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विधायकों को झटका से अखिलेश की हनक फिर बहाल

मुक्त विचार
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समाजवादी पार्टी ने जैसे भी हो 74 में से 60 जिला पंचायतों पर परचम लहराकर जो उपलब्धि अर्जित की उससे पार्टी के नेता जिस तरह से खुशी से झूम रहे थे उसके मद्देनजर लोगों को अनुमान नहीं रहा था कि पार्टी जिला पंचायत चुनाव में की गई हुकुमउदूली के गड़े मुर्दे उखाडऩे में अब जुटेगी। खासतौर से उन्नाव के विधायक कुलदीप सिंह सेंगर ने जब पार्टी की अधिकृत प्रत्याशी ज्योति रावत के खिलाफ अपनी पत्नी संगीता सिंह की उम्मीदवारी वापस न लेकर टाई से उनकी ताजपोशी कराने में कामयाबी हासिल कर ली और इसके बाद पार्टी ने उनके प्रति नाराजगी दिखाने की बजाय संगीता सिंह को अपना उम्मीदवार मान लिया तो इस तरह का अनुमान और स्वाभाविक हो गया था। लगा था कि पार्टी सभी अपनों के साथ इसी तरह की रहमदिली से पेश आयेगी लेकिन बुधवार को पार्टी ने चार विधायकों सहित कई लोगों पर अनुशासन की तलवार गिरा दी तो प्रेक्षक चौंक उठे।
बेशक उन्नाव के विधायक कुलदीप सिंह का मामला अभी भी पार्टी हाईकमान ने अपवाद में ही रखा है। उनके खिलाफ कार्रवाई न करने को लेकर पार्टी में तरह-तरह की चर्चायें हो रही हैं लेकिन सीतापुर के चार विधायकों महेन्द्र सिंह झीना बाबू, अनूप गुप्ता, राधेश्याम जायसवाल तथा मनीष रावत को एक झटके में समाजवादी पार्टी के विधानमण्डल दल तथा पार्टी की सदस्यता से निलम्बित कर दिया गया है। सीतापुर के पार्टी अध्यक्ष शमीम कौसर को भी हटा दिया गया है और पूरी जिला कार्यकारिणी भंग कर दी गयी है। शाहजहांपुर में पूर्व सांसद मिथलेश कुमार और फतेहपुर में पूर्व विधायक अचल सिंह भी कार्रवाई की चपेट में आ गये हैं।
सपा हाईकमान द्वारा अन्दरूनी मामलों में कड़ा रुख दिखाने की कई वजह हो सकती हैं। इनमें एक वजह यह भी है कि भले ही प्रतिद्वंद्वी पार्टियां जिला पंचायत चुनाव में सपा को मिली सफलता उसकी सत्ता का प्रताप मानकर भाव देने के मूड में न हों और इस इतिहास की दम पर तसल्ली कर रहे हों कि जिनको जिला पंचायत चुनाव में अतीत में सफलता मिली उन पार्टियों को विधानसभा चुनाव में किरकिरी झेलनी पड़ी और इस इतिहास को एक बार फिर दोहराया जायेगा लेकिन समाजवादी पार्टी इसे अपनी वास्तविक ताकत के रूप में आंक रही है जिससे उसका आत्मविश्वास बुलंदियों पर है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के दो तीन दिन के बयानों से भी इसकी झलक मिल रही है। इसीलिये पार्टी अनुशासन के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहती। सीतापुर के निलंबित किये गये चारों विधायकों का रिकार्ड कलंकित और विवादित है। हो सकता है कि समाजवादी पार्टी ने इनके क्षेत्रों में अगले चुनाव में उम्मीदवारी के बदलाव की भी योजना बना रखी हो और इसलिये भी अभी से उन्हें निपटा देने का कदम उठा दिया गया है।
जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव प्रक्रिया की शुरूआत के समय मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के दाहिने हाथ कहे जाने वाले सुनील साजन और आनंद भदौरिया को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया था जिसकी वजह से यह संदेश प्रसारित हो गया था कि उनकी क्षमताओं पर पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह का विश्वास कुछ डगमगाया है। इसलिये पार्टी के फैसले लेने का अधिकार कमोवेश उन्होंने अपने अनुज शिवपाल सिंह यादव को हस्तांतरित कर दिया है। मुख्यमंत्री के कमजोर हो जाने की धारणा का असर सरकार के संचालन में भी नजर आने लगा था। जिला पंचायत चुनाव के बाद इस धारणा को निर्मूल करने की जरूरत महसूस की गयी और पार्टी के कई दिग्गजों के खिलाफ अखिलेश की कलम से फैसला घोषित कराकर इस दिशा में कदम आगे बढ़ाया गया ताकि लगे कि अखिलेश पार्टी और प्रदेश की सरकार के मामले में पहले की तरह ही निद्र्वंद्व रहकर फैसला लेने में सक्षम हैं। जहां तक कुलदीप सिंह के खिलाफ कार्रवाई न होने का प्रश्न है। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि वे मुख्यमंत्री के ठाकुरों में सबसे अजीज मंत्री अरविन्द सिंह गोप के नजदीकी रिश्तेदार हैं। अखिलेश को राजा भइया के तौर तरीके सरकार के गठन के समय से ही रास नहीं आ रहे थे और अब उनको अखिलेश ने पूरी तरह से हाशिये पर डाल दिया है। ऐसे में ठाकुरों के बीच पैठ की राजनीति को संतुलित रखने के लिये वे अरविन्द गोप पर पूरा हाथ रखे हुए हैं। कुलदीप के खिलाफ कार्रïवाई न होने देकर भी अखिलेश ने पार्टी और सरकार में अपनी पूर्ववत पुख्ता स्थिति को साबित किया है।
इस बीच सपा मुखिया मुलायम सिंह का परिवार देश के किसी भी राजनीतिज्ञ की तुलना में सबसे बड़ा राजनीतिक परिवार बन गया है। उनके परिजन और सीधे रिश्तेदारों में 20 लोगों को अभी तक लाल बत्तियां मिल चुकी हैं। झांसी और हमीरपुर में चुने गये जिला पंचायत अध्यक्ष इसमें शुमार नहीं हैं जबकि इन लोगों से भी उनकी कहीं न रिश्तेदारी जुड़ती है। इस तरह अप्रत्यक्ष रिश्तेदारों की भी गिनती कर ली जाये तो राजनीति में उनका कुनबा और ज्यादा विस्तार कर चुका है। पारिवारिक एकजुटता को मुलायम सिंह ने राजनीति में अपनी ताकत बढ़ाने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और यही कारण है कि अपने समकालीन धुरंधरों के साथ काम करते हुए भी उन्होंने अन्ततोगत्वा पार्टी को अपनी निरंकुश प्रापर्टी के रूप में तब्दील करने में सफलता हासिल की लेकिन सत्ता के साथ दरबारी संघर्ष की नियति अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई है। चाहे भले ही पूरी सत्ता मुखिया अपने परिवार में ही केन्द्रित क्यों न कर दें। सपा के मुखिया के परिवार में भी अब ऐसी अन्तर्कलह उभरने लगी है जिससे दूरगामी तौर पर उनकी पार्टी की जड़ें हिलने का अन्देशा महसूस किया जाने लगा है। 2004 में जब मुलायम सिंह खुद मुख्यमंत्री थे तभी उनके चचेरे भाई रामगोपाल यादव और अनुज शिवपाल यादव में तलवारें खिंचने की शुरूआत हो गयी थी। उनके पुत्र अखिलेश के शुरूआती दौर में रामगोपाल गाड फादर की हैसियत में रहे जिससे शिवपाल को काफी मलाल महसूस होता रहा। उन्होंने सधे ढंग से अपने को ऊपर लाने और रामगोपाल का दबदबा खत्म करने की पैंतरेबाजी की और गत वर्ष के आखिरी महीनों में उनको कामयाबी मिली। अखिलेश ने मंत्रिमण्डल में जो परिवर्तन किया उसमें पूरी तरह से शिवपाल की चली। इसके बाद जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में तो मुलायम सिंह ने पूरी बागडोर ही उनके हाथ में सौंप दी। इस क्रम में सुनील साजन और आनंद भदौरिया के निष्कासन की वजह से वे और अखिलेश आमने सामने जैसी स्थिति में आ गये थे लेकिन समय रहते शिवपाल इस खाई को पाटने में सफल हो चुके हैं। रामगोपाल इससे बेहद परेशान हैं। उनकी भड़ास अपने पुत्र अक्षय यादव के संसदीय क्षेत्र फिरोजाबाद में बनी घटिया सड़कों के बहाने उस समय छलक आयी जब उन्होंने शिवपाल के लोक निर्माण विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अपना लेटर बम गिरा दिया। परिवार में इसे लेकर फुसफुसाहट जरूर हुई होगी लेकिन अन्दर से छनकर जो खबरें आ रही हैं उनके मुताबिक मुलायम सिंह का मानना है कि अगले विधानसभा चुनाव में सपा निश्चित रूप से बाजी मार लेगी अगर अखिलेश का चेहरा और शिवपाल की रणनीति की जुगलबंदी में लड़ाई लड़ी जाये। इसलिये फिलहाल सपा मुखिया के पारिवारिक शक्ति संतुलन के कोण में कोई बदलाव होने की सूरत नजर नहीं आ रही। भले ही रामगोपाल यादव कितने भी गुस्सा रहें।

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