Menu
blogid : 11660 postid : 883129

कानून व्यवस्था के मुद्दे के बीच एडीजी एलओ के पद पर परिवर्तन

मुक्त विचार
मुक्त विचार
  • 478 Posts
  • 412 Comments

उत्तरप्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति ज्वलंत मुद्दा बनी हुई है। स्वयं राज्यपाल जिनके नाम पर प्रदेश की सरकार चलती है। पद भार संभालने के दिन से ही राज्य की खराब कानून व्यवस्था पर असंतोष का इजहार सार्वजनिक रूप से कर रहे हैं। हालांकि यह बात दूसरी है कि राम नाईक राज्यपाल के गरिमामय पद पर विराजमान होने के बाद भी कुटिल राजनीतिज्ञ के अपने अन्दर के भूत को खत्म नहीं कर पाये हैं जिसकी वजह से शुरूआत में भले ही किसी ने उनके कानून व्यवस्था सम्बन्धी बयान को तवज्जो दी हो लेकिन अब उनके बयान पर कोई ध्यान नहीं देता। राज्यपाल के बयान से परे होकर भी देखा जाये तो उत्तरप्रदेश में हर रोज कुछ न कुछ ऐसा घटनाक्रम कानून व्यवस्था के संदर्भ में सामने आता है जो राज्य सरकार की किरकिरी करने वाला होता है। फर्रुखाबाद में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह के सामने ही समाजवादी पार्टी के दबंग कार्यकर्ताओं ने पुलिस वालों को पीटने का जौहर दिखा डाला तो सैफई में सत्तारूढ़ पार्टी की सरपरस्ती में ग्रामीण आयुर्विज्ञान संस्थान में धींगामुश्ती करने वाले प्राइवेट एम्बुलेन्स संचालकों ने एक डाक्टर और उसके साथ जा रहे उसके भाई की पिटाई कर दी। कानून व्यवस्था के लिये कलंक बने ऐसे घटनाचक्र की निरंतरता के बीच सपा शासन में सबसे कामयाब एडीजी एलओ मुकुल गोयल का तबादला स्वाभाविक रूप से चर्चा का विषय बन गया है।
वीर भोग्या वसुंधरा के सिद्धांत पर विश्वास करने वाली समाजवादी पार्टी कानून के शासन को शायद कमजोर शासन मानती है जिसकी वजह से मुलायम सिंह के तीन बार के मुख्यमंत्रित्व काल में हमेशा पुलिस अधिकारियों की फजीहत व दबंगों की दुस्साहसिक शहजोरी के किस्से सामने आते रहे हैं। कानून व्यवस्था ऐसी स्थिति में कैसे दुरुस्त हो सकती है जब सत्तारूढ़ लोग यह मानते हों कि पुलिस अफसरों का काम कानून का पालन कराना नहीं बल्कि पार्टी के लोगों के भाड़े की फौज की तरह इस्तेमाल होना है। इस कारण अगर सत्तारूढ़ पार्टी के लोग अपनी शान के लिये कानून का भुर्ता बना रहे हों तो खाकी वाले उन्हें रोकने की बजाय खामोश तमाशाई बने रहें। इतना ही नहीं अगर जरूरत पड़ जाये तो कानून का कचूमर निकालने में उनकी मदद भी करें। इस कारण समाजवादी पार्टी के प्रभाव में पुलिस अफसरों के एक बड़े वर्ग का माइंड सेट भी बदला है। अखिलेश यादव जब मुख्यमंत्री बने तो इसी मापदंड से पुलिस को सपाइयों की मनमानी में सहभागी होने के अनुकूलन के लिये जगमोहन यादव जैसे अफसर को एडीजी एलओ बनाया गया था। आज हालत यह है कि जगमोहन यादव के समर्थक जातिवाद के आधार पर उन्हें डीजीपी बनाने की दुहाई मुख्यमंत्री के सामने तभी से दे रहे हैं जब अरुण गुप्ता को डीजी बनाया गया था लेकिन यादववादी कही जाने वाली अखिलेश सरकार उनकी दुहाई से बिल्कुल भी प्रभावित नहीं हुई। जगमोहन यादव को जब एडीजी एलओ से हटाकर अरुण कुमार इस पद पर लाये गये थे तभी यह जाहिर हो गया था कि अखिलेश यादव भले ही मुलायम सिंह के पुत्र हों लेकिन जनरेशन गैप में बदली अवधारणाओं और जरूरतों के कारण पुलिस के मामले में उनका नजरिया थोड़ा अलग रहेगा। अरुण कुमार पैसे के मामले में ईमानदार थे लेकिन दूसरी ओर व्यक्तिगत इमेज को वे सरकार के हितों से ज्यादा वरीयता देते थे। साथ-साथ में जातिगत मोह भी उन्हें घेर लेता था। अन्ततोगत्वा जब वे अपनी छवि के लिये सरकार की छवि को दाव पर लगाने लगे तो उन्हें हटना पड़ा। ऐसे में एडीजी ला एण्ड आर्डर के पद पर मुकुल गोयल को लाया गया।
