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मोदी सरकार की नई मुसीबत, जोशी के सवाल

मुक्त विचार
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डा. मुरली मनोहर जोशी ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर जो सवाल उठाया है उसे अगर पार्टी में उपेक्षा के कारण उनकी तल्ख होती जा रही भावनाओं से जोड़कर देखा जाये तो इसका कोई मूल्य नही है लेकिन पार्टी की पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी में सैद्धांतिक द्वंद के नजरिये से इसे परखा जाये तो यह गंभीर सवाल है जिसे भाजपा के उन लोगों को उठाना ही चाहिए जो विचारधारा की राजनीति में विश्वास करते हैं। इसके पहले एक जमाने में आरएसएस के थिंकटैंक के रूप में विभूषित किये जाते रहे गोविन्दाचार्य ने भी मोदी सरकार को कुछ इसी तरह के सवालों के घेरे में लेने की कोशिश की थी लेकिन गोविन्दाचार्य को मुख्य धारा से पहले ही अलग-थलग किया जा चुका है जिसकी वजह से उनके बयान न तो चर्चा का विषय बने और न ही उनका कोई असर हुआ। मुझे नही लगता कि डा. मुरली मनोहर जोशी की सवालिया मुद्रा का हश्र भी गोविन्दाचार्य की तरह ही होगा। डा. जोशी ने दैनिक स्वदेश के भोपाल संस्करण द्वारा प्रकाशित आरएसएस के पूर्व सरसंघ चालक केएस सुदर्शन पर स्मारिका के विमोचन समारोह में अपने सवाल रखे और तपाक से उस कार्यक्रम में मौजूद विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंघल ने उनके विचारों का अनुमोदन कर दिया। स्पष्ट है कि डा. मुरली मनोहर जोशी ने जो बात निकाली है वो काफी दूर तलक जायेगी।
एक देश जो परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रहा है उसके लोकतंत्र में पार्टियों के अस्तित्व के लिये विचारधारा का तत्व बहुत महत्वपूर्ण होता है भारत भी कई मामलों में भले ही महाशक्ति बनने के करीब पहुंच गया है लेकिन इससे बेहतर राष्ट्र के रूप में परिवर्तित करने के लिए कई बदलावों को अपनाने की जरूरत अभी भी है। बदलाव का आधार विचारों से तैयार होता है लेकिन पिछले कुछ दशक से भारत इतिहास के अंत, विचारधाराओं के अंत जैसी पश्चिमी अवधारणाओं से कुछ ज्यादा ही आप्लावित हुआ है। इस प्रभाव ने देश के लोकतंत्र को कबीलाई वर्चस्व की लड़ाई के युग की ओर धकेल दिया है। कोई कबीला दूसरे कबीले पर क्यों आधिपत्य जमाना चाहता है इसके लिये किसी सैद्धान्तिक औचित्य को प्रतिपादित करने की बाध्यता नही है। यह प्रक्रिया आदिम पाशविक प्रवृत्ति की परिणति है जिसमें सुधार की जरूरत महसूस करने के साथ ही मानव समाज सभ्यता के सोपानों पर ऊपर चढ़ने को अग्रसर हुआ। विडंबना यह है कि इस मामले में उन्नति के शिखर छू लेने वाले भारतीय समाज की अग्रसरता आज अधोगति की ओर है।
पश्चिमी लोकतांत्रिक समाज फिलहाल स्थायित्व की अवस्था प्राप्त कर चुका है इसलिये वहां इसके औजार यानी राजनैतिक पार्टियों के लक्षणों में भी यह चीज प्रतिबिंबित है। अमेरिका की मुख्य प्रतिद्वन्दी पार्टियों रिपब्लिकन और डेमोक्रेट में वैचारिक फर्क की बात की जाये तो इसे ढूढ़ना मुश्किल है बावजूद इसके हमारे देश की राजनैतिक व्यवस्था में आ रही विकृतियों से इसकी तुलना नहीं की जा सकती। पश्चिमी देशों में राजनैतिक पार्टियों में और वैचारिक वैशिष्ट्य भले ही न हो लेकिन सुशासन की भावना उनमें सर्वोपरि है। व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कौन से नये समायोजन मुफीद हो सकते हैं इस पर उनकी अलग-अलग राय होती है और लोगों को जिसका खाका भा जाये वे सत्ता की बागडोर उसे सौंप देते हैं। दूसरी ओर भारत में चाहे सामाजिक न्याय और समाजवाद के नारे पर आधारित राजनैतिक पार्टी हो या उदार शासन की वकालत करके सत्ता के दुर्ग में प्रवेश करने की सफलता प्राप्त करने वाली पार्टी वे कार्य व्यवहार में अपने वैचारिक लक्ष्य केवल विशेषण बढ़ाने तक सीमित कर चुके हैं। घोषित विचारधारा के मुताबिक नीतिया गढ़ने और उन्हें लागू करने की ईमानदारी दिखाना तो दूर देश की राजनैतिक पार्टियां सुचारू शासन व्यवस्था तक के लिए गंभीरता नहीं दिखा पा रही हैं।
निश्चित रूप से भाजपा अपनी तमाम खामियों के बावजूद ऐसी पार्टियों से काफी अलग है लेकिन विचारधाराओं के अंत की जहरीली अवधारणा के संक्रमण से वह भी पूरी तरह अछूती नही है। पार्टी के व्यक्तिवादी स्वरूप में ढलने की सामने आ रही प्रक्रिया की अंर्तवस्तु में इसके वैचारिक विचलन को दृष्टिगत किया जा सकता है। नेतृत्व की विराटता को स्थापित करने के लिए समकक्ष या उससे ऊपर कद के नेताओं को हाशिए पर धकेल देना व्यक्तिवादी राजनीति की फितरत है जो आडवाणी, जोशियों आदि के साथ हो रहे सुलूक से उजागर है। जाहिर है कि डा. मुरली मनोहर जोशी के लिए इतना अनुशासन संभव नही है कि वे मंच के नीचे बैठकर अमित शाह जैसे अपने से अत्यंत कनिष्ठ नेता का बौद्धिक सुनें। इसलिए कानपुर में अमित शाह की क्लाॅस से जोशी वहां के सांसद होते हुए भी नदारत रहे और अकेले डा. जोशी की बात क्या करें तमाम और वरिष्ठ सांसदों ने भी उनकी बैठक से दूरी बनाकर उन्हें उनकी हैसियत का आईना दिखाने में गुरेज नही किया।
भाजपा के अंदर नई परिस्थितियों में पैदा हो रही समस्याओं का एक आयाम व्यक्तित्वों के टकराव का है तो दूसरा आयाम यह है कि नये नेतृत्व को पार्टी की वैचारिक कट्टरता भारी लगने लगी है। लालकृष्ण आडवाणी ने कभी पार्टी को वैचारिक ढुलमुलपन से उबारने के लिए अटल की छाया से अलग होकर रामजन्म भूमि आंदोलन के जरिए कट्टर हिन्दुत्व की विचारधारा की ओर मोड़ने की भूमिका अदा की थी लेकिन मोदी की शैली का विरोध करते हुए वे इसे प्रखर वैचारिक संघर्ष का रूप नही दे पाये जबकि डा. जोशी ने मोदी विरोध को ऐसा वैचारिक धरातल प्रदान कर दिया है जिससे दूरगामी तौर पर उनके लिए जबाव देना मुश्किल पड़ सकता है। गंगा सफाई अभियान और नदियों के विलय के सवाल पर सरकार के अतिउत्साह को उन्होंने जिस तरह से झटका था उसके बाद उमा भारती से लेकर मोदी तक सफाई की मुद्रा में आ गये थे। अब उन्होंने सरकार के कर्ताधर्ताओं से पूंछा है कि वे देश के लिए कौन सा आर्थिक माॅडल अपनाना चाहते है- विश्व बैंक और आइएमएफ जैसी संस्थाओं द्वारा गढ़ा जाने वाला माॅडल या पंडित दीनदयाल उपाध्याय वाला माॅडल।
मोदी सरकार को आज अडानी और अम्बानी जैसी ताकते निर्देशित कर रहीं हैं जो भारत में पश्चिमी अर्थव्यवस्था का उत्पाद हैं। पश्चिमी अर्थव्यवस्था का दर्शन मानव समाज के लिए प्राचीन सभ्यताओं में आवश्यक समझे गये संयम, अपरिग्रह, त्याग और परोपकार जैसे आध्यात्मिक व धार्मिक मूल्यों के नकार पर अवलंबित है। यह दर्शन आरएसएस और भाजपा के गले कभी नही उतर सकता। दरअसल आध्यात्मिक मूल्यों में विश्वास करने वाली कोई सभ्यता पश्चिम के नग्न व्यापारवाद को स्वीकृत नही कर सकती। इस बिंदु पर हिंदू धार्मिक सभ्यता को इस्लामिक धार्मिक सभ्यता और अन्य धार्मिक सभ्यताओं के साथ एका बनाने की गंुजाइश मिल सकती है बशर्ते उसने अपने विवेक को दूसरों के प्रति नकारात्मक भाव के कारण कुंद न कर लिया हो लेकिन यह एक अलग चर्चा है। पर अगर भाजपा के कर्णधार भी नग्न व्यापारवाद के सम्मोहन में उलझ जाएगें तो व्यापक समाज में ऐसा तीव्र मोह भंग होगा कि उससे पूरे देश का भविष्य प्रभावित हो सकता है। दूसरी ओर अगर भाजपा ने अपनी विचारधारा से समझौता न किया तो आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित व्यापार का एक ऐसा मौलिक माॅडल इस देश मे विकसित किया जा सकता है जो पश्चिम की फरेबी अर्थव्यवस्था का अंत करके नैतिक दायरे में नई व्यवस्था के विकास का मार्ग प्रशस्त कर सके।

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