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वन मैन शो में तब्दील हो रही भाजपा

मुक्त विचार
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बंगलूरू में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में यह जाहिर हो गया कि सामूहिक नेतृत्व वाली यह पार्टी अब वन मैन शो में तब्दील होने जा रही है। मोदी ने इसी मकसद से राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में अपना विराट रूप दिखाया जिसके तहत समानांतर शक्ति केेंद्र के रूप में अपने को प्रस्तुत करने वाले राजनाथ सिंह को उन्होंने मंच पर जगह देने की बजाय नीचे बैठने को मजबूर कर दिया। राजनाथ सिंह की अध्यक्षी में ही नरेंद्र मोदी का नाम पार्टी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत किया था जिससे शुरू में यह धारणा बन रही थी कि मोदी भले ही प्रधानमंत्री बन गए हों लेकिन वे राजनाथ के प्रोडक्ट हैं इसलिए राजनाथ ही पार्टी में सबसे अधिक महिमावान रहेंगे। राजनाथ सिंह को मंत्रिमंडल में नंबर टू हैसियत के साथ गृह मंत्रालय नवाजना मोदी की मजबूरी समझा गया था लेकिन मोदी ने जल्दी ही स्पष्ट कर दिया कि वे भले ही राजनाथ सिंह ही क्यों न हो लेकिन पार्टी में किसी भी नेता का कद उनके कंधे के बराबर भी नहीं है। राजनाथ सिंह से इसीलिए उन्होंने कुछ ही दिनों में पार्टी का अध्यक्ष पद छिनवा दिया। यही नहीं अमित शाह का चयन पार्टी के नए अध्यक्ष के रूप में किया गया ताकि यह जाहिर किया जा सके कि अब भाजपा में वही होगा जो मोदी चाहेंगे।
इसके बावजूद राजनाथ सिंह उनके मातहत मंत्री की स्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे और कहीं न कहीं यह झलक जाता था कि चाहे सरकार का मामला हो या पार्टी का मोदी अमित शाह जोड़ी के बीच निर्णय के मामले में उन्हें भी वीटो पावर प्राप्त है। इस तरह की धारणा पर विराम लगाने के लिए ही राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मंच पर कौन बैठे इसमें आडवाणी के कार्यकाल में बनाए गए फार्मूले को लागू किया गया जिससे राजनाथ सिंह और साथ-साथ सुषमा स्वराज अपने आप मंच पर बैठने के अवसर से वंचित हो गए। राज्य सभा में सदन के नेता होने के मानक के आधार पर वित्त मंत्री अरुण जेटली को मंच साझा करने का अवसर मोदी ने दिला दिया क्योंकि अरुण जेटली लोक सभा का चुनाव भीषण मोदी लहर होते हुए भी नहीं जीत सके जिससे सिद्ध हो गया कि वे नीति निर्धारण में कितने भी उपयोगी हों लेकिन जननेता नहीं बन सकते। मोदी जानते होंगे कि अपनी इस कमजोरी की वजह से अरुण जेटली को महत्व देना उनके लिए निरापद है।
लालकृष्ण आडवाणी को मंच पर तो जगह दी गई लेकिन उनका नाम वक्ताओं की सूची से गायब कर दिया गया। अपनी वरिष्ठता के कारण आडवाणी नरेंद्र मोदी के फैसले पर आपत्ति उठाने की हैसियत रखते हैं और इसका इस्तेमाल भी उन्होंने कुछ अवसरों पर किया है। खतरा यह था कि अगर उन्हें बोलने का मौका मिलता तो शायद वे कुछ ऐसा कह जाते जिससे मोदी की विराटता कहीं न कहीं दरकती और उनके एकाधिकार वादी इरादों में लडख़ड़ाहट आ जाती इसलिए उन्हें बोलने का अवसर ही नहीं दिया गया। मार्गदर्शक मंडल में शामिल मुरली मनोहर जोशी को भी कुछ इसी कारण से वक्ताओं की सूची से बाहर रखा गया।
