कॉलेज के दिनों में मेरे शहर भिंड में इंदौर से हिंदी दैनिक नई दुनिया आता था जो एक दिन बाद आने के बावजूद बहुत ही उत्सुकता के साथ पढ़ा जाता था। उन दिनों मैं कम्पटीशन की तैयारी कर रहा था और यह कहा जाता था कि हिंदी में नई दुनिया ऐसा अखबार है जिसे पढ़े बिना संघ लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी तक मुकम्मल नहीं हो सकती। नई दुनिया में प्रूफ की एक भी गलती नहीं होती थी। सालों तक उसे पूरे देश में प्रिंटिंग में नम्बर एक का पुरस्कार मिला। गरिमा के मामले में नई दुनिया का आलम यह था कि जब उसके सम्पादक राहुल बारपुते ने मालिकान के काफी दबाव में डायरेक्टर बनना स्वीकार किया तो उसी दिन उन्होंने सम्पादक का पद छोड़ दिया। मैंने भी नई दुनिया में भिंड से समाचार प्रेषण का काम किया था और उसके अनुशासन से लेकर रिपोर्टर को ईमानदार बनाये रखने के लिए सारे खर्चों का ईमानदारी से पेमेंट करने की उसकी नीयत का मैं बहुत कायल रहा। दलाल सम्पादकों के चक्कर में आकर राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार करने के फेर में नई दुनिया ऐसा बर्बाद हुआ कि आखिरी में उसको बिकना पड़ा। आज भी नई दुनिया निकल रहा है, लेकिन उसमें पहले जैसी बात नहीं है। दूसरे क्षेत्रीय हिंदी अखबार जो बिजनेस के मामले में बहुत आगे बढ़ गये हैं, नई दुनिया का कद पाने के लिए तमाम टोटके रचा रहे हैं, लेकिन कम तनख्वाह देने की वजह से चपरासी स्तर के लोगों को यूनिट हेड की पोस्ट तक नियुक्त करने की कमजोरी के कारण उनकी भद्द पिटती जा रही है। उनमें प्रूफ की गलतियां तो संभल ही नहीं रही हैं, यूनिट हेड से लेकर जिला हेड तक सामान्य ज्ञान में इतने कमजोर लोगों की भर्ती है कि रिक्शे वाले भी उन पर हंसते हैं। कोई समाचार पत्र प्रतिष्ठान उसका टर्न ओवर कितना ज्यादा है, इससे ऊंचा नहीं होता, उसका कद उसकी गुणवत्ता से तय होता है। अखबार के मालिकान इस बात को जानते भी हैं और प्रयास भी करते हैं तो भी उनका अपने अखबार पर वश नहीं है क्योंकि पता नहीं किस मजबूरी में उन्होंने अपने अखबार में उन लोगों को कर्ता-धर्ता बना रखा है जिन्हें न अपनी क्रेडिबिलिटी की परवाह है न अखबार की। जिन्हें हिंदी का ब्रांड अखबार कहा जाता है उन तक में भाषा, वाक्यांश से लेकर तथ्यात्मक त्रुटियों तक की भरमार शर्मिंदा कर देती है। जाने-अनजाने में यह अखबार हिंदी का गौरव जिस तरह खत्म कर रहे हैं उसे देखते हुए यह कहना पड़ता है कि वे मीडिया की बजाय कोई दूसरा बिजनेस कर लें तो ज्यादा बेहतर है। कोई सच्चा सपूत अपनी मां की बेकद्री बर्दाश्त नहीं करता और मैं समझता हूं कि हिंदी अखबार के मालिकान अपनी मातृभाषा के सच्चे सपूत हैं, इसके बावजूद अगर अपने अखबार पर उनकी लगाम नहीं है तो मां की इज्जत बचाने के लिए वे समाचारपत्र बिजनेस से तिलांजलि दे दें। यह उनके भी भले में होगा और हिंदी संसार पर यह उनका बहुत बड़ा उपकार भी होगा।
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments