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कौन करा रहा है मुलायम सिंह की जासूसी

मुक्त विचार
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2014 के लोकसभा चुनाव में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को पूरी उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने की उनकी मुराद इस बार जरूर ही पूरी हो जाएगी। प्रारंभिक आंकलन में सोलहवीं लोकसभा के त्रिशंकु स्वरूप की भविष्यवाणी की जा रही थी। मुलायम सिंह ने इसका हवाला देते हुए अपने कार्यकर्ताओं में जज्बाती जोश पैदा करने के लिए कहा था कि उम्र के हिसाब से यह उनके प्रधानमंत्री बनने का आखिरी मौका है इसलिए उत्तर प्रदेश में पार्टी को ज्यादा से ज्यादा सीटें जिताने के लिए पूरी ताकत लगा दो ताकि समाजवादी पार्टी तीसरे मोर्चे की पार्टियों में सबसे बड़ी पार्टी बनकर सत्ता की दावेदारी के लिए कांग्रेस तक को अपने समर्थन के लिए मजबूर कर सके लेकिन सपा कार्यकर्ताओं का जोश मतदाताओं के मूड के आगे कोई काम नहीं आया। माना यह जाता है कि सपा मुखिया का खुफिया तंत्र सबसे ज्यादा मजबूत है जिसकी वजह से चुनाव के मामले में उन्हें पहले ही अंदाजा हो जाता है कि उनकी और प्रतिद्वंद्वियों की हालत क्या है लेकिन सोलहवीं लोकसभा के चुनाव की वे आखिरी तक थाह नहीं ले पाए। जब नतीजे घोषित हुए तो उनकी पार्टी मात्र पांच सीटों पर सिमट कर रह गई। मुलायम सिंह को इससे जबरदस्त सदमा लगा और कुछ दिनों के लिए राजनीतिक सक्रियता के नाम पर वे संज्ञा शून्य हालत में रहे। यहां तक कि अपने बेटे की प्रदेश सरकार के भविष्य की चिंता भी उन्हें सता उठी थी लेकिन चरखा दांव के माहिर और किस्मत के धनी मुलायम सिंह का मनोबल उसी दिन वापस लौट आया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में पहुंचने पर भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने उनकी इस तरह अïगवानी की जैसे भाजपा की निगाह में प्रतिपक्ष के सबसे मजबूत राष्ट्रीय नेता वे हों। मोदी भी उनसे बहुत गर्मजोशी से मिले। इसके बाद मोदी और उनके बीच निजी संबंधों के ऐसे अध्याय को लिखे जाने की शुरूआत हुई जिसमें अखिलेश सरकार के दमन से जूझते रहे भाजपा कार्यकर्ताओं का नए परिस्थितियों में प्रदेश में उग्र प्रदर्शन बेमानी हो गया। मुलायम सिंह के पौत्र सांसद तेजप्रताप सिंह के विवाह समारोह में प्रधानमंत्री की उनके पैतृक गांव में पहुंचकर दी गई हाजिरी और राजद अध्यक्ष लालू से रिश्तेदारी जुडऩे की वजह से जनता परिवार के महाविलय की भूमिका तैयार होने की परिघटना ने तो उन्हें राष्ट्रीय राजनीति के केेंद्र बिंदु में बहुत ही मजबूती से स्थापित कर दिया है लेकिन ऐसी क्या बात है जिसके चलते अपने लिए पूरी तरह से मेहरबान इस राजनीतिक मौसम में भी मुलायम सिंह व्यथित हैं। कोई टीस उन्हें कसक रही है जिसका इजहार मुलायम सिंह ने पार्टी के जिलाध्यक्षों के साथ लखनऊ में हुई बैठक में किया। मीडिया ने इस आयोजन के उनके भाषण के सबसे महत्वपूर्ण अंश को लो प्रोफाइल में रखा जबकि सबसे ज्यादा चर्चा इसी अंश पर होनी चाहिए थी। मीडिया का यह रवैया विचित्र ही कहा जाएगा। उनके भाषण का सबसे सनसनीखेज अंश वह था जिसमें उन्होंने यह कहकर चौंका दिया कि पार्टी के एक वर्ग उन तक की जासूसी करने की हिमाकत कर रहा है।
मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी का गठन करते समय अपने आप में बड़ी शख्सियत वाले नेताओं के भरे पूरे कुनबे को साथ में सहेजा था जिसमें स्वयंभू छोटे लोहिया जनेश्वर मिश्रा थे तो बेनीप्रसाद वर्मा जिन्हें पार्टी में लाने के लिए मुलायम सिंह को उनके घर जाकर दंडवत होना पड़ा था। रेवती रमण सिंह भी थे जिन्होंने मुलायम सिंह से नेता प्रतिपक्ष का पद छीनकर उन्हें नीचा दिखाया था लेकिन इस अपमान को भूलकर उन्होंने रेवती रमण को भी अपनी पार्टी में जोड़ा। इस तरह समाजवादी पार्टी शुरू में दिग्गज नेताओं के सामूहिक नेतृत्व वाली पार्टी के रूप में अस्तित्व में आई लेकिन धीरे-धीरे मुलायम सिंह ने सारे दिग्गजों को बोनसाई कर दिया और पार्टी तंत्र मुलायम सिंह एंड हिज फैमिली प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में तब्दील हो गया। आज रेवती रमण सिंह जैसे दिग्गज नेता समाजवादी पार्टी में उनके परिवार के कारिंदे बनकर रह गए हैं। वे मुलायम सिंह से इसके बावजूद अलग नहीं जा सकते क्योंकि उनकी अपनी राजनीतिक जमीन इस बीच में बची नहीं रह गई है। मुलायम सिंह के नाम के बिना वे खुद चुनाव नहीं जीत सकते अलग होकर दूसरे को क्या जिताएंगे। जाहिर है कि ऐसी परिस्थितियों में मुलायम सिंह की जासूसी कराने का दुस्साहस या मूर्खता कोई गैर नेता तो कर नहीं सकता लेकिन उनके परिवार में अïवश्य पार्टी पर वर्चस्व को लेकर द्वंद्व छिड़ा हुआ है।
खबरें हैं कि होली के समय जब मुलायम सिंह गंभीर हालत में अस्पताल पहुंच गए थे उस समय उनकी स्थिति को लेकर तरह-तरह की अफवाहें फैल गई थीं। उनके उत्तराधिकार को हथियाने का मंसूबा रखने वाले परिवार के सदस्य उन दिनों इन अफवाहों की गहराई जानने में सबसे ज्यादा दिलचस्पी ले रहे थे। स्वस्थ होने के बाद जब मुलायम सिंह को यह बातें पता चलीं तो उन्हें काफी ठेस लगी। मुलायम सिंह ने अपने परिवार की मजबूती को ही अपनी राजनीतिक शक्ति का मुख्य स्रोत बनाया है। कई बार परिवार में कलह की नौबत आई। मुलायम सिंह ने किसी को सबक सिखाने की नहीं सोची। अपने दिवंगत भाई के पितृविहीन पौत्र का विवाह बेटे अखिलेश की शादी से भी ज्यादा धूमधाम से रचाकर उन्होंने भातृत्व प्रेम के लिए पूजे जाने वाले भगवान राम के आदर्श को जीवंत कर दिया। 2006 के सैफई समारोह में मंच पर ही प्रो. रामगोपाल और शिवपाल के बीच तलवारें खिंचती नजर आने लगी थीं लेकिन फिर भी मुलायम सिंह ने परिवार में फूटन नहीं होने दी। जब अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला लिया गया था तब मुलायम सिंह की दिली तमन्ना थी कि अब प्रदेश की बागडोर पूरी तरह उनके हवाले कर उनके चाचा लोग राष्ट्रीय राजनीति में सिक्का जमाने के लिए उनके साथ काम करें। मुलायम सिंह अपने अनुजों में शिवपाल सिंह को सबसे ज्यादा स्नेह करते रहे हैं और जिनके कारण उन्हें समय-समय पर भारी आलोचनाएं झेलनी पड़ीं लेकिन उन्होंने काफी शिवपाल सिंह का मनोबल नहीं गिरने दिया। उन शिवपाल सिंह ने ही उनकी बात नहीं मानी। बड़ों के बीच अखिलेश को सरकार में अपना व्यक्तित्व उभारने के लिए शुरू में काफी परेशानी झेलनी पड़ी जिससे मुलायम सिंह को बड़ी वेदना हुई पर वे करते क्या बात घर की थी। आखिर उन्होंने रणनीति के तहत पार्टी बैठकों में अपने संबोधनों में जताया कि मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश उन तक की बात नहीं मानते क्योंकि वे किसी की सलाह पर निर्भर नहीं हैं। जाहिर किया कि कुछ मंत्रियों से वे बहुत नाराज हैं लेकिन उनके कहने पर भी अखिलेश ऐसे मंत्रियों को नहीं हटा रहे। शुरू में अखिलेश भी इसे पिता द्वारा अपने ऊपर सीधा हमला मानकर चौंके लेकिन उन्हें बात तब समझ आई जब लोकसभा चुनाव के परिणाम को देखते हुए पार्टी के अंदर हो रही कानाफूसी के मद्देनजर उन्होंने खुद भी हतमनोबल होकर प्रदेश अध्यक्ष का पद छोडऩे का मन बना लिया लेकिन मुलायम सिंह ने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने दोनों पदों पर कोई परिवर्तन न करने का फैसला सुनाकर संदेश दे दिया कि प्रदेश में अखिलेश का निद्र्वंद्व नेतृत्व स्थापित करना उनकी प्राथमिकता है। इसके बाद अखिलेश का आत्मविश्वास बढ़ा और छाया मुख्यमंत्री की छवि से बाहर निकलने के लिए उन्होंने अधिकार पूर्वक अकेले फैसले लेने शुरू कर दिए।
लेकिन मुलायम सिंह की सूझबूझ का जवाब नहीं है जिससे वे पारिवारिक चुनौतियों का प्रबंधन भी अपने तरीके से करने में लग गए हैं। लालू यादव ने जो एक समय प्रधानमंत्री की उनकी दावेदारी में उस समय आड़े आ गए थे जब पूरी पार्टी उनके लिए लगभग सहमत हो गई थी। उनसे वह कटुता भुलाकर उन्होंने रिश्तेदारी के लिए हां यूं ही नहीं कहा। परिवार के अंदर भी अखिलेश की अपनी विश्वसनीय टीम बने इसमें यह उनका मुख्य प्रयोजन रहा। रिश्तेदारी के बाद लालू के माध्यम से ही जनता परिवार के महाविलय की आयोजना को उन्होंने आगे बढ़ाया जिसमें लालू ने उन्हें सर्वमान्य नेता के रूप में स्वीकार किए जाने की भूमिका तैयार की। नई पार्टी का चुनाव चिह्नï भी साइकिल होगा यह संकेत मिले हैं। उत्तर प्रदेश में इसका कोई प्रत्यक्ष लाभ पार्टी को न दिखने की वजह से कई नेताओं ने नेता जी के सामने इस पर सवाल उठाए जिसके जवाब में मुलायम सिंह ने कहा कि सपा को राष्ट्रीय दर्जा दिलाने के लिए यह जरूरी है। वैसे इस समय जबकि मोदी महाबली की तरह राष्ट्रीय राजनीति में जम चुके हैं और लोकसभा के अगले चुनाव का समय फिलहाल काफी दूर है। सपा को राष्ट्रीय दर्जा मिल जाने से क्या हासिल होने वाला है यह भी एक सवाल है पर मुलायम सिंह की दूरदृष्टि कमाल की है जिसकी वजह से वे अलक्षित निशाने साधते हैं। मुलायम सिंह बिहार के चुनाव तक पार्टी की राष्ट्रीय भूमिका को इतना आकर्षक बना देना चाहते हैं कि परिवार के सारे वरिष्ठ सदस्य उसमें खपने में असुविधा महसूस न करें। यह पैंतरा विधानसभा के अगले चुनाव तक शिवपाल सिंह को प्रदेश मंत्रिमंडल छोड़कर राष्ट्रीय भूमिका में आने के लिए रजामंद करने में कारगर सिद्ध हो सकता है। मुलायम सिंह द्वारा अपनी जासूसी का बयान देकर राजनीतिक सनसनी पैदा करने के पीछे दूसरे कारण भी हैं। मोदी का अपने घर गर्मजोशी से स्वागत उनके मुरीद वोट बैंक यानी मुसलमानों को बिल्कुल रास नहीं आया था। इसी बीच हासिमपुरा कांड के दोषी पीएसी जवानों को छोड़े जाने का अदालती फैसला सामने आ गया जिसकी अपील दायर करने में राज्य सरकार कोई रुचि नहीं दिखा रही। सांप्रदायिकता के चैंपियन की पार्टी की सरकार की धर्मनिरपेक्षता के धरातल पर ढुलमुल मानसिकता मुद्दा बनती जा रही है। इसे पाश्र्व में ढकेलने के लिए मुलायम सिंह ने इंदिरा गांधी की स्टाइल में दूसरा शिगूफा उछाल दिया। अपनी जासूसी की चर्चा के साथ-साथ समाजवादी पार्टी के जिलाध्यक्षों को जमीनों पर कब्जे जैसी करतूतों में शामिल होने के लिए फटकारने और इस मामले में सीमा से ज्यादा बढ़ चुके जिलाध्यक्षों को हटाने का आदेश जारी करके उन्होंने राजनीतिक चर्चाओं का रुख बदलने की कोशिश की है। इसी क्रम में सिंचाई विभाग में आरक्षण की प्रक्रिया से पदोन्नत अधिकारियों और कर्मचारियों को पदावनत करने का अखिलेश सरकार का फैसला सामने आया है। समाजवादी पार्टी को उम्मीद है कि इससे दूसरी तरह की बहसों का बवंडर तेज हो जाएगा और उसमें हासिमपुरा के पीडि़तों की आहें दबकर रह जाएंगी। मायावती ने जब अचानक लखनऊ में प्रेस कांफ्रेंस करने की घोषणा की थी तो समाजवादी पार्टी को लगा था कि अखिलेश सरकार द्वारा उठाए गए कदम के पीछे छिपी मंशा पूरा होने का मौका वे देंगी लेकिन मायावती आरक्षण के मुद्दे पर उतनी मुखर नहीं हुईं जितनी सपा को आशा थी। बहरहाल अभी और गर्मागर्म मुद्दे समाजवादी पार्टी और राज्य सरकार उपजाएगी। यह नेता जी का क्राइसिस मैनेजमेंट का अपना तरीका है।

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