लालकृष्ण आडवाणी एक समय हिंदुत्व के सबसे बड़े नायक के रूप में स्थापित हो गए थे। यहां तक कि उन्होंने अटल बिहारी वाजपेई को भी लोकप्रियता में अपने पीछे छोड़ दिया था। राम जन्मभूमि आंदोलन के दौर में वे संघ की आंखों के तारा बन गए थे। संघ ने यह माना था कि आडवाणी ने उसके सपनों को पहली बार साकार होने के करीब तक पहुंचाया है। भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा में दो सीटों से सीधे अस्सी से अधिक सीटों की संख्या तक पहुंचाने का श्रेय खुलकर संघ आडवाणी को दे रहा था लेकिन जब भाजपा को सत्ता मिली तो उनका ग्राफ गिरना शुरू हो गया। आश्चर्यजनक यह था कि जिन अटल बिहारी वाजपेई को संघ केवल एक मुखौटे के तौर पर स्वीकार करता था उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी को हाशिए पर फेेंकने की कोशिशें जब शुरू कीं तो बजाय उनका साथ देने के संघ तटस्थ हो गया। निश्चित रूप से उस समय आडवाणी को संघ की अपने साथ यूज एंड थ्रो की नीति बहुत कचोटी होगी और इसी कुंठा में या अटल जी की तरह संघ और पार्टी के बाहर स्वीकृति के लिए उन्होंने जिन्ना की तारीफ कर डाली। यह दांव उन्हें बहुत महंगा पड़ा। इसके बाद संघ उनके जबरिया रिटायरमेंट पर आमादा हो गया। जब लालकृष्ण आडवाणी ने संघ के इस मामले में हुकुमनामे की अवज्ञा का आभास दिया तो उनके प्रति संघ की बचीखुची हमदर्दी भी खत्म हो गई। ऐसे में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उन्हें नीचा दिखाने के पीछे मोदी पर संघ का दबाव भी हो सकता है। हालांकि अपने भाषण में मोदी ने लालकृष्ण आडवाणी की तारीफ के कसीदे भी शिष्टाचार निभाने के लिए पढ़े जिसमें उन्होंने यह तक कहा कि मैं आज जो भी हूं वह आडवाणी जी की वजह से हूं लेकिन आडवाणी ने यही माना है कि वक्ताओं की सूची में उन्हें शामिल न करके उनका अपमान किया गया है। स्थापना दिवस पर अगर उन्हें बोलने का मौका मिल जाता तो उनके गुबार बाहर आ सकते थे। इसी खतरे को भांपकर उन्हें पार्टी के स्थापना दिवस समारोह में आमंत्रित ही नहीं किया गया।
कुल मिलाकर भाजपा ने जो मार्गदर्शक मंडल बनाया है उसका सार चुके हुए वरिष्ठ नेताओं की राजनीतिक अंत्येष्टि के अलावा कुछ नहीं है। मार्गदर्शक मंडल में सर्वोपरि अटल बिहारी वाजपेई संज्ञाशून्य हालत में जीवन के अवसान की बेला में हैं इसलिए उनके किसी तरह के हस्तक्षेप का कोई मतलब ही नहीं रह गया। इसके अलावा लालकृष्ण आडवाणी और डा. मुरली मनोहर जोशी को साफ संदेश दिया जा रहा है कि अब चुप रहने में ही उनकी भलाई है ताकि उनका अंतिम समय ससम्मान गुजरे।
विडंबना यह है कि तानाशाही के कई मामलों में सकारात्मक परिणाम भी आए हैं लेकिन मोदी के संदर्भ में इसमें ऐसी परिणामों की उम्मीद कम है बल्कि उनके सर्वसत्ता वाद से देश के लिए जोखिम की आशंका ज्यादा है। मोदी की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उनके पास में नेता जैसी दूरदृष्टि और विजन नहीं है। गर्वनेंस के मामले में ब्यूरोक्रेटिक एक्सरसाइज टाइप के कुछ फंडे उनके पास हैं लेकिन इन फंडों से किसी देश में नए युग के सूत्रपात का बीज नहीं बोया जा सकता और राजनीतिक नेतृत्व के लिए ऐसा करने की क्षमता उसमें होना नितांत अपरिहार्य है।

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