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निरा बाजारू होता व्यापारिक नीति शास्त्र

मुक्त विचार
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ग्लोबलाइजेशन के बाद कारोबारी दुनिया के नीति शास्त्र में काफी तब्दीली आई है। गांंधी जी कहते थे कि व्यापार में भी नैतिकता जरूरी है जबकि ग्लोबलाइजेशन ने व्यापार में न केवल जमीनी सरहदों को तोड़ा है बल्कि नैतिक और मान मर्यादाओं की रुकावटों को भी बेमानी कर दिया है। मुक्त अर्थ व्यवस्था दरअसल उन्मुक्त व्यवस्था है। मैगी के नमूने फेल होने के बाद व्यापारिक क्षेत्र में बढ़ रही उच्छृंखलता और अराजकता अपने तमाम आयामों के साथ बहस के केेंद्र में आ गई है।
मैगी में जस्ता और मोनो सोडियम ग्लूटामेट की मात्रा खतरनाक हद तक पाई जाने के बाद भारतीय खाद्य संरक्षा और मानक प्राधिकरण ने इसकी बिक्री को प्रतिबंधित करने की घोषणा की थी। कई राज्य सरकारों और सेना की कैैंटीन में भी बाद में इसे प्रतिबंधित कर दिया गया और अब तो कई दूसरे देशों ने भी मैगी के खिलाफ कदम उठाने की घोषणा की है। मैगी स्विटजरलैंड की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी का उत्पाद है। इसी बीच तमिलनाडु सरकार ने मैगी की तरह ही राज्य में सर्वाधिक बिक्री वाले तीन और कंपनियों के नूडल्स का प्रयोगशाला परीक्षण कराया। इनके नूडल्स भी खाद्य सुरक्षा के पैमाने पर खरे नहीं उतर सके। इस कड़ी में सारे जंक फूड उत्पादों के खिलाफ प्रतिबंध लगवाने की मुहिम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शुरू हो गई है। प्रसंग वश यह आंकड़े भी जारी हुए हैं कि मैगी के नेस्ले इंडिया कंपनी का विज्ञापन का सालाना खर्च तीन सौ से साढ़े चार सौ करोड़ रुपए के बीच था जबकि गुणवत्ता व खाद्य सुरक्षा के लिए कंपनी मात्र बारह से बीस करोड़ रुपए ही व्यय कर रही थी।
एक आम कहावत है युद्ध और प्रेम में सब जायज है जबकि मुक्त अर्थ व्यवस्था अघोषित तौर पर इस कहावत को अपनी कार्य नीति में लागू किए हुए है कि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बटोरने के लिए व्यापार में कुछ भी करना जायज है। सबसे ज्यादा बिक्री की संभावना खाद्य पदार्थों की रहती है इसलिए इनमें अधिकतम मुनाफा बटोरने के लिए व्यापार जगत उन हथकंडों को अपनाने से भी पीछे नहीं हटता जिनसे खाद्य के नाम पर अखाद्य जहरीली उन वस्तुुओं का सेवन लोगों को कराया जाए जो महामारी की परिणति घटित कर दें। मोनो सोडियम ग्लूटामेट की वजह से खाद्य सामग्री में ऐसा स्वाद पैदा हो जाता है कि इसका चस्का जीभ से छूूटता नहीं है और बरबस ही लोग उसे खाने के लिए अधीर होने लगते हैं। दूसरी ओर एमएसजी यानी मोनो सोडियम ग्लूटामेट यकृत में तमाम रासायनिक स्राव में घातक प्रतिक्रिया उत्पन्न करने का कारण बनते हैं जिनका प्राणघातक सिद्ध होना अनिवार्य है।
ऐसा नहीं है कि आर्थिक उदारीकरण के पहले ज्यादा मुनाफे के लिए ऐसे फरेब न होते हों जिनके तहत खाद्य सामग्री में मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मिलावट से मुनाफाखोरों द्वारा परहेज न रखा जाता हो। पश्चिमी बंगाल में एक कंपनी के खाद्य तेलों के प्रयोग से पांच हजार लोगों के विकलांग होने की खबर ने कई दशक पहले सारे देश को झकझोर कर रख दिया था किंतु पुराने दौर में इक्का-दुक्का लोग ही ऐसी अधम नीयत से काम करने की सोचते थे क्योंकि उस समय समाज विरोधी और मानव विरोधी अपराध का खुलासा व्यापक हिकारत का कारण बन जाता था जिसे आसानी से झेला नहीं जा सकता था। आज स्थितियां बदल चुकी हैं। खाने पीने के सामान में घातक मिलावट से न चूकने वाले नेस्ले इंडिया के खिलाफ सर्वसम्मत सामाजिक निंदा का वातावरण नहीं बन पा रहा बल्कि कुछ बड़े आभिजात्य वर्गीय कलमदार पूरी निर्लज्जता के साथ मैगी की हिमायत कर रहे हैं जिससे नेस्ले इंडिया को किसी भी तरह का अपराध बोध न हो पाए।
वैश्वीकरण के साथ एकरूपता को थोपना भी एक बड़ा मुद्दा है जो कि विविधता के नियम पर चलने वाली कुदरत के चरित्र के खिलाफ है। परंपरागत व्यंजनों और पकवानों को विस्थापित करके सुविधा और टेस्ट के नाम पर औद्योगिक खाद्य पदार्थों का सार्वभौमिकीकरण करना भी इसी तरह का एक अप्राकृतिक व्यापार है। परंपरागत व्यंजन और पकवान किसी देश या समाज की विशिष्ट संस्कृति का भी प्रतिनिधित्व करते हैं और उनमें वैज्ञानिकता भी होती है। हर देश और क्षेत्र में वहां की जलवायु व मिट्टी की विशेषता के आधार पर जो वनस्पतियां उपजती हैं उनसे परंपरागत व्यंजन और पकवान तैयार किए जाते हैं। इस कारण यह व्यंजन और पकवान स्वाद के साथ साथ उस क्षेत्र के लोगों के स्वस्थ पोषण में भी सहायक होते हैं। हर्बल व्यंजन और केमिकल से संरक्षित आधुनिक खाद्य सामग्री में स्वास्थ्य की दृष्टि से क्या अंतर है इसका अंदाजा हर कोई आदमी अपने विवेक का प्रयोग करके लगा सकता है। जाहिर है कि मुक्त अर्थ व्यवस्था के जरिए जो परिवर्तन हो रहे हैं उनके परिणामों को उनकी पूरी विविधता में समझने की जरूरत है। यह परिवर्तन संस्कृति, स्वास्थ्य और नैतिकता तीनों को चोट पहुंचाने का काम कर रही है।
अब लागत के पहलू से भी देखें। व्यापारिक उत्पाद के सार्वभौमिकीकरण को सफल बनाने के लिए किसी भी कंपनी को विज्ञापन के मद में बहुत खर्चा करना पड़ता है। मैगी के मामले में महानायक अमिताभ बच्चन, माधुरी दीक्षित और प्रीति जिंटा के खिलाफ भी मुकदमा हुआ है। कानूनी तौर पर या व्यवहारिक रूप से यह नुकसानदेह खाद्य सामग्री की खपत का वातावरण बनाने के लिए कितने जिम्मेदार हैं। हो सकता है कि इसमें दोराय हो लेकिन मैगी का विज्ञापन करने का जो अकूत मेहनताना इन्होंने लिया उसका तार्किक आधार क्या है यह जरूर विचारणीय होना चाहिए। तथाकथित स्टार फरेबी तौर तरीकों से अपनी ब्रांडिंग बढ़ाते हैं और उसके आधार पर कुछ भी बिकवा देने की क्षमता आ जाने की वजह से ये लोग माडलिंग में मनमाना मेहनताना वसूल करते हैं। इनकी वजह से कंपनी का जो खर्चा बढ़ जाता है उसके चलते कंपनी की मजबूरी हो जाती है कि वह मुनाफा बनाए रखने के लिए स्याह सफेद करे भले ही उससे जनहानि हो जाए। इस कारण मैगी विवाद का एक सबक यह भी है कि फिल्म स्टार, क्रिकेट स्टार और ग्लैमर की दुनिया के अन्य बादशाहों के अधिकतम मेहनताने का पैमाना तय किया जाना चाहिए। साथ ही यह कानून भी बनना चाहिए कि कुल प्रोडक्शन में कच्ची सामग्री के खर्च सापेक्ष विज्ञापन सहित बिक्री की रणनीति पर होने वाले खर्च का एक अनुपात कानूनी तौर पर तय किया जाए। गुणवत्ता और खाद्य सुरक्षा के मानकों को बनाए रखने के लिए यह सीमाएं नितांत आवश्यक हैं। आज के समय मर्यादाओं की बात करना और वह भी व्यापार में बेतुका करार दिया जा चुका है लेकिन अगर दुनिया को बचाना है तो ऐसी बेतुकी बातें करनी ही पड़ेंगी।

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