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मुक्त विचार
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हमें तो अपनों ने लूटा गैरों में कहां दम था…अखिलेश की मुश्किलों पर फिट हैं ये लाइनें
अपने बेटे की चाल-ढाल की तारीफ सुनने के बाद सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह को निश्चिंत हो जाना चाहिए था। अखिलेश समाजवादी पार्टी की लीक से हटकर अपनाई गई कार्यशैली के द्वारा अपना स्वतंत्र लोकप्रिय चेहरा बनाने में सफल हुए जिसके बाद मुलायम सिंह को जरूरत नहीं थी कि वे विधानसभा चुनाव को लेकर अखिलेश की रणनीति में टांग अड़ाएं। लेकिन मुलायम सिंह ने जिस तरह ऐन मौके पर अपने पांव रोपने की मुद्रा साधी है उससे सपा की आंतरिक स्थितियां पूरी तरह गड़बड़ा गई हैं और अखिलेश ने शुरुआती प्रतिरोध के बाद अब यह स्वीकार कर लिया है कि पिताश्री पर उनका वश नहीं चल सकता। वे उनका ब्रेनवॉश कर परिवार के महत्वाकांक्षी लोगों के षड्यंत्र की काट में ही उलझे रहे तो चुनाव उनके हाथ से निकल जाएगा। इसलिए वे पिताश्री और परिवार की चिंता छोड़कर अपनी राह चल रहे हैं। विकास के नारे, लोक-लुभावन घोषणाओं और शालीन लेकिन चुटीले भाषणों के जरिए अपनी बढ़त बनाने की हर सम्भव कोशिश में वे जुटे हैं। नोटबंदी के तूफान में भी वे अपना आकर्षण बचाए हुए हैं जो उनकी क्षमता का सबूत बन गया है। लेकिन किसी शायर ने सही ही लिखा था मुझे तो अपनों ने ही लूटा गैरों में कहां दम था….। बाहुबलियों को सिर पर बैठाने की आदत से सपा सुप्रीमो बाज नहीं आ रहे हैं। कानपुर के कैंट क्षेत्र से उम्मीदवार घोषित होते ही अतीक अहमद ने इलाहाबाद के जाने-माने श्याट्स कॉलेज में तांडव कर डाला जिससे सपा की फिजा की उलटी गिनती शुरू होने की नौबत आ गई है।
गौर करने वाली बात यह है कि मुलायम सिंह की फर्श से अर्श तक पहुंचने की राजनीतिक कामयाबी को देखकर कोई नहीं यह सोच सकता है कि भारत में जिसके पास ताकत और पैसा आ जाए वही सत्ता को अपनी चेली बना सकता है, लेकिन मुलायम सिंह के स्थापित होने के बहुत पहले असल सोशलिस्टों ने लोकतांत्रिक तरीकों से कांग्रेस की सरकारें कई राज्यों में उखाड़ डाली थीं। उस दौर में जब कांग्रेस को लेकर भी अंग्रेजों के राज की तरह यह मिथक व्याप्त हो गया था कि देश में इस पार्टी का राजनीतिक सूरज कभी डूब नहीं सकता। परिवर्तन का चस्का लोकतांत्रिक समाज की अनिवार्य नियति है इसलिए फासिस्ट हथकंडों को अपनाए बिना भी गैर कांग्रेसी पार्टियों की मजबूत सरकारें बनती हैं और बनी हैं। भाजपा से लेकर ममता बनर्जी तक इसकी उदाहरण हैं और मुलायम सिंह भी बाहुबल व पैसे की जोर पर कितने कामयाब हो पाए, इसे सही मायने में देखने की जरूरत है।
राममनोहर लोहिया से लेकर चौधरी चरण सिंह तक ने एक लाइन अख्तियार करके जो राजनीतिक विरासत संजोयी थी उसमें वीपी सिंह की मिस्टर क्लीन की छवि के त़ड़के ने जनता दल के कामयाब होने के आसार बना दिए और तीन-तिकड़म में माहिर होने की वजह से इस आपाधापी में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी मुलायम सिंह के कब्जे में आ गई। मुलायम सिंह के पास अवसर था कि इसके बाद उन्होंने साफ-सुथरे ढंग से अपना फील्ड तैयार किया होता तो पूरे पांच साल तक निर्विघ्न सरकार चलाकर वे अगले कई और दौर ज्योति बसु व नीतीश की तरह रिपीट कर देते। लेकिन अपने कार्यकर्ताओं को कानून व्यवस्था हाथ में लेने के लिए प्रोत्साहित कर आतंक के जरिए लोकतंत्र को हाईजैक करने की नीति से उन्हें क्या हासिल हुआ। 1991 में उनकी सरकार का इन्हीं करतूतों के चलते असमय पतन हो गया। हालांकि केयर टेकर सरकार के रूप में इस वर्ष नये चुनाव कराने का अवसर उन्हीं को मिला जिसमें तमाम मनमानियों के बावजूद उनको बुरी तरह हारना पड़ा।
