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राज्यपाल हैं या नृवंश विज्ञानी अथवा मेडिकल साइंटिस्ट

मुक्त विचार
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उत्तर प्रदेश राज्यपाल राम नाइक वैसे तो नेता रहे हैं लेकिन संघ परिवार के हर कार्यकर्ता की तरह वे भी स्वयं सिद्ध इतिहासकार, नृवंश विज्ञानी और मेडिकल साइंटिस्ट हैं इसीलिए उन्होंने राज्यपाल के पद को एकबार फिर विवादों में घेरते हुए यह बयान दे डाला कि इस भारत में रहने वाले हर व्यक्ति में भगवान राम का ही डीएनए है। राम नाइक के लिए व्यक्ति के तौर पर भगवान राम आस्था के केेंद्र हो सकते हैं और बहुत से लोगों के लिए वे आस्था के केेंद्र हो सकते हैं लेकिन पूरे भारत का ठेका उन्होंने इसलिए ले लिया कि उन्हें इस महाद्वीप नुमा देश की सांस्कृतिक विविधता का ज्ञान नहीं है। एक धर्मनिरपेक्ष संविधान की शपथ लेने के बाद राज्यपाल पद पर आसीन हुए राम नाइक लगातार धर्म विशेष के प्रचारक की भूमिका अपनी पदीय हैसियत में निभा रहे हैं जिससे उक्त शपथ के साथ विश्वासघात हो रहा है। उनका उक्त बयान मुसलमानों को लक्ष्य करके दिया गया है लेकिन उनकी बात तो बहुत बाद में होती है। राम नाइक को यह नहीं पता कि मुसलमानों के अलावा भी इस देश में बहुत से ऐसे समुदाय हैं जो राम को श्रद्धेय नहीं मानते। विशेष रूप से तमिलनाडु में तो राम के पुतले तक का दहन होता है। इसके बावजूद देश की एकता में कोई आंच नहीं आती।
एक समय था जब उत्तर प्रदेश भी अर्जक आंदोलन जैसे आंदोलनों का गढ़ बना हुआ था। इस आंदोलन को चलाने वाले रामचरित मानस जलाते थे और दशहरे के दिन रावण की बजाय राम का पुतला फूंकते थे। पुखरायां के आसपास हाल के वर्षों तक छिटपुट तौर पर इस तरह की घटनाएं होती रहीं।
भारतीय इतिहास और संस्कृति के कई पहलू बेहद जटिल हैं और इसे देखते हुए पूरे भारत का ठेका लेकर कोई ऐसी बात संवैधानिक पद पर बैठे हुए व्यक्ति को नहीं करनी चाहिए जिससे आस्था के केेंद्र माने जाने वाले व्यक्तित्व को लेकर कोई विवाद छिड़े। दलितों के मसीहा के रूप में प्रचारित बाबा साहब डा. अंबेडकर का इस बार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी जबरदस्त महिमा मंडन किया है लेकिन उनके विचार भी भगवान श्रीराम के बारे में दूसरी तरह के हैं। रिडिल्स इन हिंदुज्म जैसी उनकी किताब के बारे में जानते हुए भी संघ के मुख पत्र पांचजन्य ने उनके बारे में विशेषांक प्रकाशित किया तो इसका अर्थ यह है कि संघ की भी यह मान्यता है कि कोई महापुरुष अगर भगवान राम के विषय में हमारी आस्था के विपरीत विचार रखता है लेकिन मानवता के हित में उसका योगदान विराट है तो संघ उसका भी सम्मान करेगा। यह एक अच्छी पहल है।
भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें उनके सामाजिक आचरण को खास तौर से प्रेरक बनाए जाने की कोशिश निहित है। जैसा उनका अपने भाइयों के प्रति प्रेम था। वैसा प्रेम इस देश में रहने वाले सभी लोग अपने भाइयों के प्रति रखें। यह एक अच्छा विचार है लेकिन रामचरित मानस में ही एक चौपाई है जाके मन रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। बहुत से लोग राम के मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप को प्रेरणा का बिंदु बनाने में उतनी दिलचस्पी नहीं रखते जितना दिलचस्पी उनके शंबूक वध के प्रसंग में रखते हैं। समाज के लिए इसमें गलत संदेश होने की वजह से ही गोस्वामी तुलसीदास ने यह प्रसंग रामचरित मानस में छोड़ दिया था। बाबा साहब डा. अंबेडकर ने अपने एक लेख में लिखा है कि अगर कोई अस्पृश्य अच्छे कपड़े पहन ले, अच्छा खाना खा ले, अपने बेटे का अच्छा नाम रखने की कोशिश करे तो इसमें सवर्ण हिंदु का कौन सा अहित है। फिर ऐसा क्यों होता है कि वे हैवानियत की सारी हद तोड़कर उस अस्पृश्य को सबक सिखाने के लिए जुट जाते हैं। डा. अंबेडकर का निधन हुए कई दशक हो चुके हैं तब जाति प्रथा कू्ररतम रूप में थी। आज इस प्रथा का स्वरूप काफी हद तक बदल गया है। इसके बावजूद मध्य भारत के गांवों में घोड़े पर चढ़कर दलित युवक की बारात निकलने के बाद खानदान सहित उसकी बर्बर पिटाई की घटनाएं आज तक पूरी तरह खत्म नहीं हुई हैं।
