुए भी परंपरावादी और कट्टरवादी तक अनुभव कर रहे हैं कि उन्हें अपने संगठन को गरिमामय कलेवर के रूप में प्रस्तुत करना हो तो डा. अंबेडकर को मान्यता देना अपरिहार्य है जबकि डा. अंबेडकर इसीलिए लब्ध प्रतिष्ठ हुए कि उन्होंने भारत की वर्ण व्यवस्था जैसी अभैद्य सामाजिक जड़ता की चूलें हिलाने में बिना किसी रक्तपात के असाधारण कामयाबी हासिल की। इस संदर्भ में वर्तमान वर्ष में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा डा. अंबेडकर का सर्वाधिक महिमा मंडन अत्यंत महत्वपूर्ण है। हालांकि यह एक विरोधाभास की स्थिति है। संघ एक ओर जिस भारतीय संस्कृति के पोषण की बात करता है जाति के आधार पर समाज के एक बड़े वर्ग को मानवीय गरिमा, पद और साधनों से वंचित करने का अभीष्ट उसमें सर्वोपरि है। दूसरी ओर डा. अंबेडकर हैं जिन्होंने मनुु स्मृति से लेकर धर्म शास्त्र के अनेक विधानों के संबंध में सप्रमाण उद्धरणों के साथ उनकी मानवाधिकार विरोधी व्यवस्थाओं को बेनकाब किया। संघ को चाहिए कि अंबेडकर के पूरे साहित्य में समाहित इस ध्वनि के विषय में पढऩे की शिक्षा भी अपने कार्यकर्ताओं को दे ताकि एक गर्हित व्यवस्था की पुनर्बहाली का जो सपना वे भाजपा के अकेले बहुमत में आने पर संजोए हुए हैं उसके बारे में उनकी तमाम गलतफहमियां दूर हो सकेें। साथ ही वर्ण व्यवस्था की क्रूरताओं की वापसी की आशंका भी बहुत लोगों के मन में दूर हो सके।
मंडल आयोग की रिपोर्ट के लागू होने के तत्काल बाद बने माहौल में आने वाले वक्त की नब्ज संघ ने पहचान ली थी। 1991 में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया जाना इसी की काट में संघ द्वारा लाया गया ब्रह्म्ïाास्त्र था लेकिन संघ में उस समय कट्टरवादियों का बोलबाला था जिन्हें एक पिछड़े वर्ग के मुख्यमंत्री की अधीनता स्वीकार नहीं थी। लखनऊ के बख्शी के तालाब इलाके में भाजपा के विधायकों की एक बड़ी बैठक में कल्याण सिंह को निशाना बनाते हुए जो उद्गार प्रकट किए गए थे उनसे व्यापक हिंदू एकता का रेशमी आवरण छिन्नभिन्न हो गया था और साफ जाहिर हो गया था कि जातिवाद ही इस पार्टी में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। यहां तक कि सवर्ण होते हुए भी सोशल इंजीनियरिंग की सिफारिश करने की वजह से अपनी तमाम ईमानदारी के बावजूद गोविंदाचार्य को अपने राजनीतिक कैरियर का बुरा हश्र देखना पड़ा। उमा भारती को कई बार आहत होकर सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा कि भारतीय जनता पार्टी में किसी पिछड़े नेता का उदय बर्दाश्त नहीं किया जा सकता क्योंकि यह एक सवर्ण वादी पार्टी है। तब से आज तक भाजपा व संघ में जमीन आसमान का परिवर्तन है। इससे भारतीय समाज की रचनात्मक गतिशीलता प्रकट हुई है जो स्वागत योग्य है। आज मुख्यमंत्री के पद पर नहीं देश के सर्वोच्च कार्यकारी प्रधानमंत्री के पद पर भाजपा जैसी पार्टी में पिछड़े वर्ग के नेता को उसकी क्षमता के आधार पर सहज स्वीकार किया गया। नरेंद्र मोदी के पहले भाजपा के सारे राज्यों में मुख्यमंत्री भी इसी वर्ग के थे जिनको संघ और पार्टी ने काम करने में पूरी स्थिरता प्रदान की। एक ओर दलितों की पार्टी बसपा है जिसकी शुरूआत सवर्णों से पूर्णतया दूरी रखने के नारे के साथ हुई थी लेकिन जैसे ही यह पार्टी मुख्य धारा में स्थापित हुई इस पार्टी ने अपने नारे बदल दिए और सवर्णों को भी सत्ता में सहभागिता देने के लिए अपने द्वार खोल दिए। दूसरी ओर भाजपा के सामाजिक दृष्टिकोण में क्रांतिकारी बदलाव यह भारतीय लोकतंत्र का इतना आकर्षक पहलू है कि लगता है कि परिवर्तन के औजार के रूप में लोकतंत्र दुनिया के किसी देश में सबसे ज्यादा कामयाब हुआ है तो वह भारत है।
मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जिन राज्यों में भाजपा सत्तारूढ़ हुई उनमें सवर्णों को नेतृत्व प्रदान किया गया। हो सकता है कि यह एक संयोग हो लेकिन सत्ता संचालन की योग्यता के मामले में सक्षम नेतृत्व को अपनाने में जातिगत मानदंड लागू न हों यह उस दिशा में आगे बढ़ा एक महत्वपूर्ण कदम है। डा. अंबेडकर ने जब दलितों के लिए कम्युनल अवार्ड मांगा था तो इसे विघटनकारी कदम के रूप में प्रचारित किया गया था। डा. अंबेडकर के पास आंकड़े थे जिनके आधार पर गोलमेज सम्मेलन में उन्होंने ब्रिटिश सरकार के सामने साबित किया कि अगर दलित हिंदू समाज के स्वाभाविक अंग होते तो जमीन संपत्ति के मामले में उनकी स्थिति निल न होती। गांधी जी ने इसके विरुद्ध तमाम भावनात्मक दलीलें दीं और वर्ण व्यवस्था के अत्याचारों को यह व्यवस्था श्रम विभाजन की व्यवस्था जताकर ओझल करने की कोशिश की। तब डा. अंबेडकर को बहुत लांछन झेलने पड़े लेकिन डा. अंबेडकर एक जातिवादी व्यक्ति नहीं थे। कम्युनल अवार्ड के माध्यम से उन्होंने जानबूझकर भारतीय समाज के मठाधीशों पर ऐसी चोट की थी जिससे वे तिलमिलाकर टूट जाएं लेकिन अंततोगत्वा उनका लक्ष्य भारतीय समाज को एक ऐसी दिशा में ले जाना था जहां विकास और चुनाव के मामले में जातिगत पूर्वाग्रह अर्थहीन हो जाएं। वे एक सच्चे लोकतंत्र का निर्माण करना चाहते थे। जब उन्हें संविधान सभा में काम करने का अवसर मिला तो उन्होंने इस दिशा में क्रांतिकारी बीजारोपण किया।
किसी भी देश में बदलाव एक दिन में नहीं हुआ। इसी कारण लोकतंत्र का समता बंधुत्व का डा. अंबेडकर द्वारा रोपा गया बीज भी काफी जद्दोजहद के बाद फलित हो पाया। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की गई तो सामाजिक समानता को संभव बनाने की दिशा में किए गए इस एक और महत्वपूर्ण प्रयास से देश में बवंडर खड़ा हो गया। जिस तरह आज कहा जा रहा है कि आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिए उसी तरह तब कहा गया था कि मंडल आयोग का गठन पिछड़े वर्गों के लिए किया गया था न कि पिछड़ी जातियों के लिए। बाद में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया कि भारत के संदर्भ में पिछड़े वर्ग से मतलब जातियों के आधार पर पिछड़ेपन से है। आरक्षण की व्यवस्था भारत में बहुत बाद में लागू हुई। इसके पहले विशेष अवसर का सिद्धांत कनाडा जैसे देश से सृजित हुआ जो सर्वमान्य सिद्धांत बना। यह सिद्धांत कहता है कि अगर किसी भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की वजह से कोई सामाजिक वर्ग विकास की दौड़ में पीछे ढकेल दिया जाता है तो उसको समकक्षता पर लाने के लिए उन्नति में विशेष अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। अमेरिका में भी नस्ल के आधार पर न केवल सरकारी नौकरियों में बल्कि निजी कंपनियों व ठेकों और आपूर्ति तक में कालों के लिए आरक्षण का प्रावधान उनकी आबादी के अनुरूप किया गया। आरक्षण का इस्तेमाल आर्थिक गैरबराबरी के लिए न तो कभी किया गया और न ही करना औचित्यपूर्ण है। भारत में जो लोग ऐसी मांग करते हैं उन्हें वैश्विक व्यवस्थाओं और सिद्धांतों का कोई ज्ञान नहीं है।
बहरहाल डा. अंबेडकर का लक्ष्य था कि जातिगत व्यवस्था के दोषों को दूर करके मानव इकाई के रूप में देश के प्रत्येक नागरिक के अधिकार का सम्मान किया जाए और इसके बाद ऐसी स्थितियां बनें कि सभी जातियों द्वारा स्वीकार्य लोग नेता के रूप में आगे आएं। आज स्थितियां कुछ इसी तरह की बनी हुई हैं लेकिन वर्ण व्यवस्था की सच्चाइयों के बारे में दलितों व अन्य पिछड़े वर्गों द्वारा उठाई जाने वाली आवाज को नकारने की हठधर्मिता से बना बनाया खेल बिगडऩे की आशंका है। संघ को अपनी रणनीति के संदर्भ में इस पहलू पर भी गौर करना होगा।

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