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शंकराचार्य को जेल भेजने वाली जयललिता

मुक्त विचार
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तमिलनाडु वायकॉम के वीर पेरियार रामास्वामी नायकर और अन्नादुराई जैसे मूर्तिभंजक महापुरुषों की धरती है। इन महापुरुषों ने भले ही भारतीय पहचान और भारतीय संस्कृति से छुटकारे की छटपटाहट दिखाई हो, लेकिन इन महापुरुषों की प्रेरणा को यथास्थिति की जड़ें हिलाने वाले देश के हर कोने के परिवर्तनकामियों ने अपने प्रेरणास्रोत के रूप में कबूल किया है। अन्नादुराई के साथ भी फिल्मी ग्लैमर की पृष्ठभूमि जुड़ी थी लेकिन उनके द्रमुक परिवार की वंशवेल में जब एमजी रामचंद्रन और उनके बाद में जब जयललिता जुड़ीं तो इसमें विचारधारा का एलीमेंट वरतरफ हो गया और फिल्मी ग्लैमर की सम्मोहनकारी चकाचौंध ने पूरे राजनीतिक क्षितिज को अाप्लावित कर दिया। इस तरह देखें तो वैचारिक आलोढ़न की इस धरती पर जयललिता के नेतृत्व की जब अदम्य छाया पसरी तो यह एक संदर्भ में त्रासदी रही, अभिशाप रही लेकिन जीवन के उपसंहार तक जयललिता के हिस्से में उनका जो नसीब आया उसके मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि उनके योगदान को उनके कुल, जाति से परे देखा जाना चाहिए। अंततोगत्वा जयललिता ने उत्तर भारत के अवसरवादी कुलद्रोही नेताओं की तरह अपने को सैद्धांतिक विचलन के निमित्त के रूप में इस्तेमाल नहीं होने दिया। जयललिता द्रमुक परिवार की नेत्री होने के बावजूद अपनी आस्तिक पहचान प्रक्षेपित करने के लिए माथे पर धार्मिक प्रतीक के बतौर तिलक सजाती थीं लेकिन मृत्यु का आभास हो जाने के बावजूद वे कोई ऐसी वसीयत नहीं छोड़ गईं जिससे द्रमुक परिवार में विजातीय होने के कारण इसके आंदोलन को छुरा घोंपने का कलंक इतिहास उनके मत्थे पर मढ़ता।
जयललिता की अंत्येष्टि दाह संस्कार के कर्मकांड के तहत नहीं हुई। उनके पार्थिव शरीर को भूगर्भ में समाधिस्थ किए जाने की नास्तिक द्रमुक परम्परा के मुताबिक उऩका अंतिम संस्कार हुआ। प्रतीकात्मक होने के बावजूद यह घटना काफी महत्व की है।
वर्ण व्यवस्था के फलक पर जयललिता और मायावती भले ही एकदम सर्वथा विपरीत अनंतिम ध्रुवों पर हों लेकिन दोनों की तासीर कई मामलों में ऐसी समानता प्रदर्शित करती है जो बहुत अद्भुत लगती है। मायावती के आलोचक भी मानते हैं कि यूपी में कानून व्यवस्था के मामले में बेबाक रवैया रखने वाला उनकी सानी का कोई दूसरा नेता नहीं हुआ। 2004 में इस मामले में जयललिता ने उनसे भी ज्यादा विलक्षण रिकार्ड कायम किया। मुस्लिम शासकों के कार्यकाल में भी कोई हुकूमत जो करने का साहस नहीं कर सकी उसे जयललिता ने बिना किसी प्रलय की परवाह किए करके दिखाया। जब हत्या में आरोपित किए गए एक शंकराचार्य को गिरफ्तार कर जेल पहुंचाने की धृष्टता उन्होंने की। शंकररामन हत्याकांड में कांची कामकोटि के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती का नाम जब दर्ज हुआ तो आंध्र प्रदेश के महबूबनगर में अपनी पुलिस भेजकर उस समय उनको गिरफ्तार करा लिया जब वे कार्तिक मास में होने वाली शंकराचार्य की सबसे महत्वपूर्ण त्रिकाल संध्या पूजा के लिए निकलने वाले थे। यही नहीं इसके बाद उन्होंने कनिष्ठ शंकराचार्य बृजेंद्र सरस्वती को भी गिरफ्तार करवा लिया। उऩकी चिर प्रतिद्वंद्वी डीएमके को भी इसके बाद उनके लिए धर्म निरपेक्ष होने का प्रमाणपत्र जारी करना पड़ा था। हालांकि 9 साल बाद शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती सहित इस मामले के सभी 23 अभियुक्त अदालत से बरी कर दिए गए थे।
जयेंद्र सरस्वती प्रकरण के पहले कानून व्यवस्था के मामले में ऐसी प्रतिबद्धता जयललिता राजीव गांधी हत्याकांड में संलिप्त लिट्टे के कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई में भी दिखा चुकी थीं। तमिल जनता की लिट्टे से जुड़ी भावनाओं की परवाह न करते हुए उन्होंने राजीव गांधी की हत्या की वारदात और साजिश में शामिल सभी लिट्टे समर्थकों को कानून के शिकंजे में नथने में कोई रियायत नहीं बरती। हालांकि अपने पिछले कार्यकाल में उन्होंने अपने इस रुख को पलटकर राजीव गांधी के हत्यारों को दंडमुक्त कराने के लिए अपनी सत्ता का भरपूर इस्तेमाल किया पर अदालत के हस्तक्षेप की वजह से इस मामले में वे सफल नहीं हो पाई थीं। जयललिता इन दिनों भाजपा के करीब हो गई थीं लेकिन नरेंद्र मोदी द्वारा अपने शपथ ग्रहण समारोह में श्रीलंका के राष्ट्रपति को बुलाने से वे बुरी तरह बिफर गई थीं। उन्होंने यह दर्शाया था कि उनके लिए भारतीय राष्ट्रीय राज्य के सामरिक हितों से तमिल भावनाएं ऊपर हैं। गनीमत यह रही कि जयललिता मुसलमान नहीं थीं वरना उनके अलगाववादी रुख से इस्लाम में गैर वफादारी और देश के टुकड़े-टुकड़े कराने की जड़ों को ढूंढ लिया जाता।
लेकिन असल बात यह है कि जयललिता में अपने लिए द्रमुक आंदोलन के दाय का अहसास था इससे उऋण नहीं होने की भावना ने उन्हें विचारधारा के मामले में पटरी पर रखा भले ही, उनके मूल्यांकन में कहा जाता है कि जयललिता किसी विचारधारा से बंधी नहीं थीं। सामाजिक न्याय की रोटी खाकर सत्ता में दंड पेलने वाले उत्तर भारत के नेताओं के लिए उऩका किरदार एक आईना रहेगा। यूपी के नेताओं ने सत्ता के शिखर पर पहुंचने के बाद समझौतापरस्ती और संशोधनवाद का रास्ता अपनाया जिससे क्रांतिकारी भावनाओं का तार्किक परिणति पर पहुंचने के पहले ही पूरी तरह क्षरण हो गया। हालांकि उऩका यह रवैया उऩके बलिदानी पुरखों के साथ बहुत गम्भीर विश्वासघात की मानिंद है।

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