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महानता नापने की विचित्र कसौटियां

मुक्त विचार
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इस देश में किसी को महानता का दर्जा देने और उसके योगदान के वजन को मापने की कसौटियां विचित्र हैं। विचित्र इस मामले में कि जो सार्वभौम कसौटियां हैं यहां उनसे इतर आधार पर मूल्यांकन होता है। संविधान निर्माता डा. भीमराव अंबेडकर के संदर्भ में देखें तो ऐसी ही कसौटियों के कारण उनको शुरूआत में बिल्कुल भी सम्मान नहीं दिया गया जबकि आज प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों में इस बात की होड़ लगी है कि उनमें से कौन अंबेडकरवादी विचारधारा के ज्यादा नजदीक है।
डा. अंबेडकर 6 दिसंबर 1956 को महायात्रा पर निकल गए थे। उस समय भी उनका कृतित्व उतना ही उजागर था जितना आज उजागर है लेकिन कई सालों तक उन्हें आदर के साथ स्मरण करना तो दूर खलनायक के बतौर प्रस्तुत किया जाता रहा। कांशीराम ने जब उनका नाम लेकर राजनीतिक ताकत खड़ी करने का प्रयास किया तो आरंभ में उन्हें बहुत सफलता नहीं मिली। पहले उन्होंने डीएसफोर बनाई इसके बाद 1984 में अपनी पार्टी का नाम बहुजन समाज पार्टी कर दिया। लगभग एक दशक के संघर्ष के बाद भी उन्हें कोई सफलता हासिल नहीं हुई। कांशीराम की सक्रियता के शुरूआती दौर में मुख्य धारा के समाज में उनके भाषणों की वजह से बाबा साहब अंबेडकर के प्रति नफरत और गहराती रही। 1988 में नारायण दत्त तिवारी सरकार ने उत्तर प्रदेश में चौदह वर्षों से अवरुद्ध स्थानीय निकाय चुनाव कराने का फैसला लिया। यह वो दौर था जब राम जन्मभूमि आंदोलन गरमाया हुआ था। नारायण दत्त तिवारी के पहले वीर बहादुर सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक दंगों का नया कीर्तिमान स्थापित हो चुका था। इसी दौर में मलयाना और हाशिमपुरा जैसे कुख्यात नरसंहारों को अंजाम दिया गया। पूरे प्रदेश में एक नए धु्रवीकरण की पृष्ठभूमि तैयार हुई। जबरदस्त राजनीतिक तपिश के इस दौर में जब मुसलमानों के बीच कांग्रेस का किरदार भी बहुत संदिग्ध हो चुका था स्थानीय निकाय के चुनाव के लिए कांशीराम ने जिस रणनीति का तानाबाना बुना वह बेहद कामयाब रहा। कांशीराम का वोट आम चुनावों में ग्रामीण इलाकों में जमकर लूटा जाता था लेकिन शहरी क्षेत्रों में एक सीमा से ज्यादा जोरजबरदस्ती की गुंजायश नहीं थी। उस पर कांशीराम ने ज्यादातर नगर पालिकाओं नगर पंचायतों में मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया क्योंकि मुसलमानों की संख्या मुख्य रूप से शहरों में ही अधिक है। कांशीराम की इस सियासी कीमियागीरी का शानदार नतीजा उनकी पार्टी के पक्ष में निकला। 1988 के स्थानीय निकाय चुनाव में बसपा की एक चौंकाने वाली राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित हो गई। कांशीराम की इमेज जोइंट किलर की बन गई क्योंकि चुनाव नतीजों ने यह साफ दिखा दिया कि उस समय महाबली समझी जाने वाली कांग्रेस पार्टी के अंदर उन्होंने उत्तर प्रदेश में कितनी बड़ी सेंध लगा दी है। दूरदर्शी राजनीतिज्ञ उसी समय यह आंकलन करने लगे थे कि बसपा का यह उभार कांग्रेस जैसी व्यापक पार्टी को कुछ ही सालों में घुन की तरह खा लेगा। इसके बाद 1989 के लोकसभा और उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव में कांशीराम की पार्टी ने प्रदेश में ज्यादातर क्षेत्रों में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्शाई जिससे हलचल मच गई। सामाजिक न्याय का एजेंडा चतुर राजनीतिज्ञों की निगाह में सर्वोच्च प्राथमिकता बन गया और इसी परिवेश में वीपी सिंह ने 1990 में जब बाबा साहब अंबेडकर को मरणोपरांत भारत रत्न घोषित किया और उनकी जयंती पर सरकारी अवकाश तय कर दिया तो उनके पुनर्मूल्यांकन का सिलसिला चल पड़ा। अंबेडकर के प्रति अश्रद्धा दिखाने में सभी राजनीतिक दलों को जोखिम महसूस होने लगी और जिन दलों की अंबेडकर वाद में कोई आस्था नहीं थी वे भी ऊपरी तौर पर अंबेडकर के प्रति आस्था दिखाने का पाखंड करने लगे।
इसके बावजूद अंबेडकर का मूल्यांकन दलितों के मसीहा की परिधि तक सीमित रहा। दूसरी ओर बाबा साहब के नाम पर गोष्ठियों के आयोजन का सिलसिला जैसे-जैसे बढ़ा और ज्यों-ज्यों दूसरे लोग भी उनके नाम पर कुछ कहने के लिए उनके विचारों की पुस्तकेें पढऩे लगे वैसे-वैसे अंबेडकर की एक नई तस्वीर सामने आने लगी। इस तस्वीर में अंबेडकर किसी वर्ग विशेष के हितों तक सीमित चिंतक की बजाय मानवाधिकार के चैंपियन के रूप में दिखने लगे। आजादी के पहले अपने लेखों में अंबेडकर ने कई स्थापित धारणाओं का खंडन किया। जैसे कि वामपंथी मानते हैं कि व्यक्ति एक आर्थिक जंतु है और उसकी आर्थिक हैसियत बदलने से उसका निजी प्रभाव भी बदल जाता है। इसके विपरीत अंबेडकर ने कहा कि अगर सामाजिक स्थितियां अनुकूल न हों तो यह सिद्धांत एकदम बेमानी है। उन्होंने देश का उदाहरण देकर कहा कि यहां बड़े-बड़े धनाढ्य लोग नंगे बदन रहने वाले साधुओं के इशारे पर नाचते हैं। धन वैभव विहीन साधुओं को जो सम्मान हासिल होता है वह न किसी सेठ को हासिल हो पाता है न राजा को। अंबेडकर ने यह भी चेताया कि सिर्फ राजनीतिक सुधारों से ही सामाजिक भेदभाव का उन्मूलन हो सकता है यह भी एक मिथ्या धारणा है। उन्होंने दलित समाज की स्थिति के भुक्तभोगी होने के नाते नई क्रांति के लिए सामाजिक बदलाव को सर्वोपरि प्राथमिकता दी। इस लिहाज से देखें तो दलितों को उनके मानवाधिकार दिलाने के लिए उनकी लड़ाई एक व्यापक लक्ष्य की कार्यनीति का आवश्यक अंग था न कि साध्य। अगर उनका साध्य सिर्फ दलितों का सशक्तिकरण करना होता तो वे दलितों को उकसाते कि वे उन पर अत्याचार करने वाले सवर्णों से बदला लेने के लिए सत्ता पर कब्जा करने को संघर्ष छेड़ें। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। उनके माध्यम से बदलाव के जितने भी सामाजिक प्रयास हुए उनमें एक ही लक्ष्य था जातिगत वर्चस्व को गौण कर देना। अनुसूचित जातियों जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था सीमित समय के लिए करने पर उनका जोर इस भावना से था कि जब प्रशासन के वर्जित क्षेत्र में उनकी पैठ होगी तो उनकी उपेक्षा संभव नहीं रह जाएगी और धीरे-धीरे सवर्णों के लिए जातिगत सर्वोच्चता अर्थहीन हो जाएगी। उन्होंने संविधान के माध्यम से प्रत्येक नागरिक के लिए मौलिक अधिकारों की गारंटी के कदम से भी समता पर आधारित व्यवस्था के निर्माण की उम्मीद संजोई थी।
