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एकरूपता से विविधता की ओर अग्रसरता सांस्कृतिक धरातल पर प्रकृति का मौलिक स्वभाव है। सामाजिक गठन की शुरूआत कबीलों से हुई। इस आदिम सामाजिकता में विविधता की चुनौती का अनुभव करने का प्रश्न नही था। अकादमिक मामलों में शोध की मौलिक दृष्टि के लिए विख्यात बाबा साहब डाॅ भीमराव अंबेडकर ने देवासुर संग्राम के संबंध में यह स्थापना अंकित की है कि यह मूलतः आर्यों के ही वैदिक और अवैदिक कबीलों के बीच मतभेदों की परिणति थी। बाद में सुगम प्राकृतिक सीमा में वास करने वाले कबीलों ने सामूहिक पहचान का आधार तैयार किया। क्षेत्रीय या प्रांतीय पहचान के सामाजिक गठन का दौर आने तक विविधताओं के समायोजन की यांत्रिकी विकसित करने की कला लोगों ने सीख ली थी। भारत जैसे देश में जहां राष्ट्र का कलेवर महाद्वीप के आयाम तक विस्तीर्ण है, राष्ट्र का स्वरूप किन चुनौतियों के बीच ढला होगा इसकी कल्पना बेहद रोमांचक और दिलचस्प हो सकती है। तमिलनाडु और बिहार एक दूसरे के सापेक्ष 90 अंश के कोण पर दिखाई देने वाले दो प्रांत एक राष्ट्र के हिस्से हो सकते हैं यह आज भी विश्व के दूसरे भागों में रहने वाले लोगों के लिए एक पहेली हो सकता है। एक नस्ल, एक धर्म के लोगों के होते हुए भी यूरोप कितने राष्ट्रों में बटा हुआ है। जबकि भारत के तमाम प्रांतों के बीच न नस्ल का मेल है, न खानपान, पहरावे का और न ही भाषा का। फिर भी सदियों से ये प्रांत एक राष्ट्र की माला में गुंथे हुए हैं। ऐसे देश में प्रांतीय अस्मिताएं पहचान के संकट का अनुभव करने लगती हैं तो अलगाव के सुर फूटने लगते हैं। दक्षिणी राज्यों में राष्ट्रभाषा का विरोध, लिटटे के सवाल पर तमिल राष्ट्रीयता को भारत संघ के प्रति निष्ठा से ऊपर घोषित करना, महाराष्ट्र में उत्तर भारतीय राज्यों के बाशिंदों को खदेड़ने का आंदोलन यह सभी विसंगतियां इस विचित्र राष्ट्र में समय-समय पर स्वाभाविक रूप से उठने वाले ज्वार की बानगियां हैं। लेकिन यह क्षणिक उफान की अभिव्यक्तियां सिद्ध होती हैं। कभी यूरोप या अरब राष्ट्रों की तरह अस्मितावादी आंदोलनों की वजह से हमारे राष्ट्रीय कलेवर के क्षत-विक्षत होने की स्थितियां उत्पन्न नही हुई।
धार्मिक और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं में भी विविधताओं के प्रसार के बीच भारतीय समाज को तोड़ने की बजाय सम्पूर्णता में उसे जोड़ने का मजबूत आधार प्रदान किया है। वैश्विक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की वजह से बौद्ध धर्म ने भारत में महाजनपदीय गणराज्यों के बीच एक सूत्रता का अधार तैयार किया। बाद में आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म की पताका फहराते हुए भारतीय उपमहाद्वीप की चारों दिशाओं में चार धाम स्थापित कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ऐसी आधारशिला रखी जिसका न तो पहले कोई उदाहरण मौजूद था और न उनके बाद दुनियां के किसी कोने में इस तरह का कोई उदाहरण आज तक स्थापित किया जा सका। इतनी सदियां गुजर जाने के बावजूद इस विराट राष्ट्र को संजोने के लिए किया गया यह अनूठा प्रयोग कमोबेश अभी तक सफल सिद्ध है।
इस बीच इस्लामिक संक्रमण के कई दौरों के बीच मुगल इस धरती पर आये। ठंडी जलवायु के देश फरगाना के सुल्तान रहे बाबर ने अपने देश से निर्वासित होने के बाद इब्राहीम लोदी पर आक्रमण का अचानक प्राप्त आमंत्रण स्वीकार करते हुए कभी यह कल्पना नही की थी कि गर्मियों के मौसम में भीषण और जानलेवा लू के थपेड़ों के लिए पहचाने जाने वाले देश भारत को ही उसकी आने वाली पीढ़िया मादरे वतन के रूप में हमेशा के लिए अपना लेंगी। मुगल जब स्थापित हुए तो उन्होंने इस्लाम में सह अस्तित्व की एक नई नजीर प्रस्तुत की। उन्होंने जहां एक ओर हिन्दू राजाओं के साथ रोटी-बेटी के संबंध बनाये वहीं उनके प्रोत्साहन से इस्लाम और सनातन धर्म दोनों के गुण लेकर नये पंथों की श्रंखला शुरू हुई। उन्होंने भारतीय दर्शन, स्थापत्य, संगीत, साहित्य और इतिहास कला को समृद्ध करने में अभूतपूर्व योगदान किया। मुगल आधुनिक भारतीय पहचान के इतने मजबूत स्तंभ बन गये कि फिरंगियों के खिलाफ 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम में उनके वंशज बहादुर शाह जफर को कयादत सौपने की सहज सहमति हिंदू राजाओं की बड़ी सहभागिता के बावजूद बन गई। जबकि बहादुर शाह जफर मूल रूप से लड़ाका न होकर सुकुमार शायर था।
औपनिवेशिक दौर में हर जगह भारतीयता के मजबूत धरातल को तोड़ने की साजिश बुनी गई। आजादी के बाद भी इसकी गहरी जड़ों की वजह से इससे उबरना आसान नही रहा। लेकिन लोकतंत्र में कुल मिलाकर राष्ट्रीय चेतना के आधार को मजबूत करने का काम किया है जो संतोष का विषय है। प्रतिगामी शक्तियां हर देश में मौजूद रहती हैं जो पुनरूत्थानवादी रुझान की वजह से समस्यायें पैदा करती हैं। औपनिवेशिक युग के प्रेत जागृत करने के इनके अनुष्ठान तमाम अंदेशों में घेर देते हैं। लेकिन संवैधानिक शासन के दौर का भारत आधुनिकता के मानकों और प्रतिमान के आधार पर अग्रसर होता हुआ राष्ट्र के रूप में और संगठित होगा यह विश्वास किया जाना चाहिए।
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