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आरक्षण पर बहस की गुंजाइश है बशर्ते…

मुक्त विचार
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आरक्षण व्यवस्था पर बहस की गुन्जायश है बशर्ते मन शुध्द हो। बिहार विधानसभा के चुनाव में भाजपा की भीषण पराजय को लेकर कमोबेश पूरी समूची मीडिया इस बात पर एक मत है कि इसके पीछे संघ प्रमुख मोहन भागवत का आरक्षण सम्बन्धी बयान सबसे प्रमुख कारक रहा है लेकिन यह भी एक वास्तविकता है कि आरक्षण एक अंतरिम व्यवस्था है और देर सबेर इसे ख़त्म करना ही होगा वरना लोगों में खंड खंड जातिबोध बना रहने से समग्र राष्ट्रीय चेतना का विकास मुश्किल होगा और इसके बिना देश की अखंडता को लेकर आश्वस्त रहना कठिन होगा |

बाबा साहब अम्बेडकर स्वयं इसी मत के थे | उन्होंने एक समय दलितों को आरक्षण का लाभ दिलाने के लिए तीव्र सघर्ष छेड़ा था और इसी के परिणाम स्वरुप पूना पैक्ट के माध्यम से दलितों के लिए इसकी व्यवस्था की गयी लेकिन बाबा साहब के मन में बाद में आरक्षण से दलितों के नफा नुक्सान को लेकर तमाम शुबहा घर कर गये थे और अंतिम दिनों में वे इस बैशाखी से दलित समाज को छुटकारा दिलाने की मंशा जाहिर करने लगे थे | दलित समाज के राजनितिक उत्थान में अहम् भूमिका निभाने वाले मान्यवर काशीराम ने तो स्वाभिमान की खातिर आरक्षित सीट से चुनाव लड़ने से हमेशा परहेज किया जिसकी वजह से वे केवल एक बार ही समाजवादी पार्टी के सहयोग से लोकसभा में प्रवेश कर पाए लेकिन इसकी वजह से उनके मन में कभी अफसोस का भाव पैदा नहीं हुआ |

दलित आन्दोलन की विरासत त्याग और स्वाभिमान के मूल्यों से सिंचित है | आधुनिक काल खंड में इसके प्रणेता बाबा साहब अम्बेडकर की सोच और उनके कृतित्व में इस बात की झलक देखी जा सकती है | वे हमेशा राजनीति में ऊची परम्पराओं और गुणात्मक सुधार के कायल रहे जिसके कारण दलित राजनीति के वर्त्तमान में भी इन्ही रूझानों के अनुशीलन की अपेक्षा की जा रही थी लेकिन अंततोगत्वा दलित राजनीति ने युध्द और प्रेम में सब जायज है की ओर रुख मोड़ लिया तो उसके पीछे कई कारण है | दलित राजनीति को जिस तरह अस्तित्व का संकट झेलना पडा उसमे अगर यह रास्ता न अपनाया जाता तो दलितों के लिए आगे बढ़ना संभव ही नहीं रह जाता |

आरक्षण को लेकर भी दलितों में इसे समाप्त करने की बहस नहीं छिड़ पा रही तो उसके पीछे सवर्णों की उनके प्रति दुर्भावना जिम्मेदार है | जब मोहन भागवत आरक्षण के आधार को बदलने की बात कहते है तो उसके पीछे कोई साफ मंशा नहीं होती | सवर्णों की ओर से जिस तरह के दुराग्रह के चलते यह मांग उठाई जाती है उसे दलित समाज तत्काल भापने की क्षमता रखता है और नतीजतन वह उग्रता के साथ प्रतिक्रियाशील हो उठता है | सवर्ण जातियों ने कभी ये माना ही नहीं है कि दलितों और पिछड़ों के साथ परम्परागत सामाजिक व्यवस्था में कोई अन्याय किया गया है जो इस युग में दूर किया जाना चाहिए ताकि विश्व बिरादरी में एक आदर्श राज्य के रूप में देश का मान स्थापित करने में कोई रुकावट न रहे | सवर्ण समाज की भावना शासन और प्रशासन के सभी पदों पर अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानने की है जिसमे आरक्षण के जरिये दलितों और पिछड़ों के बीच सत्ता का बटवारा उन्हें अपनी जायदाद छिनने जैसा लगता है | अगर उन्हें आरक्षण से योग्यता के हनन और उनके बीच पात्र होते हुए भी नौकरियों से वंचित होने की तकलीफ होती तो वे अनेक सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं जैसी नौकरियों में उन्ही की जाति के लोगों द्वारा योग्य अभ्यर्थियों को ठुकरा कर अपनी जाति के अयोग्य लोगो की भर्ती करने पर भी आपत्ति होती और जिस तरह से आज की सरकारों द्वारा नौकरियों की नीलामी की जा रही है उसके खिलाफ तो वे मरने मारने पर आमादा हो जाती |

