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मोदी बरास्ता अम्बेडकर

मुक्त विचार
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नई दिल्ली में अम्बेडकर नेशनल मेमोरियल इंस्टीट्यूट की आधारशिला रखते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब यह कहा कि दलितों से आरक्षण का उनका अधिकार कोई नहीं छीन सकता तो उनके कथन में राजनीतिक पैंतरेबाजी नहीं प्रमाणिकता थी। लोकसभा चुनाव अभियान के समय से मोदी के भाषणों में बाबा साहब के सन्दर्भ में निरन्तरता देखने को मिल रही है। अनकहे वे यह जताने में सफल रहे हैं कि उनके आइडियोलोग या वैचारिक रोल माडल डा.हेडगेवार और गुरु गोलवलकर नहीं बल्कि बाबा साहब डा.भीमराव अम्बेडकर हैं। अभी तक वर्तमान भारत की अन्तर्राष्ट्रीय पहचान महात्मा गांधी के नाम से रही है। अश्वेत नेता मार्टिन लूथर किंग ने स्वयं महात्मा गांधी को ही अपना प्रेरणास्रोत बताया था लेकिन मोदी के जेहन में मार्टिन लूथर किंग और बाबा साहब के संघर्ष की समानता की जो तस्वीर कौंधी उससे भी जाहिर होता है कि उनके लिये बाबा साहब का महिमा मंडन सिर्फ सियासी जरूरत नहीं है बल्कि उनके विचारों और संघर्षों के प्रति उनकी आस्था और निष्ठा में पूरी ईमानदारी के साथ गहराई है। साथ ही मोदी की दूरंदेशिता भी है जिसकी बदौलत उन्होंने परख लिया कि आने वाले दौर में भारत की ज्यादा बेहतर वैश्विक पहचान महात्मा गांधी के नाम की बजाय बाबा साहब के नाम से ज्यादा प्रभावशाली बनेगी। गो कि मानवाधिकारों के सम्मान की सर्वोपरिता के इस युग में वैश्विक संदर्भ में विचारों के जिस बड़े दायरे की जरूरत है उसकी पूर्ति महात्मा गांधी के रोमानी नैतिकतावाद से होने वाली नहीं है। अम्बेडकर के ही विचार और कार्य हैं जो विश्व के किसी भी कोने में भेदभाव और अन्याय के शिकार मानवता के लिये संबल बन सकते हैं।
मोदी का राष्ट्रीय क्षितिज पर पहुंचने के बाद बाबा साहब की विचारधारा के प्रति जबर्दस्त आकर्षण को संज्ञान में लेना इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि साम्यवादी विचारधारा से प्रेरित छात्र जीवन की पृष्ठभूमि और स्वतंत्र व उदार विचारक की अलग हटकर छवि बनाने के बावजूद अटल बिहारी बाजपेयी ने संघ का स्वयंसेवक होने पर गर्व जताने की जरूरत महसूस की थी। शायद यह उनके वर्ग चरित्र की अनिवार्य अभिव्यक्ति रही होगी। दूसरी ओर मोदी जो प्रत्यक्ष तौर पर शासन संचालन में अटल बिहारी बाजपेयी को अपना प्रेरणास्रोत जाहिर करने का कोई मौका नहीं गंवाते अपनी वर्ग चेतना के चलते ही प्रधानमंत्री बनने के बाद से कट्टर संघी की अपनी छवि से ऊपर उठने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे। भाजपा में उनके रूप में हो रहा यह विकास इस बात का आभास कराने वाला है कि वे इस परंपरावादी पार्टी और समाज में गुणात्मक परिवर्तन को अंजाम देने की धुरी के रूप में आने वाले इतिहास में दर्ज होंगे।
प्रधानमंत्री मोदी का नया अम्बेडकर भक्त चेहरा उनके सवर्ण युवा समर्थकों को जरूर पहचानना चाहिये और अगर वे सचमुच उनसे प्रेरित होते हैं तो उन्हें भी अपनी मानसिकता में बदलाव लाना चाहिये। यह अचानक नहीं है कि जबसे मोदी प्रधानमंत्री बने हैं। सोशल साइट्स पर ऐसी पोस्ट्स की बाढ़ आयी हुई है जिनमें आरक्षण का लाभ लेने के लिये दलितों को लज्जित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। इन्हें दलितों के साथ अपने पूर्वजों द्वारा किये गये अन्याय को लेकर कोई पछतावा नहींं है क्योंकि भले ही सत्ता के आगे बिछ जाने की अपनी सनातन प्रवृत्ति के तहत उनके मां बाप सारा अभिमान और स्वाभिमान भूलकर बहनजी यानि मायावती के चरणस्पर्श स्वार्थ सिद्धि के लिये करने लगे हों। फिर भी उनका यह गुमान मिटा नहीं है कि समाज का नेतृत्व करने का ठेका ईश्वर के यहां से सिर्फ उन्हें प्रदत्त है। साथ ही दलितों को उस ऊपर वाले ने ही हर तरह की योग्यता और क्षमता से वंचित करके इस धरती पर भेजा है। इसलिये वे केवल सेवाभाव तक अपने को सीमित रखें, सत्ता में प्रतिनिधित्व का दुराग्रह न करें। इस तरह की ग्रंथि का ही नतीजा है कि मोदी के लिये मिला जनादेश उन्हें वर्ण व्यवस्था की बहाली का जनादेश नजर आता है और वे इसको मोदी से आरक्षण खत्म करने का फैसला लेकर नया इतिहास बनाने की मांग करते हुए व्यक्त करते हैं। हालांकि मोदी के आरक्षण के बारे में विचार शुरू से ही बहुत स्पष्ट हैं। जिससे अभी तक उनकी गलतफहमी दूर हो जानी चाहिये थी लेकिन बुद्धि की जड़ता की वजह से वे गलतफहमी की स्वयं बुनी कारा से अपने को मुक्त नहीं कर पा रहे।
निरपेक्ष होकर और सम्पूर्णता में सोचें तो साफ नजर आता है कि वर्ण व्यवस्था के परिणाम देश के लिये अच्छे नहीं रहे हैं। सत्ता को कुछ वर्गों तक केन्द्रित रखने का परिणाम बाहरी चुनौतियों के सामने देश के पस्त पड़ जाने के रूप में सामने आता रहा है। गुलामी के दौर में देशवासियों को जो यातनायें और अपमान झेलना पड़ा सवर्ण जातियां भी उनसे अछूती नहीं रहीं बल्कि इस दौर में समाज के फ्रंट लाइन पर होने की वजह से उनका मानमर्दन कहीं अधिक हुआ। इससे सबक लेकर होना तो यह चाहिये कि वर्ण व्यवस्था के माडल से कोई मोह न रखा जाये और अल्पसंख्यक सामाजिक सत्ता की बजाय सर्व समावेशी सामाजिक सत्ता का नया माडल विकसित किया जाये लेकिन राष्ट्रवाद की दुहाई देने के बावजूद लोग राष्ट्र और समाज के व्यापक हितों की बजाय अपने हित मजबूत करने को वरीयता देना चाहते हैं।
जो धारणा सवर्ण नौजवानों के हिस्से में दलितों को लेकर है। वैसी ही धारणा अंग्रेजों की समूचे भारतीयों को लेकर थी। जो यह कहते थे कि भारतीय इस लायक नहीं हैं कि किसी अच्छी व्यवस्था का संचालन कर सकेें। इसलिये उन्हें आजादी देकर भारत को अराजकता के गर्त में गर्क करने का खतरा नहीं लिया जा सकता। गुलामी के दौर में भारतीय जिस हीन स्थिति में पहुंच गये थे उसके मद्देनजर उनकी यह धारणा हकीकत के करीब लगती भी थी। वह भारत के लिये अंधकार का एक ऐसा दौर था जिसमें दुनिया में बड़े-बड़े वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे थे लेकिन भारतीयों की उनमें कोई भागीदारी नहीं थी। व्यवस्थित युद्ध प्रणाली से उनका कोई परिचय नहीं था। भूमि बंदोबस्त से लेकर शासन के न्याय समेत तमाम अन्य पहलुओं में भी उनकी सोच बहुत पिछड़ी हुई थी लेकिन योग्यता की दलील पर आप किसी पर अपनी व्यवस्था को लादे रखने के अधिकारी नहीं बने रह सकते। दलित और पिछड़ों की तुलना में सवर्णों की आबादी देश में न्यून है। इसलिये असली भारत सवर्ण अपवाद में सीमित नहीं किया जा सकता। भारतीयों का डीएनए दुनिया की किसी भी कौम के डीएनए से श्रेष्ठता के हर मानक में प्रचंड है। यह स्थापित किया जाना चाहिये और यह तभी हो सकता है जब बहुजन भारत को श्रेष्ठतम प्रदर्शन का अवसर सुलभ कराया जाये।
आजादी की हवा में साथ लेने के बाद भारतीयों की अन्र्तनिहित प्रतिभा को खुलने और पनपने का जो मौका मिला वह इसकी मिसाल है। आज फिरंगियों द्वारा घोषित कुछ दशक पहले के भारतीयों के वंशज जिस तरह से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना परचम लहरा रहे हैं। वह बेमिसाल है। गोरों के सबसे बड़े देश अमेरिका में किसी बड़ी कंपनी के सीईओ का चुनाव करने की बात हो या प्रशासन और न्याय पालिका के शीर्ष पद पर सर्वोत्तम चयन की सभी की निगाहें सबसे पहले भारतीयों पर जाकर टिक रही हैं। देश के अन्दर भी दलित और पिछड़ों ने मौका मिलने के बाद अपनी काबिलियत का लोहा मनवाकर दिखाया है। वंचित तबकों से आने वाले लोग अगर सफलता पूर्वक सरकारें चला सकते हैं तो आरक्षण के जरिये अधीनस्थ प्रशासनिक पदों पर पहुंचने पर उनकी क्षमता का लाभ बेहतर तरीके से देश और समाज को नहीं मिलेगा यह संशय क्यों।
आरक्षण ने उस अन्याय को समाप्त किया है। जो सरकारी नौकरियों के चयनकर्ताओं में यह व्यवस्था न होने पर वर्ण व्यवस्थावादी चश्मे की वजह से दलित और पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों के सामने आने पर निश्चित रूप से सिर उठाता। आरक्षण की वजह से ऐसी प्रतिभायें अपने को सुरक्षित करके अग्रिम पंक्ति में आने में सफल रहीं। आरक्षण ने ही वह आधार तैयार किया जिससे वंचित तबके के नेता प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचकर भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती को बढ़ाने में योगदान कर पाये।
मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद लगातार सार्वजनिक रूप से अपनी उन्नति और अग्रसरता का श्रेय आरक्षण व्यवस्था को देते रहे हैं। इसलिये वे आरक्षण व्यवस्था को कैसे समाप्त कर सकते हैं। उनसे यह उम्मीद पालना सवर्ण नौजवानों का भोलापन है। बेहतर होगा कि वे इस मामले में पूर्वाग्रह छोड़कर परिपक्व सोच का परिचय दें ताकि देश को आगे बढ़ाने में वे अपनी ऊर्जा का वास्तविक रूप से सदुपयोग कर सकेें।
हालांकि दलित तबके के लिये भी यह विचारणीय है कि अनुकूल परिस्थितियां मिलने के बावजूद वे जनरल मेरिट में ज्यादा से ज्यादा संख्या में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का जज्बा क्यों नहीं दिखा पा रहे। क्या आरक्षण उनके लिये दवा की बजाय हकीम का काम कर रहा है। उन्होंने प्रोत्साहन की व्यवस्था पर मानसिक रूप से अपने को पूरी तरह आश्रित बनाकर कहीं प्रतिस्पर्धा का जज्बा तो नहीं गंवा दिया। इस मामले में दलित समाज के अगुवाकारों को ही अपने समाज की आत्मा को झकझोरना चाहिये। निश्चित रूप से दलितों में योग्यता की कोई कमी नहीं है। बशर्ते वे अपनी काबिलियत को उजागर करने की ठान बैठें। अगर दलित समाज के अगुवाकार उनके सामने जनरल मेरिट में बढ़त बनाने की चुनौती उपस्थित नहीं करते तो वे अपनी जिम्मेदारी से मुकरने के अपराधी बनेंगे लेकिन इसे आधार बनाकर आरक्षण का मजाक उड़ाना और दलितों के प्रति तिरस्कार जताना पूरी तरह नाजायज है। जब तक ऐसा होता रहेगा तब तक आरक्षण व्यवस्था का औचित्य बना रहेगा। दलितों के बारे में दुर्भावनापूर्ण मंशाओं का पटाक्षेप ही तय करेगा कि वर्ण व्यवस्था जनित दुराग्रह और उससे जुड़ी दलितों के प्रति बाधाकारी आशंकायें समाप्त हुई हैं या नहीं।
बाबा साहब किसी खंडित विचारधारा का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। उनके विचारों में सम्पूर्णता थी और सामाजिक लोकतंत्र पर इसीलिये वे बल देते थे क्योंकि इसके बिना राजनीतिक लोकतंत्र का सुचारु संचालन संभव नहीं है। माना जाना चाहिये कि जिस दिन बाबा साहब की विचारधारा समाज में निर्णायक स्थिति हासिल कर लेगी उस दिन न सिर्फ आरक्षण अपने आप समाप्त हो जायेगा बल्कि ऐसी सुव्यवस्था का नक्शा उभरेगा जो दलित और पिछड़ों के साथ-साथ सवर्णों के हितों की रक्षा के लिये भी पूरी तरह आश्वस्तकारी होगा।

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