दुर्भाग्य से डा. अंबेडकर के न रह जाने के बाद सामाजिक सुधार के नाम पर सोशल इंजीनियरिंग के टोटके तो बहुत हुए लेकिन स्थितियां कुछ ऐसी बनीं जिससे नई व्यवस्था का भी स्वार्थ जाति व्यवस्था को बनाए रखने में निहित हो गया। यहां तक कि उनकी मानस संतान कही जाने वाली बसपा जैसी पार्टी भी जाति व्यवस्था के पुनर्जीवन का उत्प्रेरक बन गई। इस प्रतिक्रांति के कई अनिष्टकारी परिणाम सामने आ रहे हैं। कानून के शासन में पुरानी सामाजिक व्यवस्था की मजबूती सबसे बड़ी बाधा बन गई है। अहम पदों पर बैठे लोगों का माइंड सेट पहले से बहुत ज्यादा जातिवादी हो गया है जिसकी वजह से उनसे सिद्धांत पर आधारित प्रशासन चलाने या न्याय करने की उम्मीद बिल्कुल भी नहीं की जा सकती। बाबा साहब अंबेडकर ने महात्मा गांधी द्वारा वर्ण व्यवस्था को श्रम विभाजन कहे जाने पर घोर आपत्ति जताते हुए इसे श्रमिकों का विभाजन बताया था। यह बात आज सिद्ध हो रही है। अब बात केवल सवर्णों की वर्चस्व भावना की नहीं रह गई जहां पिछड़ों की सत्ता है वहां जिस जाति का मुख्यमंत्री है वह सारे पिछड़ों का सशक्तिकरण करने की बजाय उनके हितों को भी अपनी जाति के सशक्तिकरण पर बलिदान कर रहा है। दलितों के मामले में भी यही अनुभव देखने को मिल रहा है। कोई भी आधुनिक राष्ट्र सार्वभौम सिद्धांतों पर काम किए बिना आगे नहीं जा सकता। दूसरी ओर जाति व्यवस्था ने सार्वभौम प्रतिमानों की गुंजायश ही समाप्त कर दी है। ऐसे में अंबेडकर आज फिर बहुत प्रासंगिक हैं। देश के आधुनिकीकरण के लिए जरूरत केवल आर्थिक तरक्की और विधाई प्रयसों की नहीं है। इसके पहले सामाजिक क्रांति या सामाजिक बदलाव पर पर्याप्त होमवर्क होना बहुत जरूरी हो गया है।
बात शुरू हुई थी एकांगी कसौटियों की। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि जो लोग सामाजिक न्याय के लिए प्रतिबद्ध रहे हर दृष्टिकोण से उनका नैतिक स्तर दूसरों से बहुत ऊंचा रहा है। डा. अंबेडकर पर भले ही यह आरोप लगाए जाते हों कि वे अंग्रेजों के एजेंट थे लेकिन हकीकत यह है कि जिस समय उनका निर्वाण हुआ अपार संपत्ति होने की बजाय उस समय उन पर कर्जा निकला था। हर देश और समाज में उसे अच्छा आदमी माना जाता है जो पैसे के मामले में ईमानदार हो और चरित्र के मामले में भी जिस पर कोई दाग न हो। इस देश में भी कहने के लिए तो लोग यही कहते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि गौतम बुद्ध से लेकर डा. अंबेडकर और आगे तक की परंपरा में अच्छे आदमियों की कसौटी में वहीं लोग सबसे खरे निकले जिन्होंने जातिगत भेदभाव का प्रतिरोध किया लेकिन उन्हें ईमानदारी और चरित्र में उच्चतम होने के बावजूद अपयश का भागी होना पड़ा जबकि अगर उसने सामाजिक यथास्थितिवाद को पोषित रखा तो वह ईमानदारी चरित्र आदि में कितना भी ढीला क्यों न हो लेकिन वह विशिष्ट सम्मान का अधिकारी बना रहता है। सुव्यवस्था कायम रखने के लिए नैतिकता के सार्वभौम सिद्धांतों का अनुशीलन करने वाले व्यक्तित्वों का समर्थन होना चाहिए। अगर भारतीय समाज उल्टी गंगा बहाना जारी रखेगा तो उसके दुर्भाग्य का अंत कभी नहीं होगा। फिलहाल तो यही हो रहा है। चुनाव के पहले मोदी अपनी जनसभाओं में कहते हैं कि वे जिस समाज और वर्ग से आए हैं उसका कोई आदमी देश के सर्वोच्च कुर्सी का दावेदार बन सका यह चमत्कार हुआ है तो केवल डा. अंबेडकर के बनाए संविधान की वजह से लेकिन सत्ता में आने के बाद वे डा. अंबेडकर का नाम तक लेने में डरने लगते हैं और उन्हीं कर्मकांडों को पोषित करने वाली व्यवस्थाओं व क्रियाओं को समर्थन देने लगते हैं जिसकी वजह से उन जैसे वंचित समाज के गुदड़ी के लाल पहले कभी आगे बढऩे का अवसर हासिल नहीं कर पाते थे।

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