डा. अंबेडकर ने अपने उक्त लेख में दुराग्रह पूर्ण सवर्ण मानसिकता को लेकर कहा था कि वे लोग ऐसा इसलिए करते हैं कि धार्मिक परिवेश में उनके दिमाग में जो विचार भरे जाते हैं उनके कारण वे यह समझते हैं कि धर्म रक्षा के लिए दलितों को गरिमा के साथ जीने से रोकना उनका अनिवार्य कर्तव्य है। उन्होंने कहा कि जब तक वे दलितों के साथ बर्बर कृत्य को अपना धार्मिक कर्तव्य समझते रहेंगे तब तक इस तरह की घटनाओं का अंत नहीं होगा। उन्होंने यूरोप का उदाहरण दिया जहां धार्मिक सुधार के बाद घोषित किया गया कि पोप राज्य से ऊपर नहीं होगा बल्कि राज्य के अधीन होगा और साथ ही कोई व्यक्ति ऐसा धर्म प्रचार नहीं करेगा जो राज्य की नीति के विरुद्ध हो। अगर वह ऐसा करता है तो उसे दंडित किया जाएगा। दूसरी ओर भारत में धर्म निरपेक्ष संविधान तो बन गया लेकिन राज्य की मानवाधिकार वादी नीति के विरुद्ध धर्म प्रचार को दंडित करने की व्यवस्था यहां नहीं की गई इसलिए सामाजिक कानून और प्रथाएं अभी भी यहां संवैधानिक कानून से ऊपर बनी हुई हैं।
यूरोप की तरह यहां भी स्थितियां बदल सकती थीं लेकिन यहां पर माइंड सेट के मामले में कुछ बुनियादी गतिरोध हैं। दुनिया के किसी भी हिस्से की बात हो युवा प्रवृत्ति आम तौर पर विद्रोही होती है और इसकी अभिव्यक्ति वह पहले से चले आ रहे सिस्टम को बदलने की जिद दिखाकर करती है। युवाओं के सनातन चरित्र की वजह से सामाजिक प्रगति दुनिया के अन्य हिस्सों में पींगें भरती रही लेकिन इस मामले में भारतीय युवा प्रवृत्ति अप्राकृतिक रही है। यहां सिस्टम बदलने का मतलब है कि जाति पर आधारित समाज व्यवस्था का सिस्टम बदलने की सोचना और यह बात अगुवाकार भारतीय युवा इसलिए नहीं सोच सकता था कि उसे लगता था कि अगर यह सिस्टम बदल गया तो बिना कुछ किए उसे जन्म के आधार पर जो गौरव प्राप्त होता है उसके लाभ से उसको हाथ धोना पड़ेगा और इस मानसिकता के चलते वह ऐसी यथास्थितिवादी जकडऩ में फंसने को अभिशप्त हो गया कि आज साफ्टवेयर इंजीनियर के मामले में भारत सबसे अगुवा देश है। अमेरिका की सिलकान वैली में भारतीय साफ्टवेयर इंजीनियरों के कारण ही आउट सोर्सिंग पर रोक वहां के राष्ट्रपति के चुनाव में मुख्य मुद्दा बन जाती है पर भारतीय साफ्टवेयर इंजीनियर केवल नौकरी कर पाते हैं। साफ्टवेयर और नई एप डेवलप करके इस विधा से फेसबुक व वाट्सअप संचालकों की तरह खरबों रुपए लाभ का सिस्टम खड़ा करना उनके बूते की बात नहीं है।
यह कमजोरी भारतीय समाज की असुरक्षा ग्रंथि का पर्याय बन गई है। इस कारण इतिहास और संस्कृति से जुड़े प्रश्नों के बारे में किसी साहसिक विचार श्रंखला को जन्म देना उसके बूते की बात नहीं है। वह इस अंतर्विरोधों से भरे उप महाद्वीप को व्यवस्थित और स्थिर बनाने के लिए किसी नए समायोजन के बारे में भी विचार नहीं कर पाता। हालांकि फिर भी यहां दुनिया के किसी हिस्से से ज्यादा स्थिरता है तो वजह यह है कि प्रैक्टिस में तो उसने नए समायोजन को गढ़ लिया है लेकिन विचारों की दुनिया में परंपरागत फोबिया की वजह से इस समायोजन को लेकर ईमानदार स्वीकार्यता उसके बूते के बाहर की बात है। यहां अजातशत्रु को सर्वश्रेष्ठ गुण माना जाता है और अजातशत्रु का मतलब है यथास्थितिवादी। जिसने भी सेफ्टी वाल्व जैसे कुछ सुधार करके सामाजिक यथास्थिति को भंग होने से बचाया उसे भारत रत्न का अधिकारी बना दिया जाता है और सामाजिक न्याय की ओर कदम बढ़ाना यहां सबसे बड़ा गुनाह बन जाता है लेकिन बहुत दिनों तक जातिवाद पर आधारित समाज व्यवस्था को चलाए रखना संभव नहीं होगा और अगर इसकी जिद की जाएगी तो उससे देश का अनिष्ट होने की ही आशंका है। इस व्यवस्था से उबर कर ही यह देश सही मामले में अपनी शक्ति को पहचान सकता है। जिन्होंने यहां की मुख्य धारा के समाज में प्रतिष्ठित होने की परवाह न करके इसके लिए प्रयास किया वे ही देर सवेर प्रतिष्ठित हुए हैं जिसके उदाहरण खुद बाबा साहब अंबेडकर हैं इसलिए अब ऐसे प्रतीकों को खड़े करने की साजिशों से बाज आना होगा जिनमें सामाजिक अन्याय पर आधारित व्यवस्था को फिर से ताकत देने का उपक्रम निहित हो।

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