उन दिनों पश्चिमी उत्तरप्रदेश सांप्रदायिक हिंसा की आग में झुलस रहा था। मुकुल गोयल ने बयानबाजी से दूर रहकर लेकिन असाधारण प्रोफेशनलिज्म का प्रदर्शन करते हुए काफी हद तक पश्चिमी उत्तरप्रदेश में स्थिति को सुधारा। जिला पुलिस प्रमुख के कार्यकाल में अपनी कार्यकुशलता की वजह से ही उन्हें 13-14 जिलों में एसपी, एसएसपी बनने का मौका मिला। हर सरकार ने उन्हें यह मौका दिया। सहारनपुर की पोस्टिंग के दौरान भाजपा के एक विधायक की हत्या के कारण राजनाथ सिंह सरकार ने उन्हें निलंबित कर दिया था लेकिन बीजेपी के सारे बड़े नेताओं ने भी इसे गलत माना था। फोर्स व जनता दोनों के ही बीच लोकप्रिय बने रहने का जो हुनर उन्होंने प्रदर्शित किया वह लाजवाब कहा जा सकता है। इसी कारण एडीजी एलओ के लगभग 2 वर्ष के कार्यकाल में उन्हें लेकर कभी कोई विवाद नहीं हुआ बल्कि सही बात तो यह है कि उनके इस पद पर रहने की वजह से सरकार इस मुद्दे पर आलोचकों के आक्रमण की धार से बची रही।
यह बात भी सही है कि अखिलेश सरकार ने कम से कम उनको तो अपनी तरह से काम करने का पूरा मौका दिया। यह संयोग है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के प्रिय लखनऊ के एसएसपी यशस्वी यादव को उनकी विवादित कार्यशैली से हटाये जाने के घटनाक्रम के बीच और कानून व्यवस्था के मामले में सरकार को कटघरे में खड़ा करने वाली हुईं कुछ घटनाओं के दौरान ही एडीजी एलओ के पद पर हुआ परिवर्तन एक मुद्दा बन गया है जबकि यह परिवर्तन मुकुल गोयल को हटाने के लिये नहीं हुआ। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उनसे पूरी तरह संतुष्ट थे लेकिन स्वयं मुकुल गोयल सीबीआई या रा जैसी अत्यन्त हाई प्रोफाइल केन्द्रीय पोस्टिंग के महत्वाकांक्षी होने की वजह से इस दिशा में अपने कैरियर को मजबूत करने के लिये दिल्ली वापस जाना चाहते थे। इसके पहले भी वे अखिलेश सरकार बनने के कुछ ही दिन बाद दिल्ली से ही आये थे। उनके बार-बार आग्रह पर अखिलेश सरकार ने उन्हें प्रतिनियुक्ति पर जाने की हरी झंडी भी दे दी थी। यही कारण है कि एडीजी एलओ के पद पर अपना उत्तराधिकारी नामित करने के लिये भी अखिलेश सरकार ने उन्हीं से राय मांगी थी और दलजीत चौधरी को मिली यह पोस्टिंग उन्हीं की संस्तुति का नतीजा है। मुकुल गोयल जब कानपुर के डीआईजी थे तब दलजीत चौधरी इटावा के एसएसपी के रूप में उनके सबसे प्रिय अधिकारियों में थे और दलजीत चौधरी से उनकी यह नजदीकी बराबर बनी रही। एडीजी एलओ के पद पर भी उनका यह सामंजस्य और प्रगाढ़ता दलजीत चौधरी के साथ उस समय बरकरार रही जब वे इलाहाबाद जोन के आईजी बनाये गये। पुलिस अधिकारियों की अपनी सीमायें हैं। लोकतांत्रिक शासन में प्रशासन को हर सरकार की अपनी अलग नीति व कार्यशैली के मुताबिक अपने दायित्व का निर्वाह करना पड़ता है। इस वास्तविकता के मद्देनजर एडीजी एलओ के रूप में मुकुल गोयल की भूमिका शानदार रही और उसी ढंग से उनके द्वारा नामित दलजीत चौधरी भी इस समय उक्त पद के सर्वश्रेष्ठ विकल्प हैं। इटावा की उनकी पोस्टिंग के समय चाहे दस्यु उन्मूलन का मामला हो या आम पीडि़तों की समस्याओं के निराकरण का। उन्हें देखने वाले जानते हैं कि इस जिम्मेदारी को कितनी कुशलता और संवेदनशीलता के साथ उन्होंने निभाया था। इसी कारण एडीजी एलओ के रूप में उनकी भूमिका को लेकर पुलिस की कार्यशैली पर बारीकी से निगाह रखने वाले लोग उनकी इस पोस्टिंग से बेहतरी की उम्मीद कर रहे हैं।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply