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नोटबंदी के साइड इफेक्ट से बेचैन पीएम मोदी ने आखिर ऐसा क्या कह दिया जिससे बात और गई उलझ

मुक्त विचार
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी के फैसले के कारण जटिल होती जा रही स्थितियों के मद्देनजर रविवार को गोवा में जो आक्रामक भाषण दिया उसे उनके समर्थक क्रांतिकारी बता रहे हैं लेकिन स्थितियां गवाह हैं कि चकाचौंध पैदा करके लोगों को चमत्कृत कर अपनी टीआरपी बढ़ाने के बाजारी तौर-तरीकों में सरकार को लेने के देने पड़ गए हैं। इस तथाकथित क्रांतिकारी फैसले से कोई रचनात्मक उत्साह पैदा नहीं हुआ। स्थिति तो यह है कि सरकार ने कल्पना भी नहीं की थी उससे कहीं बहुत अधिक बदतर और चुनौतीपूर्ण हालात सामने आ रहे हैं। जिससे पीएम मोदी स्वयं भी बुरी तरह बेचैन हो गए हैं। वे नोटबंदी का शोशा छोड़कर आराम से जापान यात्रा यह सोचकर रवाना हुए थे कि अब कुछ हफ्तों उनकी दाल-रोटी नोटबंदी जनित थ्रिल के सहारे बहुत अच्छी तरीके से चलेगी लेकिन इस कदर अफरातफरी के हालात पैदा हो गए कि मोदी को लौटते ही सार्वजनिक रूप से अति नाटकीय, अति भावुक, अति क्रांतिकारी का बाना ओढ़कर लोगों पर अपने जमे सिक्के को बहाल रखने के लिए विद्रूपता की हद तक स्वांग करने को मजबूर होना पड़ा।
जो लोग सामाजिक सुधार से डरते हैं मोदी सरकार के सबसे बड़े खैरख्वाह वे ही लोग हैं इसलिए ऐसे तबके के द्वारा इस सरकार को हर बिंदु पर जस्टिफाइ करना लाजिमी है। चूंकि यह तबका ऐतिहासिक, सामाजिक कारणों से सबसे ज्यादा मुखर और सक्रिय है इसलिए यह इस भ्रम को रचाने में सफल रहता है कि उसका प्रतिपादन सम्पूर्ण राष्ट्रीय जनमत का उद्घोषक है जबकि यह सच्चाई नहीं है। उसकी सोच और स्वर से देश के बहुसंख्यक समाज का कोई साम्य नहीं है और जिसे जनादेश और जनाकांक्षा कहते हैं उसका निर्धारण किसी देश और समाज के बहुजन तबके से होता है। मुट्ठी भर भद्रजनों का देवलोक किसी देश को अपने तई नहीं हांक सकता। अगर किसी षड्यंत्र और कुटिलता से अल्पसंख्यक भद्र तबका देश को हांकने का विशेषाधिकार किसी तरह प्राप्त कर भी लेता है तो उसके परिणाम अंततोगत्वा उस देश और समाज के लिए ही अनर्थकारी होते हैं। जिसका उदाहरण है बुद्धि विलास में उत्तुंग वैचारिक शिखरों की सारी चोटियां लांघ देने वाले इस महान देश का हर विदेशी चुनौती के सामने श्रीहीन हो जाना और नतीजतन सदियों तक अपनी तमाम विशालता और साधन संपन्नता के बावजूद देश और समाज का दूसरों की गुलामी का जुआ ढोने के लिए विवश रहना।
आर्थिक और वित्तीय क्षेत्र में इस समय कई प्रतिमान बतौर विकल्प के नमूदार हैं। आर्थिक उदारीकरण की सर्वमान्य समझी जा रही स्थापनाओं में यह माना जाता है कि दुनिया की बेहतरी के लिए लगातार आविष्कार होते जाना जरूरी है और आविष्कारण की प्रेरणा तभी पनपती है जब लोगों को इस मामले में भौतिक प्रलोभन से जोड़ा जा सके। साथ ही यह भी मुगालता है कि आविष्कारों से तकनीक सस्ती होगी और इससे हर आदमी की बुनियादी जरूरतों के ही नहीं सुख-सुविधा के सामान तक भी पहुंच सम्भव की जा सकेगी। लेकिन इतिहास इसे पुष्ट नहीं करता।
अगर इतिहास का लेखाजोखा सामने रखा जाए तो पता चलेगा कि बिजली से लेकर टेलीफोन संचार तक के आविष्कार करने वालों को इन आविष्कारों का प्रत्यक्ष में कोई बहुत बड़ा भौतिक लाभ नहीं मिला और कहा जाए तो सही बात यह है कि उन्हें भौतिक लाभ की बहुत लालसा भी नहीं थी। हर आदमी में किसी न किसी चीज की कुदरती धुन होती है और जिन लोगों में वैज्ञानिक आविष्कारों की कुदरती धुन थी और अनुरूप उन्होंने सहज में आविष्कार की किल्लोल क्रीड़ाएं कीं। वे जाने अनजाने में समाज को अभूतपूर्व सहूलियतें प्राकृतिक चुनौतियों के बरख्श देने का योगदान कर गए। लेकिन जब धुनी लोगों के नये आविष्कारों के लिए आगे आने का धैर्य खत्म हो गया और आकर्षक प्रोत्साहन का लालच देकर आविष्कारक गढ़े जाने लगे तो खेल उलटा होना लगा। आज जो आविष्कार सामने आ रहे हैं उनसे मानवता को जितना फायदा नहीं होता उससे ज्यादा नुकसान होने लगता है। इन आविष्कारों की देन है कि आज बिगड़ती जलवायु और बेकाबू होते आतंकवाद से बचाने के लिए शीर्षासन तक करने की मशक्कत विश्व सरकारों को करनी पड़ रही है।
मौजूदा परिवेश में मानवता की हालत मकड़ी की तरह हो गई है जो अपने ही बुने जाल को अपनी मौत का फंदा बना लेती है। लेकिन मौजूदा परिवेश को ज्यादातर मुख्यधाराएं अनिवार्य बुराई के रूप में स्वीकार कर चुकी हैं जिससे इनके समानांतर किसी नये विकल्प की ओर निगाह फेंकने की इच्छाशक्ति तक जताना मुमकिन नहीं दिख पा रहा। दूसरी ओर बहुत दूर तक देखने की क्षमता रखने वाले आध्यात्मिक सोच से संपन्न लोग संख्या में कम होने का बावजूद आज भी मौजूद हैं जो वर्तमान व्यवस्था के मकड़जाल से परे का रास्ता देखने की सलाइयत रखते हैं। जब कोई राजनीति में धर्म और अध्यात्मक की बात करता है तो लोगों को उसके चाल, चेहरा और चरित्र में ताजगी होने का मुगालता हो उठता है। जिसका तलबगार समाज हर युग और हर कालखंड में रहा है और रहेगा। लेकिन इसे भाषणों और प्रवचनों की शोभा बनाना एक अलग बात है और इस वैकल्पिक राह को जीना दूसरी बात।
मोदी शासन इसी तरह की विडम्बनाओं का शिकार है। इन विडम्बनाओं के चलते यह सरकार जिस संकीर्ण दृष्टि के लिए अभिशप्त है उसके चलते वह इस बात में अंतर नहीं कर पा रही कि भ्रष्टाचार या काला धन या अव्यवस्था किसी व्यक्ति और पार्टी के चरित्र की देन है या व्यवस्था की गड़बड़ियों की। भोगवाद जिसे परिष्कृत शब्दावली में उपभोक्तावाद की संज्ञा दी जाने लगी है बहुत पहले विकास का ईंधन घोषित कर दिया गया था लेकिन भारत की आजादी की लड़ाई के समय जो अगुवाकार थे वे सही अर्थों में नेता इसलिए थे कि उन्होंने धारा के साथ बहना मंजूर नहीं किया। उनके जेहन में ठोस प्रतिबद्धताएं थीं और इतिहास की धाराओं को इन्हीं प्रतिबद्धताओं के अनुरूप मोड़ने का पुरुषार्थ दिखाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी।
यह संयोग ही है कि गुजरात में बहुत झकझोरने वाले व्यक्तित्व आधुनिक युग में पैदा होते रहे हैं फिर भले ही वह महात्मा गांधी हों, मुहम्मद अली जिन्ना अथवा चाय वाले से प्रधानंमंत्री की कुर्सी तक का सफर तय करने वाले स्वप्नातीत नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी। विलक्षणताओं में एक पंक्ति में शुमार किए जाने के बावजूद मोदी न तो गांधी हैं और न हो सकते हैं। महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई को आधुनिकता के नाम पर हावी हो चुकी मान्यताओं से विलग कर बुनियादी नैतिकता से जोड़ने की कोशिश की जिसमें उपभोक्तावाद का कोई स्थान नहीं हो सकता था इसलिए महात्मा गांधी ने अपनी संपन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि के बावजूद अधनंगे फकीर की फटेहाल सी नियति को स्वीकार किया और स्वयं का उदाहरण सामने रखकर उस समय के मोतीलाल जवाहर लाल नेहरू से लेकर पूरी इलीट तबके को सारे फैशन छोड़कर खादी के कपड़े पहनने के लिए रजामंद कर पाया। इसका क्रांतिकारी असर समाज में हुआ। लाखों-करोड़ों आम जनता में भी उद्दात भावनाएं पैदा हुईं। जिससे उन्होंने निरीह नियति को झटक कर तेजस्वी तेवर ओढ़ लिए।
इस मामले में अगर मोदी को देखा जाए तो लगता है कि उन्हें नैतिक अवलंबनों पर बहुत भरोसा नहीं है इसलिए मार्केटिंग के चमत्कारों की शरण में जाना कार्यसिद्धि के लिए वे आवश्यक समझते हैं। उन्हें अपने लुक की चिंता उसी तरह रहती है जैसे तमाम अन्य मार्केटिंग अंबेसडरों को, इसलिए वे लाखों-करोड़ों की फिट वेशभूषा तैयार करवाने और पहनने में बहुत रुचि लेते हैं। ऐसा देश जो नैतिक व्यवस्था के मामले में इंतहा की हद तक अधोगति पर पहुंच चुका है उसे उपभोक्तावाद के संप्रेषण का संदेश देने वाले आचरण के जरिए उबारा जाना संभव है कि और ज्यादा गर्त में धकेलने का काम यह आचरण कर देगा। इस पर सोचने की जरूरत है।
एक कहावत है कि न्याय न केवल होना चाहिए बल्कि दिखना भी चाहिए कि न्याय हो रहा है। न्याय के विभिन्न क्षेत्रों के लिए यह एक मौजू सूत्र है भले ही संदर्भ के हिसाब से शब्दावली थोड़ी-बहुत बदलनी पड़े। प्रशासनिक मामले भी न्याय का ही एक अंग हैं इसलिए उनमें न्याय होते रहने की भी झलक दावों के साथ-साथ दिखाई जाना अनिवार्य है। काले धन और भ्रष्टाचार से लड़ने की सदिच्छा हो इस सूत्र के तहत बजाय इसके कि शेर और बकरी को एक ही घाट पर पानी पिलाने की कोशिश की जाए, काम यह होना चाहिए कि एक कौआ मारकर लटका दो ताकि ऐसा असर पैदा हो जाए कि खौफ के मारे दूसरे कौए खुद ही अपना रास्ता बदल दें। नोटबंदी के फैसले से भ्रष्टाचार करने वाले ड्रैगन परेशान हो रहे हैं। यह तो दिखाई नहीं दे रहा। लेकिन व्यापक जनता बहुत परेशान हो रही है और उसे आगे भी सरकारी एजेंसियों के छिद्रान्वेषी तौर-तरीकों से नुकसान होने की आशंकाओं से पीड़ित होना पड़ रहा है क्योंकि सरकारी एजेंसियां गधे पर जोर न चला तो गधइया के कान उमेंठ दिए जैसी देशी कहावत की तर्ज पर काम करती हैं जिसका अनुभव जनता को बखूबी है।
रिलायंस वाले प्रधानमंत्री मोदी के सबसे बड़े चहेते हैं लेकिन उनकी पहचान तबसे व्यापार और उद्योग की सबसे ज्यादा काली भेड़ के रूप में प्रचलित रही है जब मोदी के सत्ता में आने का दूर-दूर अंदाजा नहीं था और रिलायंस घराने को वरदहस्त देने के लिए उस समय कांग्रेस के दामन पर बहुत कीचड़ उछलता था। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कांग्रेस के पहले राष्ट्रीय सम्मेलन का भारी-भरकम खर्चा रिलायंस ने उठाकर उनकी सरकार को जितना कैश कराया वह आज भी इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। वीपी सिंह की जनता दल सरकार का पतन लोकसभा में सांसदों के सहज अविश्वास और असंतोष की वजह से नहीं हुआ बल्कि इसलिए हुआ क्योंकि रिलायंस ने उनके पाले के सांसदों को खरीदने के लिए अपनी तिजोरी का मुंह खोल दिया था। यह भी इतिहास का एक जाना-माना तथ्य है। वीपी सिंह ने इसके पहले राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री रहते हुए इकोनॉमिक अॉफेंस की अधिसूचनाएं एकत्रित करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी खुफिया एजेंसी फेयरफैक्स को अनुबंधित किया था। जिसने उन्हें यह रिपोर्ट सौंपी थी कि भारत में सबसे ज्यादा काला धन रिलायंस के पास में है। अटल बिहारी वाजपेई की सरकार के समय भी अखबारों में छपता रहा था कि रिलायंस का दबदबा इस कदर सरकार पर हावी है कि जब धीरू भाई अंबानी बॉम्बे से दिल्ली आती हैं तो उनकी अगवानी के लिए पीएमओ का कोई सीनियर अफसर भेजा जाता है। वाजपेई जी के दत्तक दामाद रंजन भट्टाचार्य के रिलायंस से इतने प्रगाढ़ संबंध हैं कि इन संबंधों की बदौलत रिलायंस भारत सरकार के फैसलों को अपने हिसाब से टि्वस्ट करा लेता है। यह खबरें भी छपती थीं।
नोटबंदी को लेकर मोदी पर भी यह आरोप लग रहा है कि उन्होंने रिलायंस के इशारे पर यह फैसला किया है और कहा जा रहा है कि यह संयोग नहीं है कि जियो की फ्री सेवा की समयावधि दिसम्बर में खत्म हो रही है और इसी दौरान 500 और 1000 के वर्तमान नोट चलन से पूरी तरह बाहर किए जा रहे हैं। इस कड़ी को इस तरह से सरकार के प्रतिद्वंद्वी खेमे द्वारा जोड़ा गया है कि हर कोई यह मानने को मजबूर हो जाए कि सरकार के फैसले के पीछे उसका अपना विवेक नहीं रिलायंस का डायरेक्शन है। हो सकता है कि रिलायंस को लेकर इन कुख्यात दंतकथाओं में बहुत अतिरंजना हो लेकिन बिना आग के धुआं नहीं उठता सो इन दंतकथाओं में कोई सच्चाई नहीं है, यह स्वीकार नहीं किया जा सकता। अगर मोदी को काले धन के मुकाबले के लिए जौहर का अंदाज दिखाना था तो वह तभी विश्वनीय हो सकता था जब वे इस क्षेत्र के ड्रैगन माने जा रहे रिलायंस पर पहली चोट करते। जिसकी अन्य तमाम बुराइयों के साथ-साथ एक बड़ी बुराई यह है कि आज तक उसका कोई प्रोडक्ट और सेवा लोगों का दिल नहीं जीत पाया। इसके बावजूद शेयर मार्केट में उसका सबसे बढ़-चढ़कर सर्राटा रहा। संदिग्ध स्थिति आंकने के लिए यह सिचुएशन कम नहीं है और अगर इसके बावजूद मोदी साहब रिलायंस को आदरणीय दर्जा होने का आभास कराना चाहते हैं तो यह उनके भरोसे और इकबाल के लिए कतई ठीक बात नहीं है।
काला धन व भ्रष्टाचार की दृष्टि से जो चिन्हित कौए हैं जिनको मारकर टांगने भर से नोटबंदी से कई गुना ज्यादा असर हो सकता है उनमें एक नाम समाजवादी पार्टी के परम श्रद्धेय महासचिव अमर सिंह का भी लिया जा सकता है। अमर सिंह साहब तो भारतीय जनता पार्टी के भी सदस्य नहीं हैं। जिसकी वजह से पार्टी का लिहाज मोदी का हाथ बांध सकें। न ही अमर सिंह साहब का संघ से कोई नाता है लेकिन उन्हें भी लपेटने की कोई चेष्टा नजर नहीं आ रही। एक जनाब मिलेनियम सुपरस्टार हैं। जिन्होंने देश में लूटे गए धन को सफेद करने के लिए एक समय अमेरिका की ग्रीनकार्ड नागरिकता ले ली थी। पनामा पेपर्स लीक में भी जिनका नाम सुर्खरू हो चुका है। उन पर कोई शिकंजा कसने के मूड में सरकार नहीं है। उत्तर प्रदेश के वे नेता जिन्हें सर्वोच्च अदालत तक से आय से अधिक संपत्ति के मामले में तकनीकी बहानेबाजी के जरिए रियायत भले ही मिल गई हो लेकिन पूरा समाज इन नेताओं के बारे में जानता है कि यह लोग भी भ्रष्टाचार और काले धन के उन काले कौओं के प्रतीक हैं जिन पर कोई सार्थक चोट हो सके तो एक झटके में यथार्थ तौर पर भ्रष्टाचार के पैर उखड़ सकते हैं। हर आईएएस नौकरशाह अपनी हैसियत से हजारों गुना परिसंपत्तियां जुटाए हुए है लेकिन इस सम्पर्क के खिलाफ व्यापक एक्शन का इरादा भी सरकार नहीं जता पा रही। ऐसे में नोटबंदी कोई गम्भीर प्रभाव पैदा न कर पाए और नाटकीय शगल की एक कड़ी के बतौर मानकर इसे झटक दिया जाए तो इसमें अन्यथा क्या है।