उस समय तो उनके राजनीतिक पराभव की विभीषिका इतनी गहन थी कि उनके राजनैतिक करियर का हमेशा के लिए अंत हो जाने की भविष्यवाणी की जाने लगी थी, लेकिन 1993 में उनकी असम्भव वापसी के पीछे थैली और मशल पॉवर का योगदान न होकर बसपा के साथ गठबंधन का राजनीतिक दांव था पर वे फिर भी नहीं सुधरे। 1996 के विधानसभा चुनाव के नतीजों में इसी कारण उन्हें मतदाताओं ने सत्ता के द्वार से बाहर ही रहने के लिए मजबूर कर दिया। 2003 में उन्होंने तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली लेकिन इसके पीछे जनादेश का नैतिक आधार नहीं था बल्कि विशुद्ध जोड़तोड़ की राजनीति थी। इसके बाद 2007 में नये चुनाव हुए तो खौफ जमाने के राजनैतिक कार्ड को एक बार फिर मुंह की खानी पड़ी और उनकी जबर्दस्त प्रतिद्वंद्वी मायावती इसी परिवेश की वजह से उन्हें जेल में पहुंचाने की दम भरकर पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ गईं।
इसके बाद तो मुलायम सिंह को समझना चाहिए था कि भारतीय लोकतंत्र कितना भी नादान क्यों न हो, लेकिन लोकलाज को किनारे करके दादागीरी की नंगी राजनीति के प्रति मतदाता फिर भी वितृष्णा जताने से नहीं चूकते। इसलिए 2012 के विधानसभा चुनाव में जब अखिलेश ने डीपी यादव और अतीक अहमद की सपा में इंट्री का प्रतिरोध किया तो उन्होंने अपने बेटे को डपटने की बजाय उसका साथ दिया। यहां तक कि बड़े सोशलिस्ट आयडिलॉग होने के बावजूद उन्होंने अपने बेटे का कद बढ़ाने के लिए मोहन सिंह की राजनीति की जीवन के अंतिम दिनों में बलि लेने में भी हिचक नहीं दिखाई। जो समय से पहले सदमे में उनके चल बसने का कारण बना। अगर यह प्रयोग था तो मुलायम सिंह को इसकी कामयाबी में कोई संदेह नहीं रहने देना चाहिए था क्योंकि अखिलेश की इन्हीं अदाओं ने पहली बार समाजवादी पार्टी को अपनी दम पर प्रदेश में बहुमत हासिल करने का मौका दिया। पहेली यह है कि इसके बाद तो अखिलेश के ही रास्ते की तायद करते मुलायम सिंह को दिखना चाहिए था लेकिन अखिलेश के तौर-तरीकों से उनमें इतनी झल्लाहट क्यों भर गई है।
बहरहाल मुख्तार हों या अतीक इनको गले लगाने की तुक मुलायम सिंह को क्यों महसूस हुई जब फीडबैक आ रहा था कि अखिलेश ने अपने प्रति लोगों में जबर्दस्त भरोसा कायम कर लिया है। इसका उत्तर खोजें तो यही लगता है कि मुलायम सिंह के डीएनए में वीरभोग्या वसुंधरा का भाव कूट-कूटकर भरा है। इसलिए वे इसके बिना अपने को अतृप्त महसूस करके गुस्सा जाते हैं। हालांकि मुख्तार और अतीक को एक ही पलड़े पर नहीं तौला जा सकता। मुख्तार की सोच में राजनीतिक दृष्टिकोण है। उनके परिवार का अपना गौरवशाली इतिहास है जबकि अतीक का माइंडसेट विशुद्ध क्रिमनल है। इसलिए क्षेत्रीय वर्चस्व की लड़ाई में परिस्थितियों ने मुख्तार की जो छवि बना दी है। उसकी हकीकत स्वीकार कर वे खुद की बजाय अपने बेटे अब्बास को टिकट दिलाकर संतुष्ट होने के मूड में आ गए हैं जबकि अतीक ने एक बार फिर से अवसर मिलते ही अपनी रीति-नीति बदलने की बजाय तत्काल ही श्याट्स में असलहाधारियों के साथ जाकर रंग दिखा डाला। उत्तर प्रदेश में मतदाता कानून व्यवस्था के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील हैं इसलिए यह प्रकरण अखिलेश की सरकार के लिए कितना घातक हो सकता है, यह अंदाजा लगाया जा सकता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस के जमाने में राजनीति में ऐसे मुस्लिम नेता आगे रहे हैं जिनकी साफ-सुथरी, अकादमिक और प्रशासनिक सूझबूझ के धनी की छवि रही। लेकिन मुलायम सिंह ने मुस्लिमपरस्ती के नाम पर जिन चेहरों को आगे लाने का काम किया उससे यह धारणा बनती गई कि मुसलमान बवाली हैं इसलिए शांतिपूर्ण व्यवस्था के नाम पर उन्हें रोकने के लिए भाजपा के पक्ष में हिंदुओं के ध्रुवीकरण की रफ्तार बढ़ी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दंगों की छाया में उत्तर प्रदेश में 2014 के लोकसभा का चुनाव इसीलिए भाजपा के लिए बहुत ही फलदायी रहा। ऐसा भी नहीं कि समाजवादी पार्टी ने वास्तव में कोई मुसलमानों की इन दंगों में बड़ी पक्षधरता की हो। अगर मुस्लिम संदिग्ध इन दंगों की सजा पाने से राज्य सरकार की नीति के कारण बच गए तो संगीत सोम जैसे दूसरे पक्ष के लोगों का भी क्या बिगाड़ हो पाया।
प्रदेश विधानसभा के नये चुनाव में भाजपा के पक्ष में हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी को पर्याप्त सतर्कता बरतने की जरूरत है। इस लिहाज से उसे बाहुबली मुस्लिम नेताओं को अपनाना ही नहीं चाहिए, लेकिन सत्ता परिवार में हम डूबेंगे सनम तुमको भी ले डूबेंगे का खेल चल रहा है। अतीक के लिए कद्रदानी का रवैया इसी का नतीजा है। श्याट्स प्रकरण के बाद बलिया में नारद राय के पुत्र के विवाह के बाद आयोजित आशीर्वाद समारोह में मुलायम सिंह और शिवपाल को इसी से जुड़े सवालों से दो-चार होना पड़ा। शिवपाल ने कहा है कि पार्टी इस मामले की जांच करा रही है और अगर अतीक दोषी पाए गए तो उन पर कार्रवाई होगी। उधर इलाहाबाद की पुलिस ने ऊपर के इशारे की ही वजह से अतीक के खिलाफ न केवल डकैती का मुकदमा कायम करने का साहस दिखाया बल्कि उनके साथ कॉलेज में जौहर दिखाने गए नामजद लोगों के यहां रेड भी डाली।
दूसरी ओर चुनाव का समय आ जाने के बावजूद नगर विकास मंत्री मुहम्मद आजम खां सब्र रखने को तैयार नहीं हैं जबकि उनको एक दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट में बदजुबानी की वजह से ही माफीनामा दाखिल करना पड़ा था। उन्होंने राज्यपाल रामनाईक के खिलाफ फिर बेसुरी टिप्पणी कर डाली। जिसमें रामपुर के जिला कांग्रेस कमेटी महामंत्री को मिलने का मौका देने के चलते उन्होंने राजभवन को अपराधियों का अड्डा बन जाने का आरोप लगाया। यह बात सही है कि राज्यपाल रामनाईक संवैधानिक मर्यादाओं से परे होकर राजभवन का राजनीतिक इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आजम खां मंत्री होने के बावजूद ऐसी टिप्पणियां करें जिससे राज्य सरकार के अस्तित्व पर बन आए। आजम खां के बयान को मुद्दा बनाकर राज्यपाल ने अखिलेश को जो चिट्ठी भेजी है वह किसी भावी कार्रवाई की पेशबंदी की भावना से ओतप्रोत है। हो सकता है कि केंद्र सरकार राज्यपाल की मंशा को इसके बावजूद राजनैतिक समीकरणों के नाते इग्नोर कर दे लेकिन अतीक के बाद आजम खां की यह गुस्ताखी भाजपा को तो टॉनिक देने का काम करेगी ही विडम्बना यह है कि अतीक जहां मुलायम सिंह के चहेते हैं वहीं आजम खां उनके नवरत्न हैं, उनकी बनाई राजनीतिक टीम ने उन्हें भले ही कहां से कहां पहुंचाया हो, लेकिन उनके बेटे के सुनहरे राजनीतिक भविष्य के लिए तो यह टीम ग्रहण ही साबित हो रही है।
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