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उरई में इप्टा की रंगमंच प्रशिक्षण कार्यशाला के उद्घाटन सत्र पर एक वक्तव्य

मुक्त विचार
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आदिम युग के मानव ने जब अपनी कलात्मक चेष्टाओं से सभ्यता के पहले पायदान पर कदम रखा था। उस समय उसके सामने यह विचारणीय नहीं था कि इन चेष्टाओं की मौद्रिक उपयोगिता क्या है। इन्सान में कुदरती तौर पर मौजूद रहने वाली रचनात्मक कुलबुलाहट उसे ले जाती थी दार्शनिक प्रश्नों की ओर। जब वह नीरव जंगल में कहीं लेटा होता था और आसमान पर उसी समय कोई टूटता हुआ तारा गुजरता तो यह सवाल उसे बेचैन करने लगता कि नभ पर कौन है जो इन सितारों को सजाता है और कैसे कोई तारा टूटता है और टूटने के बाद कहां जाता है। आरम्भ में न शब्द थे न लिपि फिर भी इन्सान अपने को व्यक्त करता था। कभी मिट्टी पर आकृतियां उकेरकर तो कभी मिट्टी से कोई आकृति गढ़कर।
उस समय जब जिज्ञासायें नि:स्वार्थ और निर्दोष होती थीं। उस समय भले ही उतनी पोथियां न पढ़ी गयी हों लेकिन तब ज्ञान का वजन शायद आज की अकादमिकता से बहुत ज्यादा था। जब ज्ञान को व्यक्तिगत छवि संवर्धन से जोडऩे का उपक्रम आदमी सीखने लगा तब एक अपविशेषण आविष्कृत हुआ – बुद्धि विलास के नाम से। यह अकेले पांडित्य के क्षेत्र में विसंगति को परिभाषित करने का प्रश्न नहीं था। सृजन की हर विधा में जैसे-जैसे विलास आता गया। वैसे-वैसे विकृतियां उत्पन्न होती गयीं। कलायें मनोरंजन कर व्यवसाय के लिये हों या सच्चे सुख के सरोकारों से जुड़ी अनुभूतियों के लिये। यह इस क्षेत्र में एक सनातन द्वंद्व है जो सभ्यता के प्रथम सोपान से लेकर आज सभ्यता के शिखर तक पहुंचने पर भी कायम है।
अवसर है एक मई को उरई के गांधी इंटर कालेज में इप्टा की ओर से आयोजित होने वाले 20 दिवसीय रंग मंचीय प्रशिक्षण के उद्घाटन सत्र का। आज हर मानवीय गतिविधि का औचित्य सिद्ध करने के लिये यह बूझना पड़ता है कि उसमें मौद्रिक प्रतिदान की कितनी संभावना हैं। साथ ही वास्तविक मानवीय सरोकारों के संदर्भ से जोड़े बिना रंग मंच सहित कोई कला कितनी सार्थक है।
रंगमंच के क्षेत्र में आज कैरियर बनाने का स्कोप बहुत कम है लेकिन जब इसकी शुरूआत हुई थी उस समय भी किसी ने यह सोचकर नाटक लिखने और अभिनय करने का उपक्रम नहीं किया था कि इससे उसे कोई प्रत्यक्ष भौतिक लाभ मिलेगा। जब लाभ की चेतना का उदय भी नहीं हुआ था यानि वैदिक काल में ही नाट्य विधा का आविर्भाव हो चुका था। यम यमी संवाद और अगस्त्य लोप मुद्रा संवाद के कथोपकथन नाट्य विधा की पूर्व पीठिका के सदृश्य हैं। वैदिक काल में नाट्य चेतना प्रस्फुटित हुई तो पौराणिक कथाओं ने उसे शरीर प्रदान किया। भवभूति का उत्तर रामचरित और महाकवि कालीदास का अभिज्ञान शाकुंतलम् संस्कृत नाटकों के स्वर्ण युग के प्रतीक हैं जिनमें पुराण कथाओं को ही अवलम्ब बनाया गया था। बाद में इस्लामी शासन काल की कट्टरता के कारण नाट्य विधा विलुप्त होती गयी। अंग्रेजों के समय पारसी थियेटरों की परंपरा ने इसे फिर बल दिया लेकिन इनमें ब्रिटिश थियेटरों का अनुकरण था। लोक नाट्यों की तस्वीर भी विकृत थी। नौटंकी आदि के माध्यम से इसका जो स्वरूप सामने आता था वह अत्यंत फूहड़ था।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने रंगमंच से लेकर नाट्य कथा तक में परिवर्तन किया। उन्होंने नाटकों का इस्तेमाल ब्रिटिश शासन के खिलाफ जन भावनायें संगठित करने में किया। इसके बाद जयशंकर प्रसाद ने उत्कृष्ट नाटक लिखे लेकिन वे अभिनेय नहीं थे। मुंबई के मारवाड़ी स्कूल में 25 मई 1943 को स्वाधीनता आन्दोलन व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रही फासिस्ट विरोधी मुहिम के परिवेश के बीच इप्टा की स्थापना हुई। इप्टा ने नाटकों की हर विधा को जीवन्त बनाया। साथ-साथ कलाओं को सामाजिक सरोकारों से जोडऩे की प्रतिबद्धता के तहत नाट्य मंचन को औपनिवेशिक, पितृ सत्तात्मक व जातिवादी शोषण के खिलाफ चेतना जगाने का उपकरण बनाया। इप्टा का यह आंदोलन आज भी जारी है और यहां आयोजित नई पीढ़ी के लिये प्रशिक्षण कार्यशाला ुउस मशाल को लगातार आगे आने वाली पीढ़ी को सौंपने की अविरलता को स्थापित कर रही है।

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