फिर इस बात को दोहराना होगा कि काला धन और भ्रष्टाचार स्वयं में कोई परिघटना नहीं है। इनकी उत्पत्ति के कारणों को जब तक सम्पूर्णता में नहीं समझा जाएगा तब तक इनका कारगर उपचार शायद ही सम्भव हो पाए। इस आलेख की चर्चा सामाजिक सुधारों की सर्वोपरता के साथ शुरू की गई थी। धार्मिक पार्टी का दावा करने वाले नैतिकतावादी दल से तो समाज में नैतिक पुनरुत्थान की आशा कुछ ज्यादा ही की जाती है। व्यक्ति निर्माण और संस्कार निर्माण जैसे अनुष्ठानों का बात-बात में दम भरने वाली भारतीय जनता पार्टी भी अगर इस मोर्चे पर कुछ नहीं कर पा रही तो यह निराशा की इंतजा है। महात्मा गांधी गुजरात के थे। मोदी इस पर गर्व करते हैं तो यह अच्छी बात है लेकिन वे भी महात्मा गांधी की तरह कर सकें यह संकल्प क्यों नहीं ले पा रहे। वाककौशल में निपुण प्रचारकों की टीम के साथ अपनी वाहवाही स्वयं ही करने में लग जाने से कोई बात नहीं बनती। मोदी समर्थकों ने कुछ दिनों पहले ऐसे वाट्सअप मैसेजों की झड़ी लगा दी थी जिनमें कहा जाता था कि मोदी ने स्वच्छता का नारा दिया तो देश में हर आदमी ने झाड़ू उठा ली। अगर उन्होंने बंदूक उठाने का नारा दे दिया तो कालिया तेरा क्या होगा यानी पाकिस्तान का क्या होगा। लेकिन सच्चाई यह है कि मोदी के स्वच्छता अभियान के बाद उनका पार्टी का हर आदमी एक एनजीओ बनाकर इस नाम पर मिलने वाले सरकारी फंड का वारा-न्यारा करने की जुगत जमा रहा है। झाड़ू तो कोई नहीं उठा रहा जबकि गांधीजी ने आह्वान किया था तो एक से एक सवर्ण और कुलीन लोग मलिन बस्तियो में शौचालय तक साफ करने से नहीं हिचकिचाए थे। अगर व्यक्ति निर्माण और संस्कारीकरण का काम संघ और भाजपा ईमानदारी से करने में सफल होती तो सिपाही मात्र के दहेज का रेट 25 से 30 लाख हो जाने की स्थितियां मोदी सरकार में बहुत हद तक बदल गई होतीं। जब सिपाही वर के लिए लोग 25-30 लाख देंगे तो यह स्वयंसिद्ध है कि देश में मान लिया गया है कि ऊपरी कमाई कलियुग की इस दुनिया का सबसे बड़ा सत्य है जिसे कोई बदल नहीं सकता। मोदी अपने समर्थकों के इस मामले में छलावे में पूरी तरह सहभागी हैं, यह बात गोवा में नोटबंदी को लेकर अपने भाषण में उनके द्वारा कही गई बातों से साबित हो गई। मोदी ने कहा कि 70 वर्ष के रिटायर्ड बैंक कर्मचारी भी सामने आ रहे हैं जो कहते हैं कि हम भी बिना किसी अपेक्षा के फिर से बैंक की सेवा करने के लिए आने को तैयार हैं ताकि नई व्यवस्था बनने के इस दौर में लोगों की परेशानी को कम से कम कर सकें। जबकि सच्चाई यह है कि इस तरह के जज्बातों की एक भी मिसाल अभी तक सामने नहीं आई है। उलटे बैंक कर्मचारी अतिरिक्त ड्यूटी को बोझा मानकर अवज्ञा की भावना से ग्राहकों को परेशान करने में लगे हैं।
यह बात सही है कि देश में बड़े रचनात्मक बदलाव के लिए कड़वी दवा जरूरी है और लोगों को इसे पीने की भावना दिखानी पड़ेगी। ऐसा नहीं है कि आज लोगों को इस तरह के उद्दात आचरण के लिए तत्पर करना सम्भव न रह गया हो। पर इसके लिए महाजनों को त्याग की लीक बनानी पड़ेगी ताकि जिस पथ पर महाजन चलते हैं लोग उसी पर चल पड़ते हैं की कहावत चरितार्थ हो सके।

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