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अखिलेश के शिगूफे के पीछे का सच

मुक्त विचार
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आजादी के बाद देश में शासन के लिये जिस संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाया गया उसका सम्बन्ध भारत की प्राचीन गणतांत्रिक व्यवस्था से जोड़ा जाना न केवल नादानी है बल्कि हास्यास्पद भी है। प्राचीन गणतांत्रिक व्यवस्था में सामाजिक संस्थायें प्रभावी और निर्णायक थीं जबकि वर्तमान लोकतांत्रिक प्रणाली ने इन संस्थाओं का अस्तित्व तो समाप्त कर दिया है। दूसरी ओर कानूनी संस्थायें अपनी भूमिका में सफल नहीं हो पा रहीं। नतीजतन पंगु शासन की तस्वीर देश में उभर रही है।
बहरहाल निश्चित रूप से जिस लोकतंत्र को आजादी के बाद देश ने अपनाया वह ब्रिटिश ढांचे से प्रेरित आयातित व्यवस्था थी लेकिन इसके बाद भारतीय लोकतंत्र ने जिस तरह से अपना विकास किया है वह आधुनिक लोकतंत्र के आम प्रतिमानों से सर्वथा इतर है। कभी यह लोकतंत्र पुराने कबीलाई तंत्र और सामंती तंत्र के साथ आधुनिक लोकतंत्र के अजूबे काकटेल के रूप में नमूदार होता है और कभी यह उक्त तंत्रों की परिभाषा के खांचे से भी बाहर निकल जाता है जो जंगल राज की फिर से वापसी के अहसास की इंतहा तक पहुंच जाता है। भारत का लोकतंत्र अतुलनीय भारत के साथ-साथ अतुलनीय लोकतंत्र का नारा लगाने योग्य है। इसलिये किसी भी नैतिक और राजनैतिक शास्त्र में इसकी गुत्थियों का हल नहीं मिलता। चाहे तमिलनाडु में डीएमके और अन्ना डीएमके जैसी पार्टियों की स्वीकार्यता हो या बिहार में लालू और मुलायम सिंह यादव की लोकप्रियता इसके आधार को खोजना किसी पहेली से कम नहीं है। यह केवल इस देश में ही हो सकता है कि जयललिता भ्रष्टाचार के आरोप में दोषसिद्ध होने के बाद और अधिक प्रचंड लोकप्रियता हासिल कर लें और लालू यादव जंगल राज व वंशवाद के नये कीर्तिमान गढऩे के बाद भी मतदाताओं का विश्वास अर्जित कर सकेें। इसी तरह से मुलायम सिंह के बारे में भी है जो वंशवाद और परिवार वाद की पराकाष्ठा करते हुए भी लोहिया वाद का दम भर सकते हैं और राजनीतिक पंडित इसके लिये उन पर उंगली उठाने की बजाय उन्हें देश का अभी तक का सबसे धुरंधर समाजवादी नेता तक तस्लीम करने में नहीं हिचकते।
ऐसे में मुलायम सिंह को अधिकार है कि वे अपने पुत्र को मुख्यमंत्री और स्वयं को प्रधानमंत्री के रूप में देखें। इसलिये दिल्ली के एक लीडिंग अखबार के समारोह में अखिलेश यादव ने भले ही मजाकिया तौर पर कहा हो किन्तु उन्होंने यह कहकर कि उनकी पार्टी तत्काल कांग्रेस के साथ गठबंधन करने को तैयार है बशर्ते कांग्रेस एक ऐसी सरकार बनाने के लिये सहमति दे जिसमें मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री हों और राहुल गांधी उपप्रधानमंत्री समाजवादी पार्टी की संकीर्णता को जाने अनजाने बाहर ला दिया क्योंकि वक्त के हिसाब से उनकी यह पेशकश सर्वथा असंगत है। अखिलेश यादव ने इस बीच अपने आपको मंजे हुए राजनीतिज्ञ के रूप में स्थापित करने की कोशिश की है लेकिन इस पेशकश के वक्त से उनका नौसिखियापन ही जाहिर हुआ है।
लोकसभा के नये चुनाव का समय अभी दूर है और इस समय उत्तरप्रदेश में अगर गठबंधन की चर्चा हो रही है तो विधानसभा चुनाव के लिये। स्वयं अखिलेश यादव ने भी इस प्रसंग को सामने लाने के लिये इस आयोजन में पहले यह कहा कि अब गठबंधन का जमाना है। यह बात बिहार विधानसभा के चुनाव में साबित हो चुकी है। इससे यह जाहिर है कि वे उत्तरप्रदेश विधानसभा के आगामी चुनाव के संदर्भ में ही बोल रहे थे लेकिन उनकी दिशा भटक गयी। विधानसभा और लोकसभा के चुनाव स्थानीय चुनाव नहीं हैं। इन चुनावों में व्यापक सैद्धांतिक एजेण्डे की जरूरत पड़ती है। इन चुनावों में उतरने वाली पार्टियों से अपेक्षा की जाती है कि उनका कोई राजनैतिक दर्शन हो। यह चुनाव निजी और पारिवारिक महत्वाकांक्षाओं के चुनाव नहीं हो सकते। बिहार में महागठबंधन के पीछे भी एक सैद्धांतिक आधार था। महागठबंधन में शामिल राजनीतिक दल सत्ता पर सांप्रदायिक प्रभाव को रोकने के नाम पर भाजपा विरोधी मतों के बंटवारे को थामने के लिये एकजुट हुए थे। इसके बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण सम्बन्धी बयान ने सामाजिक तौर पर शोषित तबके द्वारा अपने अधिकारों की रक्षा के बतौर इस चुनावी लड़ाई को नया कोण दे दिया। स्वयं भाजपा और संघ के विश्लेषक मान रहे हैं कि उनकी मजबूत तैयारी के बावजूद बिहार में भाजपा की हार राजद और जदयू के मजबूत सामाजिक समीकरणों की वजह से हुई।
उत्तरप्रदेश में विधानसभा के आगामी चुनाव के लिये जिस गठबंधन और महागठबंधन का मुद्दा उठ रहा है उसके पीछे भी यही सैद्धांतिक आधार है। इस नाते अगर कोई व्यवहारिक और सफल गठबंधन उत्तरप्रदेश में हो सकता है तो वह सपा और बसपा का ही है। जिसे अखिलेश यादव ने नकार दिया। दरअसल मुलायम सिंह यादव ने जिस सैद्धांतिक घर्षण की बदौलत स्वयं को राजनैतिक केन्द्र में स्थापित किया था। अपना विशिष्ट मुकाम बना लेने के बाद राजनीति को सिर्फ व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति का साधन समझ लेने की वजह से वह प्रतिबद्धतायें उन्हें भारी नजर आने लगीं। 1989 में जब वे पहली बार उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री हुए उसी समय वाशिंगटन पोस्ट में एक खबर छपी कि मुलायम सिंह भारत के भावी प्रधानमंत्री हो सकते हैं। इसके बाद तो वे इतने अधीर हो गये कि उत्तरप्रदेश की सरकार का अपना पहला कार्यकाल सफलता पूर्वक पूरा करके बड़े लक्ष्य को साधने की कोशिश करने की बजाय उन्होंने जनता दल के साथ-साथ अपनी सरकार भी अल्प समय में ही गंवा दी। इसके साथ-साथ उन्होंने स्वयं को मंडल विरोधी शक्तियों का भी औजार बन जाने दिया और महत्वाकांक्षा की हविश में वे अपने सैद्धांतिक सत्व को इतना ज्यादा निचोड़ बैठे कि उनकी विश्वसनीयता आज सभी खेमों में संदिग्ध है और अगर आज प्रधानमंत्री पद उनसे दूर चला गया है तो राजनीति का उनका संकीर्ण एजेण्डा ही इसके लिये जिम्मेदार है। वरना वाशिंगटन पोस्ट ने जब उनके प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी की थी तो वह अतिश्योक्ति नहीं थी। अगर वे निजी एजेण्डा की बजाय उस राजनैतिक लाइन पर चलते जिसकी बदौलत वे साधारण पृष्ठभूमि से शिखर तक पहुंचे थे तो तय था कि आज तक वे प्रधानमंत्री बन गये होते।
दरअसल गठबंधन के नाम पर समाजवादी पार्टी को बेमौके का राग अलापने की जरूरत इसलिये पड़ रही है क्योंकि उत्तरप्रदेश में सत्ता में वापसी के लिये वह सभी विकल्प खुले रखना चाहती है। जिनमें विधानसभा चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से सरकार बनाने की बात भी शामिल है। अखिलेश यादव ने इसी कारण रणनीति के तहत हिन्दुस्तान समिट में ध्यान भटकाने के लिये अपने पिता का प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा करने के अपने कर्तव्य का शोशा छोड़ डाला। बहरहाल अखबारों में भले ही उनका उक्त बयान सुर्खियां बन गया हो लेकिन इसे एक जोक से ज्यादा कोई महत्व नहीं दिया जा रहा। यह भी सही है कि बसपा से समाजवादी पार्टी का अपेक्षित गठबंधन न हो पाने के पीछे जितनी जिम्मेदार सपा है उतनी ही बसपा भी है और दूसरी अन्य शक्तियों को जो कि सपा के स्वाभाविक साथी मौजूदा समय में बन सकते थे उन्हें खुद उसी ने प्रदेश में किसी लायक नहीं छोड़ा है। इसलिये सपा की नियति है कि वह अकेली चुनाव लड़े। इसके बावजूद शिवपाल सिंह यादव अगर उत्तरप्रदेश में भी महागठबंधन का तराना गाहे बगाहे छेड़ देते हैं तो इसके पीछे भ्रम पैदा करने के अलावा कोई उद्देश्य नहीं है।

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