सवर्णों के दोहरे व्यहार की वजह से ही आरक्षण को लेकर उनके हर तर्क के प्रति दलितों में अविश्वास उमड़ उठता है | यहाँ तक कि आम दलित उनकी यह बात भी सुनने को तैयार नहीं है कि आई ए एस और आई पी एस अधिकारियों की संतानो को इसके लाभ से वंचित कर देना चाहिये जबकि यह सुझाव मान लेने पर आम दलितों को ही फायदा है |

विडम्बना यह है कि आरक्षण की व्यवस्था आज दलितों के लिए धीमा जहर बन गयी है जिससे उन्हें पदों से वंचित रखने के लिए दिए गये नस्लीय तर्कों को बल मिल रहा है | प्राकृतिक नियमों के तहत योग्यता किसी जाति की बपौती नहीं मानी जाती और यह सत्य भी है लेकिन वर्ण व्यवस्था का नस्लीय सिद्धांत इसके विपरीत है जो कहता है कि बुध्दि का ठेका ईश्वर ने केवल सवर्ण जातियों को दिया है | दलित और पिछड़े जन्मना अयोग्य होते है क्योकि इन जातियों के लोग पूर्व जन्म में किये गये अपराधों की सजा के तौर पर तथाकथित निम्न कुलों में भेजे गये है | दलितों और पिछड़ों के स्वाभिमान के लिए सवर्णों का यह विश्वास एक चुनौती की तरह है जिसे झुठलाने के लिए उन्हें मैरिट में सवर्णों से आगे निकल कर दिखाना होगा पर ऐसा नहीं हो पा रहा क्योकि दलितों में आरक्षण ने प्रतिस्पर्धा की भावना समाप्त कर दी है जिससे वे प्रतिभा माजने के लिए श्रम करने को तैयार नहीं है |

सवर्णों में बहुत से लोग ऐसे है जो दलितों के अतीत को लेकर विगलित है | वे चाहे तो सामाजिक सद्भाव के लिए इस मामले में पहल कर सकते है जिसमे मैरिट में उच्च स्थान बनाने वाले दलित बच्चों को उनकी संस्थाओं द्वारा विशेष सम्मान और प्रोत्साहन देने का प्रयास शामिल है | अगर शुध्द मन से इस दिशा में प्रयास किया जाएगा तो दलित समाज के छात्र छात्राओं में यह ठान लेने की ललक निश्चित रूप से जागेगी कि वे जनरल मैरिट में सबसे आगे निकल कर दिखाए और अगर उन्होंने यह ठान लिया तो यह संभव होना भी कठिन नहीं है क्योकि योग्यता और क्षमता में दलित समाज किसी से पीछे नहीं है |

दलितों में विराट राजनीतिक व्यक्तित्वों का विकास न हो पाना एक बड़ी रुकावट बन गया है | वे अपनी खंडित सोच के कारण स्वयं को केवल एक दवाब के समूह के नेता के रूप में प्रोजेक्ट कर पा रहे है | बाबा साहब का व्यक्तित्व इस मामले में देखा जाना चाहिए जो अर्थ , अंतर्राष्ट्रीय राजनीति , इतिहास , संवैधानिक मामलों , प्रशासन आदि सभी क्षेत्रों में एक अलग तरह की द्रष्टि के धनी थे जिसके कारण तत्कालीन स्थतियों में जबकि दलितों के प्रति समाज में बेहद अनुदार वातावरण था उन्होंने अपनी स्वीकार्यता मुख्य धारा के समाज में कबुलवाकर दिखा दी थी |

रामविलास पासवान में बैसी कुछ संभावनाए थी जिसके कारण एक समय उनका नाम प्रधान मंत्री पद की दौड़ में लिया जाता था लेकिन वे अपना मुकाम कायम नहीं रख पाए | आज जरूरत इस बात की है कि दलितों में नीचे से ऊपर तक पूरे कद के राजनीतिक नेत्रत्व का विकास हो जिसकी स्वीकार्यता समाज के सभी वर्गों में हो सके | सामाजिक न्याय के सेकिंड फेज को ऐसा दलित नेत्रत्व ही अंजाम दे सकता है | लेकिन फिलहाल दलित समाज अभी इतना सक्षम नहीं हुआ कि उसे एकदम आरक्षण से वंचित करने का कदम उठाया जाए | व्यवस्था को पहले दलितों सहित पूरे वंचित समाज को सरकारी नौकरियों के प्रतिनिध्त्व के मामले में उचित स्तर तक पहुचाने का फर्ज पूरा करना होगा हालाकि इस बीच यह पूरी तरह स्पष्ट करके रखना होगा कि आरक्षण की नीति तात्कालिक उपचार है स्थाई व्यवस्था नहीं |

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