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मुलायम क्यों हो गये सचमुच मुलायम

मुक्त विचार
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भारत में लोकतंत्र के लिए तमाम अलग तरह की चुनौतियां हैं इसलिए भारतीय लोकतंत्र पश्चिमी लोकतंत्र की अनुकृति कदापि नहीं होनी चाहिए हांलाकि कई भारतीय नेताओं ने अति उत्साह में पश्चिमी लोकतंत्र का पिछलग्गू बनने पर जोर लगाकर देश के सामने ऐसी समस्याऐं पैदा की हैं जिन्होंने प्रगति के रास्ते में रोड़े अटकाये हैं। अब तो बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग है जो यह मानता है कि भारत में जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र व्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हो रहा है भारत के लिए पश्चिम का उदार बुर्जुआ लोकतंत्र और साम्यवादी व्यवस्था वाले जनतंत्र का उचित अनुपात में मिश्रण शायद अधिक व्यवहारिक होगा।
प्रतिपक्ष में रहकर जिन चीजों का विरोध करना सत्ता में आते ही उनका पक्षधर हो जाना यह अवसरवादिता अब लोगों को चुभने लगी है। लोग नहीं चाहते कि समाज और देश के असली सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर राजनीति हो। इसी तरह लोग यह भी नहीं चाहते कि विधान मंडलों की कार्रवाई प्रतिपक्ष अपने अस्तित्व को प्रदर्शित करने के लिए बाधित करना अपना अधिकार माने। लोग चाहते हैं कि विधायी सदन के अधिकतम् सत्र हों और प्रतिपक्ष का जो भी विरोध है वह सदन के मंच से सरकार के सामने जाहिर किया जाए।
लेकिन अगर कोई यह समझे कि संसद के सुचारू संचालन को सुनिश्चित करने के लिए समाजवादी पार्टी ने सरकार के प्रति नरमी दिखाई है तो यह उसकी सबसे बड़ी मूर्खता होगी। दरअसल डाॅं. लोहिया का पूरा आंदोलन भले ही लोकतंत्र को मजबूत बनाने की दृष्टि से राजनैतिक सुधारों के लिए संघर्ष छेड़ने को समर्पित रहा हो लेकिन मुलायम सिंह समेत लोकदल परंपरा के नेताओं और दलों ने राजनैतिक सुधारों के लिए वास्तविक रूप से कभी कोई प्रतिबद्धता नही दिखाई क्योंकि लोकदल परंपरा कबीलाई युग के नग्न वर्चस्ववाद में विश्वास रखती है। मुझे स्मरण है कि मुलायम सिंह यादव जिस समय पहली बार नेता प्रतिपक्ष बने थे उस समय उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी थे। तब के अखबारों में इसे दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया गया था और लिखा गया था कि एक ओर कुशल संसद वेत्ता और प्रखर वक्ता नारायण दत्त तिवारी हैं तो दूसरी ओर नेता प्रतिपक्ष को अभी न तो अच्छी तरह भाषण देना आता है और न ही जो सदन के नियमों के बहुत जानकार हैं। इस कारण बजट पर कटौती प्रस्ताव के मामले में उत्तर प्रदेश की भद पिट जाने की आशंका अखबारों में व्यक्त की गई थी। हुआ भी यही नेता प्रतिपक्ष कटौती प्रस्ताव पर सरकार को घेरने में सक्षम नहीं थे जिसे छुपाने के लिए उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण अवसर पर सदन में हुड़दंग मचाकर निकल जाने का रास्ता अपनाया इसके बाद तो मुलायम सिंह ने लगातार सदन को बाधित करने का नया रिकार्ड बनाया। ऐसा नहीं है कि आज इन स्थितियों में बहुत सुधार आ गया हो अगर उनको सदन की इतनी ही चिंता हो गई होती तो उत्तर प्रदेश में संक्षिप्त होते जा रहे विधान मंडल सत्रों की अवधि आदर्श मानक तक बढ़ाने का प्रयास उनके द्वारा किया गया होता।
भाजपा को जनादेश की स्वीकृति मिलने के बावजूद अछूत रखने की कट्टरता में मुलायम सिंह का नाम सबसे आगे रहा है अगर किसी ने भाजपा से संवाद का रास्ता अख्तियार करके संवेदनशील मुद्दे का हल निकालने की कोशिश की तो नेताजी ने उसे मुस्लमानों के बीच बदनाम करने में पूरा जोर लगा दिया। लेकिन उन्होंने स्वयं कभी मुस्लमानों की भावनाओं की परवाह नही की इसी कारण कोई और भाजपा के मन की करता और देश व जनहित का वास्ता देता तो माना जा सकता था लेकिन मुलायम सिंह की जैसी पहचान रही है उसमें तो यह विश्वासघात जैसी प्रवृत्ति के रूप में ही देखा जाएगा। वैसे मुलायम सिंह के लिए साम्प्रदायिकता विरोधी राजनीति में पत्ते पर गुलाट खाने की अदा नई नही है। बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद नरसिंहाराव सरकार के पतन को बचाने के लिए उनका सरकार के विश्वासमत के समय सदन से रणनीतिक वाॅकआउट भी मुकरे हुए गवाह के लक्षण के तौर पर देखा गया था। भाजपा के केन्द्र में सत्ता में पहली बार आने के बाद से ही उन्होंने जनता दल के समय की अपनी कट्टरता को उस पार्टी के नेताओं के प्रति तरल कर लिया था बल्कि वे भाजपा के नेताओं को अपने मार्ग दर्शक के तौर पर भी प्रदर्शित करने लगे थे। उत्तर प्रदेश में औवेसी की बढ़ती हलचल की वजह से मुस्लिम वोट बैंक का बहुत भरोसा सपा को न रह जाना स्वाभाविक है इसी कारण मोदी के प्रति उनकी व्यक्तिगत सहृदयता का गहराता जाना आश्चर्य जनक नही है। लोकसभा में सत्र के पहले दिन कुशलक्षेम पूछंने के बहाने अपने नजदीक पहुंचे मोदी से फिर उनका देर तक बतियातें रहना सिर्फ शिष्टाचार नही माना जा सकता हांलाकि संसद चलाने में मोदी सरकार को मुलायम के अलावा मायावती और अन्य विरोधियों से भी सहयोग का संकेत मिल गया है। इस हृदय परिवर्तन के पीछे असल कारण क्या है यह वे लोग जानते हैं जिन्हें पता है कि बुर्जुआ लोकतंत्र में काॅरपोरेट शक्तियां सुपर सरकार का दर्जा हासिल कर लेती है और व्यक्तिगत रूप से नेताओं को मेज के नीचे से कृतार्थ कर अपना मुरीद बनाकर संसद को अपने हित साधन का उपकरण बना लेती हैं भूमि अधिग्रहण के नये स्वरूप को पारित कराने में उनका निहित स्वार्थ जुड़ा है जिसे पूरा करने के लिए उन्हें कितना भी निवेश करना पड़े वे पीछे नहीं हटेगी क्या विपक्ष को सरकार के नजदीक लाने में उनकी भूमिका को सबसे बड़ा माना जाये यह एक सवाल भी है और जिज्ञासा भी।

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