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समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने राजनीति में शिखर पर अग्रसर रहते हुए अपने भाइयों आदि का जिस तरह ख्याल रखा। वैसा ऊंचे मुकाम पर पहुंचने वाले बहुत कम लोग कर पाते हैं। इसे मानवीय पक्ष के तौर पर देखा जाये तो परिवार के प्रति उनका समर्पण और सहयोग न केवल सराहनीय है बल्कि एक दृष्टांत के रूप में दूसरों के सामने उदाहरण रखे जाने योग्य है। उनके परिवार के 20 सदस्य महत्वपूर्ण पदों पर काबिज हैं। देश की किसी भी पार्टी में एक ही परिवार के इतने सदस्य राजनीति में एक साथ नहीं हैं बल्कि स्थिति यह है कि किसी देश के तानाशाह द्वारा भी इतना बड़ा पारिवारिक साम्राज्य स्थापित करने की मिसाल विरल ही होगी लेकिन उनके परिवार के दूसरे सदस्यों में उनकी जैसी क्षमता का अभाव नजर आ रहा है जिसकी वजह से उनकी आंखों के सामने ही उनका पारिवारिक विग्रह पैना होने लगा है। उनके न रहने पर राजनीति में उनके पारिवारिक साम्राज्य में कैसा घमासान मचेगा। इसको लेकर तरह-तरह की चर्चायें चलनी शुरू हो गयी हैं।
मुलायम सिंह ने इटावा के कर्मक्षेत्र महाविद्यालय में छात्रसंघ का अध्यक्ष पद जीतकर अपने राजनैतिक कैरियर की शुरूआत की थी। इसके बाद उनके जुझारूपन पर उनकी पूरी बिरादरी रीझ गयी। जब वे पहली बार विधायक चुने गये तो उस समय के पुराने नेता नत्थू सिंह को इतनी खुशी हुई कि जब चौ.चरण सिंह ने उन्हें मंत्री बनाना चाहा तो उन्होंने अपनी बजाय मुलायम सिंह के नाम की पेशकश यह कहते हुए कर दी कि वे मंत्री बनकर क्या करेंगे। इस नौजवान को मंत्री बनायेंगे तो पार्टी बहुत आगे बढ़ेगी।
चौ.चरण सिंह द्वारा पार्टी को आगे बढ़ाने का मतलब था उस मिशन को आगे बढ़ाना जिसके तहत आबादी में प्राचुर्य में होते हुए भी पिछड़ी जातियों के लोगों का राजनीति और सत्ता में न्यून प्रतिनिधित्व होने की विसंगति का निराकरण किया जाना। कहने का तात्पर्य यह है कि मुलायम सिंह ने जिस राजनैतिक परिवेश में होश संभाला उसमें सिद्धांत और पार्टी को आगे बढ़ाने की ललक होती थी परिवार को नहीं। मुलायम सिंह ने भी स्थापित होने के पहले इसी सूत्र पर ध्यान दिया। जनेश्वर मिश्र और मोहन सिंह जैसे दिग्गज सोशलिस्टों को राजनीति में काफी आगे बढ़ जाने के बाद भी अपनी सैद्धांतिक चमक बनाये रखने की जरूरत के तहत उन्होंने जोड़ा लेकिन गत विधानसभा के चुनाव तक वे शायद ऐसी जरूरतों से परे हो गये। इसी कारण डीपी यादव सम्बन्धी बयान की आड़ में मोहन सिंह की महासचिव पद से छुट्टी करके रामगोपाल यादव को उन्होंने पार्टी का यह अहम पद सौंप दिया। राष्ट्रीय अध्यक्ष वे खुद थे और हैं। साथ ही तब तक उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष का पद भी अपने बेटे अखिलेश को सौंप दिया था। इसके बाद पूरी पार्टी उनके परिवार में सिमटती चली गयी। जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तभी उनका पारिवारिक मोह सामने आ गया था। इटावा के जिला पंचायत अध्यक्ष के लिये पार्टी के फाइनेंसर दर्शन सिंह यादव का नाम चल रहा था लेकिन मुलायम सिंह ने एकदम अपने चचेरे भाई रामगोपाल को आगे कर दिया। इसी बात पर दर्शन सिंह ने विद्रोह किया। दर्शन सिंह जब कांग्रेस में शामिल हो गये तो परिवार मोह की वजह से मुलायम सिंह का राजनैतिक कैरियर डूबने पर आ गया था लेकिन कांग्रेस के विभीषणों ने उन्हें बचा लिया और अंततोगत्वा मुलायम सिंह की सेटिंग के आगे नतमस्तक होते हुए दर्शन सिंह को फिर साधारण कार्यकर्ता के तौर पर उनके साथ जुडऩे के लिये मजबूर होना पड़ा।
मुलायम सिंह की आज तीसरी पीढ़ी राजनीति में आ गयी है। उन्होंने अपने भाइयों, उनके लड़कों, लड़कियों सभी का ख्याल रखा। मुलायम सिंह का राजनीति में ताकतवर होना यह भी बताता है कि जिसके पास भरा पूरा बाहुबली परिवार हो और जिसका पूरा परिवार एकजुट होकर काम करे वह लोकतांत्रिक राजनीति में भी बहुत ऊंचाई तक जा सकता है लेकिन पारिवारिक एकता का यह मंत्र मुलायम सिंह के अन्य भाई आत्मसात नहीं कर पा रहे। सन 2004 में जब मुलायम सिंह खुद मुख्यमंत्री थे उसी समय सैफई महोत्सव के मंच पर उनके चचेरे भाई रामगोपाल और सगे अनुज शिवपाल के बीच की अदावत सार्वजनिक रूप से सामने आ गयी थी। इतने दिनों बाद भी दोनों के बीच यह खाई पट नहीं पायी है। अखिलेश के दौर में शिवपाल पारिवारिक सत्ता संघर्ष में रामगोपाल से कमजोर पड़ गये थे लेकिन हाल के कुछ महीनों में स्थितियां बदल गयी हैं। खासतौर से जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में तो मुलायम सिंह का पूरा आशीर्वाद मिल जाने के कारण शिवपाल ने ही पूरी पार्टी पर कब्जा जमा लिया है। यहां तक कि उन्होंने अखिलेश के सिपहसलारों को भी झटका देने में चूक नहीं की जिससे उनके दबदबे का संदेश बहुत मजबूती के साथ न केवल पार्टी के लोगों को बल्कि पूरी राजनीतिक बिरादरी को पहुंचा है। इससे रामगोपाल का भड़कना स्वाभाविक है। अपने पुत्र अक्षय यादव के संसदीय निर्वाचन क्षेत्र फिरोजाबाद में सड़कों के लिये आवंटित बजट में भारी कमीशनखोरी का आरोप लगाते हुए इसी कारण उन्होंने शिवपाल के खिलाफ खुला मोर्चा खोल दिया। शिवपाल की तरफ से इस पर अभी कोई जवाबी प्रतिक्रिया नहीं आयी है लेकिन देर सबेर दोनों के बीच का कलह तेज होने से इंकार नहीं किया जा सकता। आने वाले विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह के परिवार का अंदरूनी सत्ता संघर्ष भी एक कोण बनकर उभरे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। बहरहाल उत्तरप्रदेश जो एक समय सबसे ज्यादा सूझबूझ और राजनीतिक चेतना वाले लोगों का प्रदेश माना जाता था। आज वहां कबीलाई राजनीति हो रही है और जनता व समाज की ओर से उसका कोई प्रतिरोध नहीं है। यह एक आश्चर्य का विषय है। इसका मतलब यह नहीं है कि प्रदेश की राजनीतिक गिरावट का ठीकरा केवल सपा पर फोड़ा जाये। प्रदेश में सत्ता की दूसरी खिलाड़ी बहुजन समाज पार्टी की राजनीति भी अपने तरह की लोकतंत्र के लिये घातक संकीर्णताओं से परे नहीं है।
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